जेण्डर शब्द की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।

जेण्डर शब्द की अवधारणा

जेण्डर शब्द का संबंध प्रारम्भ में भाषा में लिंग अर्थात् स्त्रीलिंग व पुल्लिंग से रहा है। अन्य भाषाओं में जेण्डर विभाजन की इस प्रक्रिया के तीन रूप स्त्रीलिंग (feminine) पुल्लिंग (masculine) और न्यूट्रल जेण्डर का प्रयोग मिलता है तो हिन्दी में स्त्रीलिंग व पुल्लिंग केवल दो रूपों का प्रयोग मिलता है वहीं वैदिक संस्कृत में देखते हैं तो एक तीसरा लिंग नपुंसकलिंग (उभयलिंगी) का प्रयोग भी भाषा में देखा जा सकता है। पश्चिम में तीसरे न्यूट्रल जेण्डर विभाजन का आधार स्त्रीत्व व पुरुषत्व के समाज में निर्धारित गुणों से अलग स्वतंत्र पहचान का होना था तो वहीं संस्कृत में तीसरे लिंग से अभिप्राय स्त्रीत्व व पुरुषत्व के गुणों का साथ होना था। जो आज भी भाषा विज्ञान में देखा जा सकता है। स्त्रीत्व व पुरुषत्व शब्दों के प्रयोग के संदर्भ में अरस्तू ने कहा कि ‘ग्रीक विचारक ‘प्रोतागोरस’ (Protagoras) ने ही भाषा में स्त्रीत्व (feminine), पुरुषत्व (masculine) और न्यूट्रल शब्दों का प्रयोग संज्ञा के वर्गीकरण के संदर्भ में किया।’ भाषा में जेण्डर की यह विभाजन प्रक्रिया व्यवहार मूलक थी जैसा कि चार्ल्स होकेट (Charls Hockett) ने कहा ‘शब्दों के व्यवहार के आधार पर संज्ञा का वर्गीकृत विभाजन जेण्डर है’। भाषा के संदर्भ में भले ही जेण्डर का प्रयोग शब्दों के व्यवहारमूलक प्रयोग पर आधारित था लेकिन सामाजिक संदर्भों को भी भाषा से अलग करके नहीं देखा जा सकता जैसा कि ‘बारबरा जानसन का मानना था कि जेण्डर (स्त्री) का सवाल भाषा का सवाल है क्योंकि भाषा भौतिक रूपों में हस्तक्षेप करती है’।

जेण्डर का सम्प्रत्यय

जेण्डर‘ का संबंध प्रायः उन भूमिकाओं से होता है जो कि समाज महिलाओं, पुरुषों, लड़कियों और लड़कों के लिए अलग-अलग रूप में तय करता है। इसके विपरीत स्त्री या पुरुष की भूमिकाओं का निर्धारण जैविक अथवा प्राकृतिक कारकों से होता है। सामाजिक भूमिकाएं नहीं बदली भी जा सकती है, परन्तु प्राकृतिक व जैविक आधार पर बनी लैंगिक भूमिकाएँ प्रायः बदल जा सकती। इस बात को और अधिक स्पष्ट समझने की जरूरत है कि “जेण्डर” व सैक्स के बीच मूलरूप से क्या अंतर है।

जेण्डर शब्द का प्रयोग पिछले कुछ वर्षों में बढ़ा है। पहले इसका उपयोग स्त्री और पुरुषों के शारीरिक या जैविक अंतर को समझने में ही किया जाता था पर अब इसके सही संदर्भ के बारे में काफी हद तक सहमति बन चुकी है। वैसे तो अभी प्रायः आमजन इस बारे में अधिक स्पष्ट नहीं है। अधिकांश पढ़े-लिखे स्त्री-पुरुषों में भी इस बारे में भ्रमित धारणाएँ प्रचलित है। वस्तुतः जेण्डर शब्द को अब सामाजिक संदर्भ के रूप में काम में लिया जा रहा है। इसे स्त्री और पुरुष की सामाजिक व सांस्कृतिक आधारों पर बनी भूमिकाओं, ‘अधिकारों, संसाधनों के उपयोग व नियंत्रण तथा व्यवहारों से जोड़ कर देखा जाता है। स्त्री व पुरुषों के इन व्यवहारों के पीछे समाज, संस्कृति, परम्पराओं आदि की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसलिए जेण्डर को कुछ व्यक्ति ‘सामाजिक लिंग’ के नाम से भी पुकारने लगे हैं।

जेण्डर संस्कृति द्वारा पहले से निर्धारित स्त्री-पुरुष शारीरिक संरचना के आधार पर किया गया विभाजन है। जो स्त्रीत्व व पुरुषत्व के सामाजिक विचार को गढ़ता है।…. जेण्डर के संबंध में हम केवल दो संभावनाओं स्त्री-पुरुष पर ही बात करते हैं जबकि उससे इत्तर एक तीसरा जेण्डर भी है जो इत्तरलिंगी है। वह भी जेण्डर पहचान के प्रश्न से जूझता देखा जा सकता है।

विश्व स्वास्थ संगठन (WHO) के अनुसार, “Gender Refers to the socially constructed roles behavioiur actives and attributes that given society considers appropriate for men and women.”

जैविक बनावट और संस्कृति के अंतरसंबंधों की समझ को अगर हम जेण्डर पर लागू करें तो निष्कर्ष यही निकलता है कि महिलाओं के शरीर की बनावट भी सामाजिक बंधनों और सौन्दर्य के मानकों द्वारा निर्धारित की गई है। शरीर का स्वरूप जितना ‘प्रकृति’ से निर्धारित हुआ है उतना ही ‘संस्कृति’ से भी इस प्रकार महिलाओं की मौजूदा अधीनता, जैविक असामना से नहीं पैदा होती है बल्कि यह ऐसे सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों और संस्थाओं की देन है जिसका उदाहरण ज्यां जांक रूसो हैं। रूसो क्रांतिकारी राजनैतिक सिद्धान्तों के सबसे जटिल बौद्धिक विचारक माने जाते हैं, स्त्रियों के संबंध में इनका कहना है ‘स्त्री का निर्माण पुरुष को खुश करने के लिए विशेष तौर पर हुआ है। पुरुष की विशेषता उसकी शक्ति है, वह खुशी देता है क्योंकि वह शक्तिशाली है। मैं स्वीकार करता हूँ कि यह प्रेम का नियम नया नहीं है, यह प्रकृति का नियम है, जो कि खुद प्रेम से भी यदि स्त्री का निर्माण पुरुष को खुश करने के लिए तथा उसके नियंत्रण पुराना में रहने के लिए हुआ है तो उसे खुद को पुरुष की नजरों में अधिक आनंददाई बनाने की कोशिश करनी चाहिए, न कि उसे नाराज करने की। इस तरह रूसो स्त्री की चारित्रिक शुद्धता और पतितत्व की समझ को मजबूत करते हैं साथ ही परिवार में ‘पावर’ अर्थात् सत्ता के चरित्र को दिखाते हैं जिसका जिक्र ‘फूकोल’ ने भी किया है। रूसो के अनुसार बच्चों के संरक्षण के लिए ‘पत्नी के लैंगिक स्वातन्त्र्य पर पूर्ण नियंत्रण की जरुरत है।’

कुछ विचारक किसी महिला या पुरुष से समाज द्वारा उनके अपेक्षित गुणों और व्यवहारों की स्थिति को “जेण्डर” कहते हैं। किसी व्यक्ति का व्यवहार सामाजिक और सांस्कृतिक अपेक्षाओं व परम्पराओं से भी प्रभावित होता है। ये अपेक्षाएँ समाज द्वारा निर्धारित मानदण्डों क परम्पराओं के अनुरूप स्त्रियों एवं पुरुषों से की जाती है। जेण्डर भूमिकाएँ समय, स्थान और अन्य कारकों से बदलती रहती है। यह परम्परा या समाज द्वारा तय होती है। जरूरत के मुताबिक इन्हें बदला भी जा सकता है। जेण्डर एक श्रेणीबद्ध व्यवस्था है, जिसमें पुरुष या स्त्रियाँ एक-दूसरे से ऊंच-नीच के रिश्तों में जुड़े रहते हैं। जेण्डर निर्माण की प्रक्रिया बहुत मजबूत होती है, जो प्रायः बच्चे के भ्रूण में आते ही प्रारंभ हो जाती है।

नगरीकरण और नगर की अवधारणा की विवेचना कीजिए ?

निष्कर्षतः जेण्डर व्यवस्थापक है। इसके तहत कुछ मुद्दे प्रमुख रूप से समझने की जरुरत है –

  1. पितृसत्तात्मक व्यवस्था में समाज में ‘जेण्डर’ की संरचना स्त्रियों और पुरुषों के बारे में प्रचलित मान्यताओं द्वारा निर्धारित होती है, जैसे पुरुष शक्तिशाली व समझदार एवं महिलाएँ। कमजोर तथा भावुक होती है जबकि मातृसत्तात्मक व्यवस्था में इसकी विपरीत स्थिति होती है।
  2. समाज में स्त्रियों व पुरुषों के लिए कुछ ‘आदर्श’ स्थितियाँ व मानदण्ड तय होते हैं, जिनके आधार पर ही उनसे भिन्न व्यवहार की अपेक्षा की जाती है, जैसे पुरुषों का रोबहार होना, मजबूत होना तथा बहादुर होना, अपनी बात कहने व मनवाने का हक आदि, स्त्रियों का शर्मीली होना, जोर से न बोलना, पुरुष से अपनी बात कहना आदि।
  3. समाज में स्त्रियों व पुरुषों की जेण्डर भूमिकाएँ भिन्न-भिन्न मानी जाती हैं, जैसे पुरुष ‘काम धन्धा करने वाला’ व ‘स्त्रियों’ घर संभालने वाली।

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