दासता सिद्धान्त की आलोचनात्मक विवेचना कीजिए।

दासता सिद्धान्त की आलोचना – अरस्तू ने दासता और उसके औचित्य के बारे में लिखा है कि दासता का जन्म पारिवारिक जीवन के आरम्भकाल से होता है। अरस्तू ने दार्शनिक सिद्धान्त द्वारा भी यह सिद्ध किया है कि दासता मानव स्वभाव में ही विद्यमान है। आत्मा के दो अलग-अलग तत्त्वों में एक तत्त्व दूसरे की दासता करता है इसलिए मानव परिवारों में, जो आत्मा की प्रतिच्छाया या प्रतीक हैं, दासप्रथा आरम्भ रूप से विद्यमान रही है। बाद में अन्य प्रकार के दासों के निर्माण की प्रथा भी चल पड़ी। दासता के सिद्धान्त की विशेषताएँ और दासता का औचित्य

1. अरस्तू के अनुसार दासता एक प्राकृतिक तथ्य है। शासन करना और शासित होना दोनों प्रकृति के अनुसार आवश्यक ही नहीं वरन् अनिवार्य सत्य है। शरीर का आत्मा के द्वारा शासित होना शरीर के ही हित में है उसी प्रकार स्वामी द्वारा दास का प्रशासन भी दास के ही हित में है।

2. अरस्तू अपने सिद्धान्त में दासता को एक नैतिक रूप दे देते हैं। दासता आत्मिक है क्योंकि आत्मा शरीर के ऊपर प्रशासन कर आत्मिक उद्देश्य को ही पूरा करती है। शरीर का इस प्रकार आत्मिक विकास होता है। अरस्तू इसी प्रकार यह मानते हैं कि स्वामी के निर्देशन में रहकर उसके कार्यों को करते रहने से दास की नैतिकता का विकास होता है। दूसरी ओर स्वामी को भी घरेलू कार्यों से निश्चिन्तता प्राप्त हो जाने से यह भी अपनी आत्मिक उन्नति में लग सकता है। इस प्रकार दासता नैतिकता उन्नति का साधन है।

3. अरस्तू के अनुसार दाम के शरीर की बनावट ऐसी होती है कि उसे अच्छी तरह पहचाना जा सकता है। वह तो शारीरिक श्रम के लिए ही होता है।

4. अरस्तू के विचारों में दास का शरीर यद्यपि स्वामी से अलग अवश्य है तथापि वह स्वामी का ही अंग है और इसीलिए स्वामी को अपने दास की उसी तरह परवाह और रक्षा करनी चाहिए जिस प्रकार अपने उन दूसरों अंगों को जो उसके शरीर से जुड़े हैं और अभिन्न अंग हैं। ज दोनों के हितों में बहुत अधिक एकता है तथा दोनों के बीच एक मित्रता का सम्बन्ध होना चाहिए क्योंकि दोनों की स्थिति बिल्कुल प्राकृतिक और आंगिक है।

5. परिवार में जितने प्रकार की सम्पत्ति है उसे दो भागों में बाँटा जा सकता है- जीवित सम्पत्ति और निर्जीव सम्पति जीवित सम्पत्ति जीवित औजारों और यंत्रों का संग्रह है। दास सम्पत्ति का एक जीवित यंत्र है।

6. अरस्तु सिद्धान्त में दास उत्पादक यंत्र नहीं है वह केवल क्रियात्मक यंत्र है। यदि कुटुम्ब का सारा कार्य मशीनों द्वारा भी सम्पादित हो जाये तब भी दासों की आवश्यकता पड़ेगी क्योंकि दासों का सम्बन्ध परिवार के स्वयं जीवन और अस्तित्त्व के साथ जुड़ा हुआ है। केवल कार्य के साथ ही नहीं।

अरस्तु के दासता विषयक सिद्धान्त का औचित्य पांच बातों पर आधारित है

  1. प्रकृति में एक की दूसरे पर श्रेष्ठता सर्वत्र पाई जाती है।
  2. प्रकृति की सारी चीजों में विषमता पाई जाती है।
  3. प्रत्येक के लिए कार्य उसकी प्रकृति के अनुसार होना चाहिए।
  4. शक्तिहीन और अयोग्य शक्तिशाली और योग्य की अधीनता में रहें तो इसमें दोनों का ही हित होता है।
  5. जो चीज प्राकृतिक है यह न्यायपूर्ण भी है।

वैधानिक और यथार्थ दासता

अरस्तू प्राकृतिक दासता और वैधानिक दासता में अन्तर करते हैं। उनके अनुसार एक तो प्राकृतिक दासता है, जिसका वर्णन ऊपर किया जा चुका है और दूसरी दासता वह है जो या तो कानून के द्वारा या परम्पराओं के द्वारा मान ली गयी है। यह बात उन लोगों पर लागू होती है जो या तो किसी युद्ध में विजेता द्वारा जीत लिये गये होते हैं या उन्हें दासता के रूप में खरीद लिया गया होता है।

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अरस्तू इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि जो लोग बास हैं उनमें न सभी प्राकृतिक रूप से दास ही हैं और जो स्वतंत्र हैं उनमें न सही रूप में स्वतंत्रता ही है। स्वतंत्रों में भी दास होते हैं और दासों में भी स्वतंत्र होते हैं। यथार्थ रूप में दास वही है जो सही रूप में प्राकृतिक दास हैं या अयोग्य हैं। वैधानिक यसता कुछ के लिए ठीक है, दूसरों के लिए अनुचित है।

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