उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम का मूल्यांकन कीजिए।

उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम का मूल्यांकन

उपभोक्ता संरक्षण के क्षेत्र में ‘उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986′ एक महत्त्वपूर्ण अधिनियम माना जाता है। यह ‘अनफेयर ट्रेड प्रैक्टिशनर्स’, ‘माल में खराबी’ तथा ‘सेवाओं में कमी’ रोकने हेतु प्रभावकारी भूमिका निभाता है। यह अधिनियम औद्योगिक क्रान्ति की उपज हैं। अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, फ्रांस, जापान आदि देशों में उपभोक्ता अभियान बहुत तीव्र गति से आगे बढ़ा है परन्तु भारत में इसकी गति बहुत मन्द है। अधिनियम पारित होने के बावजूद भी उपभोक्ताओं को अधिक राहत नहीं मिल पाई है। इसके लिए अधिनियम की कमियों की अपेक्षा उपभोक्ताओं की मानसिकता अधिक उत्तरदायी है। अशिक्षा, बेरोजगारी, बेईमानी के कारण उपभोक्ता केवल यह सोचकर सन्तोष कर लेता है कि उसे सरलता से कोई राहत मिलने वाली नहीं है। अन्धविश्वास भी इस प्रकार की मानसिकता को प्रोत्साहन देता है।

औपचारिक शिक्षा से आप क्या समझते हैं? संक्षेप में लिखिए।

उपभोक्ता जानते हैं कि तेल, घी, आटा, मैदा, सूजी आदि सभी वस्तुओं में मिलावट है, लेकिन वे इसकी शिकायत कर किसी झंझट में नहीं पड़ना चाहते। बड़ी-बड़ी कम्पनियों के वकीलों के सामने वे स्वयं को असहाय अनुभव करने लगते हैं। कई बार तो पूँजीपतियों एवं बड़े व्यावसायिक घरानों के गुण्डे उन्हें ऐसा करने से रोकने के लिए उपभोक्ताओं को धमकियाँ भी देते हैं।

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