उदारवादी काँग्रेस का प्रमुख अधिवेशन Major Sessions of the Liberal Congress

काँग्रेस का अधिवेशन- नमस्कार दोस्तों जैसा की आप सभी जानते हैं की हम आप सभी के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं से सम्बंधित जानकारी शेयर करते रहते हैं। आप सभी की जनकारी के लिए हम बता दें की आज के इस आर्टिकल में आप सभी के लिए उदारवादी काँग्रेस का प्रमुख अधिवेशन Major Sessions of the Liberal Congress के बारे में चर्चा करेंगे पूरी जानकारी हम आप सभी के साथ शेयर कर रहे हैं आप इसे जरुर पूरा पढ़ें, काँग्रेस का प्रारम्भिक अधिवेशन निम्नवत हैं-

1885-1905 ई. के मध्य उदारवादियों के कार्यक्रम एवं कार्य पद्धति की विवेचना।

1.काँग्रेस का पहला अधिवेशन

काँग्रेस का पहला अधिवेशन बम्बई में हुआ था। इसमें 72 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। इसमें काँग्रेस ने अपने उद्देश्यों की घोषणा की। ब्रिटिश शासन की उपयोगिता, न्यायप्रियता में विश्वास प्रकट किया। अधिवेशन में 6 प्रस्ताव पारित किये गये, जो निम्नलिखित थे-

  • भारतीय प्रशासन की जाँच के लिए एक कमीशन की नियुक्ति,
  • भारत मन्त्री की इण्डिया काउन्सिल को समाप्त करना,
  • पश्चिमोत्तर प्रदेश व पंजाब में धारा सभाओं की स्थापना,
  • धारा सभाओं के सदस्यों की चुनाव प्रणाली, प्रश्न पूछने का अधिकार,
  • सेना के व्यय में कमी की जाये।
  • प्रतियोगिता परीक्षाओं को भारत में कराने, प्रवेश की आयु बढ़ाना।

2.काँग्रेस का दूसरा अधिवेशन

दिसम्बर 1886 में कलकत्ता में हुआ। इसके अध्यक्ष दादा भाई नौरोजी थे। इसमें 400 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसमें भी जो प्रस्ताव पारित किये गये वे पिछले साल के समान थे। जैसे भारत की गरीबी की चर्चा, धारा सभाओं की सदस्य संख्या बढ़ाना, चुनाव प्रणाली लागू करना, प्रतियोगी परीक्षा में प्रवेश आयु बढ़ाना, भारत में भी साथ में परीक्षा कराना। वायसराय डफरिन ने प्रतिनिधियों को भोज दिया।

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3.काँग्रेस का तीसरा अधिवेशन

दिसम्बर 1887 में मद्रास में हुआ। इसके अध्यक्ष बदरुद्दीन तैयब जी थे। मुसलमानों से अनुरोध किया गया कि वे बड़ी संख्या में काँग्रेस में सम्मिलित हों। मुख्य प्रस्ताव केन्द्रीय व प्रान्तीय धारा सभाओं के विस्तार तथा पुनर्गठन के बारे में था। ह्यूम ने सरकार की निष्क्रियता की निन्दा की। उनकी माँग थी कि अकाल पीड़ितों को पूरी और तेजी से राहत दी जाये। उन्होंने अधिवेशन में कुछ प्रचारात्मक साहित्य भी बाँटा। इस अधिवेशन में सरकार के दृष्टिकोण में परिवर्तन आ गया। ऐंग्लो इण्डियन समाचार पत्र काँग्रेस की आलोचना कर रहे थे।

4.काँग्रेस का चौथा अधिवेशन

1888 में इलाहाबाद में हुआ। इसके अध्यक्ष पूल थे। प्रान्तीय सरकार ने अधिवेशन होने में रुकावटें डाली। अधिवेशन के लिए कोई स्थन नहीं मिला। अन्त में संयोजकों ने लाउथर हाउस खरीदा। जहाँ अधिवेशन हुआ। अध्यक्ष ने धारा सभाओं के सुधार की माँग की। पिछले प्रस्तावों को दोहराया गया। कुछ नये प्रस्ताव पारित किये गये, जो निम्नलिखित थे-

  • पुलिस संगठन की जाँच के लिए एक समिति नियुक्त की जाये,
  • नशीली वस्तुओं की खपत को बढ़ाने से रोका जाये।
  • भारत की औद्योगिक स्थिति की जाँच के लिए कमीशन नियुक्त किया जाये।
  • नमक कर में कमी की जाये।
  • शिक्षा पर अधिक धन व्यय किया जाये।

5.काँग्रेस का पाँचवा अधिवेशन

1889 में वेडरबर्न की अध्यक्षता में बम्बई में हुआ। इस अधिवेशन में 2000 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। वेडरबर्न ने सरकारी कर्मचारियों के व्यवहार की निन्दा की। काँग्रेस ने एक प्रतिनिधि मण्डल इंग्लैण्ड भेजने का निर्णय किया। इस अधिवेशन में चार्ल्स ब्रेडला ने भाग लिया, जिन्हें ब्रिटिश कामन्स सभा में भारत का मित्र कहा जाता था। इंग्लैण्ड जाने के बाद उन्होंने कामन्स में बिल प्रस्तुत किया था। सरकार के इस आश्वासन • पर कि वह स्वयं सुधार दिल संसद में प्रस्तुत करेगी, उन्होंने अपना बिल वापस ले लिया। उन्हीं के प्रयत्नों के फलस्वरूप 1892 का काउन्सिल एक्ट पारित हुआ था।

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6.काँग्रेस का 1890 का अधिवेशन

फिरोजशाह मेहता की अध्यक्षता में कलकत्ता में हुआ। काँग्रेस ने प्रस्ताव में कहा कि 95 प्रतिशत प्रशासनिक अधिकारी अंग्रेज थे और देश की जनता का पाँचवां भाग भुखमरी का शिकार था। काँग्रेस ने कृषकों के लगान में कमी की माँग की, जिससे कृषि का विकास हो सके।

7.काँग्रेस का 1891 का अधिवेशन

नागपुर में आनन्द चारलू की अध्यक्षता में हुआ। इसमें भी अन्य बातों के अलावा गरीबी की समस्या पर विशेष ध्यान दिया गया और सुधारों की माँग की गयी। लेकिन बाद के अधिवेशनों में उदारवादियों की नीतियों की आलोचना होने लगी। उनकी असफलताओं के कारण उग्रवाद का जन्म हुआ और उग्रवादी सदस्यों का प्रभाव काँग्रेस में बढ़ने लगा, जिनके नेता मुख्यरूप से तिलक थे। 1905 से 1919 तक काँग्रेस का द्वितीय युग था, जिसमें उग्रवाद की प्रधानता बनी रही। 1896 से 1900 तक भारत भीषण अकालों की चपेट फंसा रहा। जब देश में भुखमरी फैली हो, उदारवादी राजनीति क्रियान्वित नहीं की जा सकती थी। फिर कर्जन जैसा अहंकारी, अत्याचारी, प्रजातिवादी वायसराय हो तो उदारवाद की समाप्ति अवश्यम्भावी हो गयी। इस प्रकार 1891 के बाद से उदारवादी आन्दोलन दुर्बल होता गया। 1892 का काउन्सिल अधिनियम भी ऐसा नहीं था, जिससे उनका प्रभाव पुनः स्थापित हो सकता।

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दोस्तों अगर आप सभी को उदारवादी काँग्रेस का प्रमुख अधिवेशन के बारे में जानकारी मिली है तो आप सभी इसे आर्टिकल को अपने दोस्तों के साथ भी अवश्य शेयर करें जिस से उन सब को भी मदद मिले। हम इसी तरह आप सभी छात्र-छात्राओं के लिए प्रतिदिन जानकारियां शेयर करते रहेंगे धन्यवाद🙏

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