हिन्दू विवाह की प्रमुख समस्याएं:
हिन्दू विवाह की प्रमुख समस्याएँ निम्न हैं
(1) दहेज प्रथा की समस्या-
हिन्दू विवाह की समस्याओं मे आज कोई भी समस्या इतनी गम्भीर नहीं जितनी कि दहेज-प्रथा। यह अविश्वसनीय लेकिन सच है कि अनेक सामाजिक सुधार आन्दोलनों और कानूनों के बाद भी आज भारत में हर तीन घण्टों पर एक नवविवाहिता स्त्री दहेज के लिए बलि हो जाती है। इसका तात्पर्य है कि प्रति वर्ष लगभग 3,000 स्त्रियों को केवल दहेज के कारण आत्महत्या करने के लिए विवश होना पड़ता है। दहेज की राशि का निर्धारण वर की कुलीनता, शिक्षा और व्यवसाय के आधार पर किया जाता है। सैद्धान्तिक रूप से इसे भले ही विवाह की एक अनिवार्य शर्त न कहा जाता हो लेकिन व्यावहारिक रूप से आज सभी जातियों और सभी समूहों में दहेज का प्रचलन है। सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि शिक्षा और सामाजिक चेतना में वृद्धि होने के साथ ही यह समस्या पहले से भी अधिक गम्भीर होती जा रही है।
(2) अन्तरजातीय विवाह की समस्या-
हिन्दू विवाह की एक प्रमुख समस्या विभिन्न जातियों के बीच वैवाहिक सम्बन्धों पर कटोर नियन्त्रण का होना है। यद्यपि 19 वीं शताब्दी के अन्त तक ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जबकि उच्च जातियों के पुरुषों ने अपने से निम्न जातियों की स्त्रियों से विवाह सम्बन्ध किए हैं लेकिन ऐसे विवाह भी अनुलोम के नियम से पूर्णतया प्रभावित रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि पिछले हजारों वर्षों से अन्तर जातीय विवाह पर प्रतिबन्ध होने का प्रमुख कारण उच्च वर्गों द्वारा अपने रक्त की विशुद्धता बनाए रखने की इच्छा रही है। डॉ० धुरिये का कथन है कि इस प्रतिबन्ध का प्रमुख कारण रक्त की पवित्रता को बनाए रखने की इच्छा, वैदिक संस्कृति को स्थायी रखने का प्रयत्न और ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को स्थापित किए रखने की भावना ही है। वास्तविकता यह है कि रक्त की पवित्रता और वैदिक संस्कृति को स्थायी बनाए रखने की इच्छा के आधार पर अन्तरजातीय विवाह के प्रतिबन्ध को किसी प्रकार भी न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। यदि ऐसा था, तब ब्राह्मणपुरुष और शूद्र कन्या के विवाह को अनुलोम के नाम पर मान्यता क्यों दी गयी ? इससे भी तो रक्त का मिश्रण हो जाता है। वास्तविकता यह है कि वैदिक काल में ब्राह्मणों की सर्वोच्च सामाजिक स्थिति को बनाए रखने के लिए जिस अनुलोम विवाह की प्रथा को प्रोत्साहन दिया गया, उसी ने स्मृतिकाल के समय से अन्तर विवाह का रूप धारण कर लिया और इस काल के बाद किसी भी व्यक्ति द्वारा अपनी जाति अथवा उपजाति के बाहर विवाह करना एक अक्षम्य अपराध समझा जाने लगा। तब से लेकर आज तक अन्तरजातीय विवाह को सामाजिक व्यवस्था के प्रति विद्रोह के रूप में देखा जाता ह
(3) विवाह विच्छेद की समस्या-
भारतीय समाज में विवाह विच्छेद की समस्या हमारी मौलिक संस्कृति का अंग रही है अथवा नहीं यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। वैदिक संस्कृति में पति के दुष्चरित्र, क्रूर अथवा दुराचारी होने की स्थिति में स्त्री को उससे विवाह विच्छेद कर लेने की अनुमति दी जाती थी। अनेक स्मृतिकारों ने भी कुछ विशेष परिस्थितियों में विवाह विच्छेद को मान्यता प्रदान की है। वशिष्ठ के अनुसार यदि पुरुष अथवा स्त्री दोनों में से कोई भी परव्यक्तिगमन का दोषी हो तो दूसरे को उससे विवाह विच्छेद कर लेने का अधिकार है। कुछ अन्य धर्मशास्त्रों में भी पति-पत्नी को यह अधिकार दिया गया कि यदि वे एक-दूसरे से पुत्र को जन्म न दे सकें तब उन्हें विवाह विच्छेद कर लेने का अधिकार होगा। वास्तविकता यह है कि हिन्दू धर्म ग्रन्थों में विवाह विच्छेद की अनुमति अवश्य दी गयी है लेकिन साथ ही स्त्री के सामने पतिव्रत धर्म को सर्वोच्च आदर्श के रूप में रखा गया है, पति चाहे कितना हो अवगुणी क्यों न हो। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति के सम्पूर्ण इतिहास में स्त्रियों द्वारा विवाह विच्छेद के कोई उदाहरण नहीं मिलते।
(4) बाल विवाह की समस्या-
बाल-विवाह का तात्पर्य विवाह की उस प्रथा से हैं जिसमें रजोदर्शन के पहले ही कन्या का विवाह कर दिया जाता है। वास्तव में बाल विवाह का प्रचलन सबसे पहले स्मृतिकारों के प्रयत्नों से आरम्भ हुआ। स्मृतिकारों ने यह व्यवस्था दी कि ‘ आठ वर्ष की कन्या ‘गौरी’ होती है, नौ वर्ष की ‘रोहणी’, दस वर्ष की ‘ कन्या’ और इसके पश्चात् वह ‘रजस्वला’ हो जाती है। जो पिता दस वर्ष की आयु के पश्चात् भी कन्या का विवाह नहीं करता वह प्रत्येक माह उसका रुधिर पोने का दोषी है।” ब्रह्मपुराण में तो 4 वर्ष की कन्या का विवाह कर देने का ही आदेश दे दिया गया। इस प्रकार हमारे समाज में धीरे-धीरे विवाह की आयु घटना आरम्भ हो गयी और स्वतन्त्रता के पूर्व तक यह समस्या इतनी गम्भीर हो गयी कि 2-4 वर्ष के बच्चों को ही उनके माता-पिता अपनी गोद में बैठाकर उनका विवाह सम्पन्न करने लगे।
साधारणतया ऐसा समझा जाता है कि भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् शिक्षा के प्रसार, सामाजिक जागरूकता तथा बाल विवाह निरोधक कानूनों के कारण बाल विवाहों का प्रचलन बहुत कम हो गया है, लेकिन यह वास्तव में एक भ्रान्ति है। हिन्दू विवाह अधिनियम के अनुसार वर और वधु की न्यूनतम वैवाहिक आयु क्रमश: 21 और 18 वर्ष निर्धारित करने के बाद भी इस कानून का आज भी अधिक प्रभाव देखने को नहीं मिलता। विवाह की यही समस्या आज हमारे सामाजिक जीवन को गम्भीर रूप से प्रभावित कर रही है।
(5) विधवा पुनर्विवाह निषेध की समस्या
हिन्दू विवाह की समस्याओं में विधवा-विवाह से सम्बन्धित समस्या भी अत्यधिक अमानवीय है। यह पुरुष का पाखण्डवाद है कि उसने स्त्रियों को तो स्वर्ग की प्राप्ति के लिए पति की चिता पर चढ़ जाने की शिक्षा दी और स्वयं मनमानी संख्या में विवाह करने का अधिकार ले लिया। शास्त्रों में एक बिल्ली की हत्या के लिए भी सोने की बिल्ली दान में देने की व्यवस्था की गयी है, लेकिन एक नारी के सम्पूर्ण जीवन पर अनाचार, शोषण और पशुता के लिए किसी प्रायश्चित तक का विधान नहीं है, बल्कि इसे धर्म के नाम पर प्रोत्साहन हो दिया गया है।
हिन्दू विवाह का अर्थ एवं परिभाषा का उल्लेख कीजिए।
ऐसा नहीं है कि विधवा पुनर्विवाह प्राचीन काल में प्रचलित नहीं थे। वेद, अथर्ववेद में कई ऐसे उल्लेख मिलते हैं जिसमें विधवा पुनर्विवाह की पुष्टि होती है परन्तु मनु के समय में इस पर निषेध लग गया। कालांतर 1937 ई० में पुन: विधवा विवाह को मान्यता मिली। आज सरकार भी इस ओर विशेष कार्य कर रही है।
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