जाति व्यवस्था के बदलते हुए स्वरूप की विवेचना कीजिए।

जाति व्यवस्था के बदलते पहलू

वर्तमान समय में जाति प्रथा में व्यापक परिवर्तन हुए है। इसका कारण एक तरफ जहाँ जातियों की स्थिति एवं कार्यों में गम्भीर परिवर्तन हो रहे हैं वहीं दूसरी ओर जाति प्रथा से सम्बन्धित प्रतिबन्ध शिथिल पड़ते जा रहे हैं। जाति व्यवस्था के कुछ बदलते पहलू और उसके कारण निम्नलिखित हैं

(1) समाज में खण्डात्मक विभाजन में परिवर्तन-

प्राचीन समय में प्रत्येक जाति के व्यक्ति मिल-जुलकर अपना कार्य करते थे। अपनी कार्यगत या व्यवसायगत विशेषता के कारण प्रत्येक जाति दूसरी जाति से भिन्नता लिए हुई थी। आज उद्योग-धन्धों और सरकारी कार्यालयों ने प्रत्येक जाति को दूसरे व्यक्ति के पास बिना जाति भेद के समानता के आधार पर लाकर खड़ा कर दिया है। यही कारण है कि आज खण्डात्मक विभाजन का सम्यक और कठोर रूप नजर नहीं आता।

(2) विवाह सम्बन्धी प्रतिबन्धों में परिवर्तन

परंम्परागत दृष्टिकोण से विवाह का आदर्श अंतर्विवाह माना जाता था। यही जाति प्रथा का एक प्रकार से प्रमुख आधार था, लेकिन व्यवसाय तथा शिक्षा पद्धति में क्रान्तिकारी परिवर्तन होने से युवक और युवतियों को एक साथ काम करने के अवसर प्राप्त हुए। इन सभी कारणों से अंतर्विवाह के स्थान पर अब अंतर्जातीय विवाह, प्रेम विवाह तथा अधिक आयु में विवाह करने की प्रवृत्ति विकसित होती जा रही है। ऐसे विवाहों में जाति-पांति का कोई भेद-भाव नहीं रखा जाता बल्कि व्यक्ति की स्थिति (Status) तथा आदशों को ही अधिक महत्व प्रदान किया जाता है। साथ ही अब विवाह निश्चित करते समय गोत्र, प्रवर तथा पिण्ड जैसी मान्यताओं को कम माना जाने लगा है।

(3) ब्राह्मणों की प्रमुख शक्ति का हास

जातीय संस्तरण से ब्राह्मणों की स्थिति सर्वोच्च मानी गयी। उन्हें अनेक विशेषाधिकार प्रदान किए गए। ब्राह्मणों का परंपरागत रूप में अन्य जातियों, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों पर प्रभुत्व बना रहा है। अब इस दृष्टिकोण में परिवर्तन आ गया है कि जन्म ही व्यक्ति को स्थिति को निर्धारित करने वाला कारक है। व्यक्तिगत गुणों के आधार पर आज कोई भी व्यक्ति नवीन सामाजिक स्थिति प्राप्त कर सकता है। यही कारण है कि अब शुद्ध भी अपनी योग्यता के आधार पर उच्च पदों पर आसीन है। इस प्रकार के परिवर्तन होने के कारण, ब्राह्मणों की प्रभुत्व शक्ति का हास हुआ है।

(4) खान-पान के सम्बन्धों में शिथिलता

जाति प्रथा ने खान-पान पर भी अनेक प्रतिबंधु ‘लगाए हैं। लेकिन अब खान-पान संबंधी प्रतिबंधों में शिथिलता आती जा रही है। आधुनिक समाज में यातायात के साधनों में उन्नति होने के कारण विभिन्न जातियों, धर्मो तथा रंगों के व्यक्ति एक साथ यात्रा करते हैं तथा एक ही साथ कार्य करते हैं। ऐसी अवस्था में भोजन के संबंध में पूर्ण नियंत्रण का रहना किसी भी प्रकार संभव नहीं है।

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(5) जातिगत मनोवृत्ति में परिवर्तन-

जाति व्यवस्था से सम्बन्धित मनोवृत्ति में भी तेजी से परिवर्तन हो रहे हैं। इस परिवर्तन के दो रूप सामने आए हैं, जो इस प्रकार हैं

  • (i) जन्म के महत्व में कमी-आज प्रत्येक शिक्षित और जागरूक व्यक्ति जन्म को नहीं कर्म को महत्व दे रहा है, आज कुशल, साहसी और सम्पन्न व्यक्तियों को महत्व दिया जा रहा है। जाति व्यवस्था के अन्तर्गत मूलतः जन्म के आधार पर सामाजिक स्थिति की श्रेष्ठता और निम्नता का निर्धारण करने की मनोवृत्ति में परिवर्तन हुआ है। लोगों ने कर्म, योग्यता और आर्थिक स्थिति के आधार पर ऐसा करना शुरू किया है।
  • (ii) जाति व्यवस्था की प्रमाणिकता में अविश्वास आज कोई भी शिक्षित व्यक्ति जाति व्यवस्था को आत्मा से नहीं स्वीकार कर रहा है। वह इसका किसी अलौकिक शक्ति अथवा ईश्वर से संबंध नहीं मानता है। इससे संबंधित पौराणिक गाथाओं का महत्व समाप्त हो रहा है। इसे रूढ़ि और कुरीति के रूप में देखा जा रहा है।

(6) व्यवसाय सम्बन्धी प्रतिबन्धों में परिवर्तन-

वैसे व्यवसाय संबंधी प्रतिबंध केवल निम्न जातियें पर ही विशेष रूप से लागू थे। परन्तु धीरे-धीरे ये प्रतिबंध भी शिथिल होते गए। अनेक नए व्यवसाय का जन्म हुआ जिनका विभाजन जाति प्रथा के अनुसार कर पाना असंभव था। परन्तु उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च स्थान पाने वाले ब्राह्मणों एवं निम्नतम स्थान वाले हरिजनों के व्यवसाय में बहुत कम परिवर्तन हुआ है।

(7) सामाजिक तथा धार्मिक निर्योग्यताओं में परिवर्तन-

शूद्रों को सामाजिक और धार्मिक दोनों दृष्टियों से समाज में निम्न स्थान प्राप्त था। इसी तरह इसके विपरीत ब्राह्मणों को दोनों दृष्टियों से उच्च विशेषाधिकार युक्त स्थान प्राप्त था। आज यह भेद क्रमशः नष्ट होता जा रहा है।

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