जयचन्द और पृथ्वीराज तृतीय के सम्बन्ध-
गहड़वाल शासक जयचन्द अपने पिता विजयचन्द की मृत्यु के बाद सन् 1170 ई. में गहड़वाल सिंहासन पर बैठा। उसकी माता का नाम चन्द्रलेखा देवी था। जयचन्द बहुत वीर और साहसी शासक था। वह अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था। उसने अनेक राज्यों पर विजय प्राप्त की थी। उसने अपने शासन में सेहल अभिलेख उत्कीर्ण कराये थे।
जयचन्द और पृथ्वीराज तृतीय (चौहान)-
जयचन्द की चामानों से शत्रुता उसके पिता विजयचन्द के समय से ही चली आ रही थी। जयचन्द का समकालीन चास्मान शासक पृथ्वीराज तृतीय था, जो बहुत धीर और साहसी था। जयचन्द की पृथ्वीराज से शत्रुता का उल्लेख चन्दबरदाई कृत पृथ्वीराज रासो में भी किया गया है। चन्दबरदाई का प्रमुख उद्देश्य मूल रूप से पृथ्वीराज की प्रशंसा करना था। अतः उसके राजनैतिक और सम्भवतः व्यक्तिगत प्रतिद्वन्दी जयचन्द की प्रशंसा और उसकी शक्ति को बढ़ाकर प्रदर्शित करना भी चन्दबरदाई के लिए आवश्यक हो गया। इसके अतिरिक्त, इसी उद्देश्य से पृथ्वीराज के समस्त शत्रु भी जयचन्द के मित्र स्वीकार कर लिए गये। इन शत्रुओं द्वारा जयचन्द की सहायता की कथाएं भी पृथ्वीराज रासो में आवश्यकतानुसार उल्लिखित कर दी गयी है। लेकिन यह सत्य है कि जयचन्द ने पृथ्वीराज को नीचा दिखाने के लिए अपनी पुरी संयोगिता के स्वयंवर में उसे निमन्त्रित नहीं किया, जिससे दोनों में शत्रुता और अधिक बढ़ गयी।
जयचन्द और चन्देल – जयचन्द का चन्देल शासक मदनवर्मा से भी संघर्ष हुआ था जिसका उल्लेख रम्भामंजरी नामक ग्रन्थ से होता है लेकिन जयचन्द और मदनवर्मा समकालीन नहीं थे, अतः यह उल्लेख कुछ संशयात्मक प्रतीत होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि जयचन्द ने अपने पिता विजयचन्द के शासनकाल में युवराज के रूप में मदनवर्मा पर कोई आक्रमण किया हो।
चन्दबरदाई कृत पृथ्वीराज रासो के आत्हा प्रस्ताव के अनुसार चन्देल नरेश परमादि (परमा) पर उसके आल्हा और ऊदल नामक सामन्त वीरों सहित पृथ्वीराज ने विजय प्राप्त की, यद्यपि जयचन्द ने उसकी (परमादि की) चामानों के विरुद्ध सहायता की थी। सन् 1183-84 के पृथ्वीराज के मदनपुर अभिलेख से चामानों का परमादि के राज्य पर आक्रमण और उसके कुछ भागों पर चामानों का अधिकार प्रमाणित होता है। अतः यद्यपि चाहमान चन्देल साक्ष्यों में इसका कोई उल्लेख नहीं है, परन्तु यह सम्भव प्रतीत होता है कि गहड़वाल नरेश जयचन्द ने चन्देल नरेश परमार्दि की सहायता की हो यह इस कारण भी सम्भव प्रतीत होता है कि परमादि का पितामह मदनवर्मा, गोविन्द्रचन्द अथवा उसके पुत्र विजयचन्द का मित्र रह चुका था और चाहमान शासक विग्रहराज वीसलदेव ने विजयचन्द के शासनकाल में दिल्ली के तोमर वंशीय सामन्त शासकों द्वारा स्वीकृत गहड़वाल अधिसत्ता समाप्त कर चाहमान अधिसत्ता स्थापित कर ली थी।
मुहम्मद गोरी से संघर्ष (चन्दावर का युद्ध )-
मुहम्मद गोरी जो मध्य एशिया के गोर नमक स्थान का रहने वाला था। वह बहुत महत्वाकांक्षी व्यक्ति था। धीरे-धीरे उसने क्रमश: गजनी (1173, मुल्तान) (1175, पेशावर) (1179 ई.) और लाहौर (1187 ई.) पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। सन् 1178 ई. में उन्होंने चालुक्य साम्राज्य पर भी आक्रमण किया परन्तु नवयुवक और यी चालुक्य शासक भीमदेव ने काशहद के युद्ध क्षेत्र में मुस्लिम आक्रमणकारियों को बुरी तरह पराजित किया। उस समय चालुक्य नरेश की न तो चाहमान नरेश पृथ्वीराज तृतीय ने और न ही गहड़वाल नरेश जयचन्द ने ही सहायता की। यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि अकेले-अकेले ही बड़ी-बड़ी वीरताओं के प्रदर्शन में समर्थ इन नरेशों ने भी यह नहीं विचार किया कि सबके लिए समान शत्रु (मुहम्मद गोरी) के सामने उनका पूर्व रूप से एक दूसरे के साथ संगठित हो जाना ही उनके सामने एकमात्र विकल्प था। वे अपने युग की इस निर्बलता का परित्याग नहीं कर सके और पारस्परिक संघर्षों में ही अपनी शक्ति क्षीण करते रहे। प्रसिद्ध पुस्तक ताजुल मासिर का कथन है कि अपनी विशाल सेना और महान् वैभव के कारण पृथ्वीराज तृतीय के हृदय में विश्व विजय करने जैसी भावना ने जन्म ले लिया था। किन्तु वास्तविक अवसर आने पर जब उसने आक्रमणों का सामना करने का दृढ़ निश्चय किया तो वह पूर्ण रूप से अकेला रह गया। जयचन्द तथा भीम, शान्तिपूर्वक इस समस्त घटना को देखते रहे। सन् 1192 के तराइन के दूसरे युद्ध में जब पृथ्वीराज पराजित होकर वीरगति को प्राप्त हुआ तो जयचन्द को अपार हर्ष प्राप्त हुआ और उसने अपनी राजधानी में दीवाली का उत्सव आयोजित किया। शीघ्र ही जयचन्द को भी मुहम्मद गोरी के आक्रमण का सामना करना
कल्चुरी शासक गांगेयदेव की उपलब्धियाँ बताइए।
जयचन्द को अपनी विशाल सेना, लगभग 10 लाख पदातियों और 700 हाथियों की सेना पर डूढ़ विश्वास था। भारतीय साक्ष्यों के अनुसार चन्दावर के युद्ध के पूर्व उसकी सेनाओं ने अनेक बार विजय प्राप्त की थी। तराइन की सफलता से मुहम्मद गोरी को अत्यधिक प्रोत्साहन मिला था और उसके सेनानायक मेरठ, दिल्ली और उसके निकटवर्ती प्रदेशों पर आक्रमण करके अपने अधिकृत क्षेत्र में वृद्धि करने लगे और सम्भव है कि गहड़वाल सेनाओं के साथ प्रारम्भिक संघर्षो में उन्हें पराजित होना पड़ा। सन् 1194 ई. में अपने 50 हजार शस्त्र कवचधारी पुड़सवारों के साथ मोहम्मद गोरी ने जयचन्द पर भीषण आक्रमण किया। युद्ध के प्रथम चरण में तो आक्रमणकारी पर्याप्त रूप से भयभीत रहे किन्तु अपने हार्द पर आसीन सेना का नेतृत्व करते हुए जयचन्द की आँख में मुहम्मद गोरी का एक तेज तीर लगा और वह नीचे गिर गया। अन्ततः वह वीरगति को प्राप्त हुआ और उसकी सेना पराजित हो गयी। आक्रमणकारियों ने स्त्रियों और बच्चों के अतिरिक्त किसी को भी जीवित नहीं छोड़ा। उनके हाथ लूट का इतना अधिक माल लगा कि उसे देखते हुए उनकी आँखें भी थक जाती थीं। मुहम्मद गोरी ने कन्नौज से आगे बढ़कर फतेहपुर के निकट उसनी के दुर्ग को भी लूटा, इस दुर्ग में जयचन्द के राज्य का सम्पूर्ण धन रखा हुआ था। इस प्रकार मुहम्मद गोरी के आक्रमण के सामने जयचन्द का गर्व चूर हो गया और गहड़वाल वंशका अन्त हो गया।
क्या जयचन्द वंशदोही था?
जयचन्द्र को देशद्रोही अथवा वंशद्रोही कहने का औचित्य सही प्रतीत नही होता है। जयचन्द्र पर ऐसा आरोप लगाया जाता है कि उसने मुहम्मद गौरी के आक्रमण के समय पृथ्वीराज तृतीय की सहायता नही की और देशद्रोह का कार्य किया अगर जय चन्द्र पृथ्वीराज को सहायता प्रदान करता तो मुदृ गौरी युद्ध में विजयी न हो पाता और भारत में मुस्लिम सत्ता की स्थापना भी न हो पाती। लेकिन जयचन्द्र पर यह आरोप लगाना न्यायसंगत प्रतीत नहीं होता क्योंकि (1) जयचन्द्र और पृथ्वीराज की आपस में शत्रुता थी और शत्रु को सहायता देने का कोई औचित्य नहीं था (2) 1178 ई. में जब मुदृ गौरी ने चालुक्य शासक भीम द्वितीय पर आक्रमण किया था तो न पृथ्वीराज और न ही जयचन्द्र ने भीम द्वितीय की सहायता की। उस समय राजपूतों के अनेक वंश आपस में संघर्षरत और आधुनिक राष्ट्रीयता की भावना की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। अतः जयचन्द्र को वंशद्रोही या देशद्रोही स्वीकार नहीं किया जा सकता।
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