नागभट्ट द्वितीय की उपलब्धियों पर प्रकाश डालिए।

नागभट्ट द्वितीय की उपलब्धियों

नागभट्ट द्वितीय (808-833 ई.)- वत्सराज के बाद उसके पुत्र नागभट्ट द्वितीय ने गरी सम्भाली। इसने 805 ई. से लेकर 83 ई. तक शासन चलाया। शुरुआत में नागभट्ट ने बिखरे हुए राज्य को फिर से संगठित करने की कोशिश की, लेकिन राष्ट्रकूट के शासक गोविन्द तृतीय ने उसे बुरी तरह हरा दिया। ग्वालियर से प्राप्त एक अभिलेख के अनुसार नागभट्ट ने आन्ध्र, सैन्धव, विदर्भ और कलि के शासकों को आत्मसमर्पण के लिए विवश कर दिया। यह भी कहा जाता है कि नागभट्ट द्वितीय ने कन्नौज के चक्रायुध को भी परास्त किया जिसे पाल राजा ने राजगद्दी पर बिठाया था। आनर्त, वत्स, मत्स्य, किरात, मालवा और तुरूराक के पहाड़ी राज्यों को भी नागभट्ट ने अपने साम्राज्य में मिला लिया था लेकिन शीघ्र ही गोविन्द तृतीय ने नागभट्ट को हरा दिया। भयातुर नागभट्ट अज्ञात स्थान की ओर चला गया। उसके राज्य को नष्ट करके गोविन्द तृतीय हिमालय तक पहुँच गया। यहाँ पर यह स्मरण रखना चाहिए कि नागभट्ट की पराजय से धर्मपाल और देवपाल को पुनः वंश का वर्चस्व स्थापित करने का मौका हाथ लग गया। इस प्रकार प्रतिहारों की शक्ति में कुछ कमी आ गयी।

नागभट्ट द्वितीय ने अपने समय में चाह्मान वंश के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये। पृथ्वीराज विजय में इस बात का उल्लेख है। इस ग्रन्थ के अनुसार चाहमान राजकुमारी कलावती का विवाह नागभट्ट द्वितीय के साथ हुआ। सन् 833 ई. में गंगा में डूबकर नागभट्ट द्वितीय ने अपने प्राण त्याग दिये।

प्रारम्भिक प्रतिहार शासकों के सम्बन्ध में डॉ. मजूमदार कहते हैं कि “भारत के तत्कालीन इतिहास में वत्सराज और नागभट्ट द्वितीय के राज्यों का विशिष्ट स्थान है। दोनों ही महत्वाकांक्षी व्यक्ति थे। सैनिक प्रवीणता दोनों में पर्याप्त मात्रा में विद्यमान थी। राष्ट्रकूटों के सामने उनकी अन्तिम पराजय के कारण उत्तरी भारत के एक सिरे से दूसरे सिरे तक उन्होंने जो सैनिक सफलताएं प्राप्त की थी, उनके गौरव में कोई कमी नहीं आती। उन्होंने एक प्रान्तीय राज्य को पहली श्रेणी के सैनिक तथा राजनैतिक शक्ति में परिवर्तित किया। एक सुस्थिर साम्राज्य स्थापित करने का उनका स्वप्न तो पूरा नहीं हुआ तथापि उन्होंने उसकी जड़ें इस प्रकर जमा दी कि कुछ समय बाद राजा भोज अपने वंशानुगत शत्रु पाल और राष्ट्रकूट वंशों के घोर विरोध के बावजूद इस महान कार्य में सफल हुआ।

नागभट्ट द्वितीय की उपलब्धियाँ (विजय)- नागभट्ट द्वितीय एक महत्त्वाकांक्षी शासक या उसने न केवल पालो और राष्ट्रकूटों से संघर्ष किया, बल्कि प्रतिहार साम्राज्य की सीमाओं का भी विस् किया। नागभट्ट द्वितीय की उपलब्धियों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है

राष्ट्रकूटों से युद्ध- नागभट्ट द्वितीय एक महत्वाकांक्षी और बुद्धिमान शासक था। उसने अपने शत्रुओं से रक्षा के लिए अन्य सहयोगी शासकों के साथ एक मित्र संघ का निर्माण किया। उसके द्वारा मित्र संघ के निर्माण से राष्ट्रकूट शासक गोविन्द तृतीय का रूष्ट होना स्वाभाविक था। राष्ट्रकूट शासक ने बी दूरदर्शिता से काम लिया । सर्वप्रथम उसने मालवा राज्य की रक्षा करने के लिए कक्रराज की नियुक्ति की तथा अपने भाई इन्द्र को प्रतिहारों के मूल निवास स्थान पर आक्रमण करने के लिए भेजा। इसके पश्चार वह स्वयं कन्नौज पर आधिपत्य स्थापित करने के उद्देश्य से उत्तर की ओर बढ़ा। संजन ताम्रपत्र लेख विदित होता है कि गोविन्द तृतीय ने नागभट्ट एवं चन्द्रगुप्त का जो युद्ध में पर्वत के समान स्थिर नाश कर दिया। इसके अतिरिक्त पठारी स्तम्भ लेख से भी विदित होता है कि कक्रराज (गोविन्द तृती का शासन) ने नागावलोक को युद्ध में परास्त किया, डॉ. भण्डारकर, डॉ. त्रिपाठी एवं डॉ. पुरी आ विद्वानों ने नागवलोक का समीकरण नागभट्ट द्वितीय से किया है। रधनपुरा से भी विदित होता कि गोविन्द तृतीय ने गुर्जर नरेश नागभट्ट के शौर्य को समाप्त कर दिया। वह भयभीत होकर वि गया, जिससे कि उसे स्वप्न में भी युद्ध न दिखायी दे । इतिहासकारों ने बनी लेख के आधार पर स्वीकार किया है कि यह युद्ध सम्भवतः 806 ई. के मध्य हुआ होगा।

संजन ताम्रपत्र से विदित होता है कि इस युद्ध के पश्चात् पाल नरेश धर्मपाल एवं कन्नौज के राजा युध ने राष्ट्रकूट शासक गोविन्द तृतीय के सम्मुख बिना युद्ध किये हुए आत्मसमर्पण कर दिया था। चक्रायुध इसके पश्चात् राष्ट्रकूट शासक अपने आन्तरिक संकटों में फंसे होने के कारण तथा वृद्ध हो जाने के कारण अपने राज्य दक्षिण में वापस लौट गया।

कन्नौज पर विजय –

राष्ट्रकूट शासक गोविन्द तृतीय के वापस लौट जाने के पश्चात् नागभट्ट ने पुनः उत्तरापथ की ओर प्रस्थान किया। उसने कन्नौज पर आक्रमण किया और वहाँ के राजा को जो धर्मपाल के अधीनस्थ था, को बुरी तरह पराजित किया। इस प्रकार नागभट्ट द्वितीय ने कन्नौज पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया और अपनी राजधानी बनाया। इस प्रकार नागभट्ट द्वितीय ने पुनः प्रतिहर वंश का पुनरुद्धार किया।

बंगपति (धर्मपाल ) से युद्ध नागभट्ट द्वितीय के द्वारा कन्नौज पर आक्रमण किया जाना पाल नरेश धर्मपाल के लिए असहनीय हो गया। अतः पाल नरेश धर्मपाल ने नागभट्ट को पराजित करने के लिए पश्चिम की ओर प्रस्थान किया। मुंगेर के पास दोनों के मध्य घनघोर युद्ध हुआ। इस युद्ध में पाल नरेश धर्मपाल पराजित हुआ। इस संघर्ष में उत्तरी भारत के तीनों राजाओं-चाहमान कुल के बाहुक धवल गुर्जर कुल (जोधपुर क्षेत्र) के राजा कक्क एवं गुहिलोत वंश के राजा शंकरगढ़ ने नागभट्ट द्वितीय का साथ दिया था। इस प्रकार राष्ट्रकूट नरेश गोविन्द तृतीय के वापस जाने के कारण नागभट्ट द्वितीय ने अपने साम्राज्य का विस्तार किया तथा त्रिदलीय संघर्ष में भी सफलता प्राप्त की।

अन्य विजय – ग्वालियर प्रशस्ति से विदित होता है कि बंगपति को पराजित करने के पश्चात

नागभट द्वितीय ने अन्य अनेक राज्यों पर विजय प्राप्त की।

  1. आनर्त-उत्तरी काठियावाड़
  2. मालवा-मध्य भारत
  3. किरात-हिमालय प्रदेश का कुछ भाग
  4. तुरुष्क-मुस्लिम राज्य
  5. वत्स कौशाम्बी
  6. मत्स्य-पूर्वी राजपूताना ।

यशोवर्मन का प्रारम्भिक जीवन और उपलब्धियाँ बताइये।

डॉ. बी. एन. पुरी का कथन है कि ग्वालियर प्रशस्ति में वर्णित तुरुष्क का तात्पर्य सिन्ध में बसे अरबों से हैं। प्रबन्ध कोष नामक ग्रन्थ से भी विदित होता है कि सुल्तान वेग वारिश या बशर प्रतिहार राज्य के पश्चिमी भाग पर आक्रमण करना चाहता था परन्तु नागभट द्वितीय के सामन्त गोविन्दराज ने उन्हें खदेड़ दिया।

पृथ्वीराज विजय नामक ग्रन्थ के आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि चौहान वंश भी नागभट्ट के अधीन था। इस ग्रन्थ के अनुसार चौहान गूवक प्रथम ने अपनी बहन का विवाह कन्नौज नरेश के साथ किया था यह कन्नौज नरेश नागभट्ट द्वितीय ही था विग्रहराज चौहान के हर्ष अभिलेख से भी सिद्ध होता है कि गूवक प्रथम ने नागभट्ट द्वितीय (नागावलोक) की सभा में अत्यधिक सम्मान प्राप्त किया था।

परन्तु डॉ. त्रिपाठी का कथन है कि, ‘इस सम्बन्ध में निश्चत रूप से नहीं कहा जा सकता है कि उसने किन-किन राज्यों पर अधिकार कर लिया था, परन्तु मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि नागभट्ट द्वितीय के साम्राज्य में राजपूताना का एक भाग (आधुनिक उत्तर प्रदेश) एवं मध्य भारत का एक विस्तृत भूभाग, कदाचित् उत्तरी काठियावाड़, कौशाम्बी और उससे सटा हुआ क्षेत्र उनके राज्य की दक्षिणी सीमा पर था। उपरोक्त विजय के पश्चात् नागभट्ट द्वितीय ने परम भट्टारक, महाराजाधिराज, एवं परमेश्वर की उपाधि धारण की थी सन् 833 ई. में नागभट्ट द्वितीय की मृत्यु हो गयी।

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