जेण्डर की सामाजिक भूमिका क्या है? उसके विभिन्न आयामों की विवेचना कीजिए।

जेण्डर की सामाजिक भूमिकाएँ एवं विभिन्न आयाम

जेण्डर सम्बन्धी विभिन्न आयामों को समझने के लिए निम्नांकित तथ्यों की जानकारी आवश्यक है –

(1) समाज में जेण्डर केन्द्रियता – वर्तमान समाज की व्यवस्था द्वारा नारी के शरीर को एक ऐसी वस्तु बना दिया गया है जिसका उपयोग एवं उपभोग समाज की इच्छानुसार किया जा सकता है। एक लेखक के अनुसार, “जेण्डर का सामाजिक एवं सांस्कृतिक भेद संस्थागत होता है और यह भेद सार्वभौमिक है। इस भेद को प्रकट करने की विधियों मित्र-मित्र देश एवं काल में भित्र मित्र होती है। किन्तु प्रत्येक समाज में केवल महिलाओं ने ही इसके दुष्परिणामों को भोगा है।” उदाहरणस्वरूप स्त्री अपने पुरुष साथी की अपेक्षा अधिक काम करके भी परिवार एवं समाज में वह स्थान प्राप्त नहीं कर पाती जिसकी वह अधिकारिणी होती है।

(2) जेण्डर सम्बन्धी आधुनिक एवं परम्परागत अवधारणा – आधुनिक समाज की वर्तमान स्थिति में मध्यम वर्ग की महिलाएँ आजकल नये-नये पेशों, उद्यमों एवं नयी-नयी वृत्तियों से जुड़ रही हैं, जबकि परम्परागत समाज के संस्थागत ढांचे में महिलाओं को अपने परिवार एवं समाज में अपेक्षित, उचित एवं महत्वपूर्ण स्थान अभी तक भी नहीं मिला है। आज भी महिला वर्ग से यह अपेक्षा की जाती है कि नारी पुरुष वर्ग की मांग एवं इच्छा के अनुरूप ही अपने शारीरिक सौन्दर्य को परिभाषित एवं परिमार्जित करे। आजकल साहित्य, पत्र-पत्रिकाओं, टी. बी. एवं समाचार

सामाजिक जेण्डर (लिंग) का जीव विज्ञान से सम्बन्ध स्थापित कीजिये।

पत्रों के द्वारा महिलाओं को एक ग्लैमरस तथा रुमानी छवि प्रदान करके अभिव्यक्त किया जाता है। इस प्रकार बहुत ही चतुराई के साथ समाज में नारी की रचनात्मक, सृजनात्मक एवं बौद्धिक प्रक्रिया को नकार दिया गया है और उसको एक बौद्धिक प्राणी ही नहीं, अपितु एक देह, एक जिस्म, एक वस्तु, एक भोग्य पदार्थ, एक खिलौने की तरह परिभाषित प्रचारित एवं स्थापित करके नारी की शक्तियों का मजाक उड़ाया जा रहा है।

(3) नारी शरीर – विद्वानों द्वारा नारी शरीर के विभिन्न प्राणीशास्त्रीय आयामों को दर्शाने का प्रयास किया गया है, जबकि इसके विपरीत नारी शरीर को समाज में सांस्कृतिक अर्थ प्रदान किए जाते हैं। समाज द्वारा नारी शरीर को सांस्कृतिक वस्तु की श्रेणी में रखा जाता है, जिस कारण कभी कभी विरोधाभासी अर्थ निकल आते हैं। उनके शरीर के अनेक अर्थ लगाए जाते हैं।

(4) समाज में व्याप्त लैंगिक विभिन्नताएँ – आधुनिक युग के वर्तमान समाज में भी ऐसे बहुत से रीति-रिवाज तौर-तरीके, अभिवृतियाँ संस्थाएँ तथा संस्थागत वैचारिक विभिन्नताएँ विद्यमान हैं जिनके द्वारा बहुत ही चतुराई के साथ महिलाओं पर अनेक लांछन लगा दिए जाते हैं, जैसे विधवा होना, विन प्याही माँ बनना, बांझ होना, उप-पत्नी या रखेल होना, लेकिन पुरुष प्रधान समाज होने के कारण एवं सभी नियम पुरुष वर्ग द्वारा संचालित किए जाने के कारण सभी बातों के लिए महिलाओं को ही दोषी माना जाता है। उन्हें इन बातों के लिए दण्ड दिया जाता है।

(5) समाज में पुरुष वर्ग की लाभप्रद स्थिति – पुरुष वर्ग समाज में सदैव ही लाभ की स्थिति में रहा है। यहाँ तक की सरकार द्वारा चलाए जा रहे अनेक विकासपरक कार्यक्रमों का लाभ भी पुरुष वर्ग को ही प्राप्त होता है। अधिकतर महिलाओं को तो इस सन्दर्भ में जानकारी ही नहीं हो पाती और न ही उनमें इतनी अधिक जागरूकता ही है कि वे इन कार्यक्रमों का लाभ स्वतन्त्र रूप से उठा सकें। यही नहीं, परिवार द्वारा जेण्डर सम्बन्धी स्तर भी प्रदान किए गए हैं और इस सन्दर्भ में सामाजिक स्तरीकरण करते समय महिलाओं को परिवार द्वारा निम्न दर्जा प्रदान किया गया है।

संक्षेप में कह सकते हैं कि जेण्डर को सामाजिक तथा सांस्कृतिक संगठनों की स्थिति के आधार पर परिभाषित किया जा सकता है। जेण्डर के आधार पर स्त्री तथा पुरुषों के मध्य व्याप्त विभिन्नताएँ सामाजिक असमानता के संगठन से सम्बन्धित हैं। समाज में स्त्री को पुरुषों की अपेक्षा कमजोर प्राणी के रूप में स्वीकार किया जाता है। जिस पर विचार करने के लिए ही जेण्डर की अवधारणा का विकास किया गया है।

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