हिन्दू विवाह का अर्थ एवं परिभाषा आम तौर पर दो विषम लिंगियों अथवा दो लोगों के बीच यौन सम्बन्ध विवाह के माध्यम से स्थापित होता है जिसका मुख्य उद्देश्य सन्तानोत्पत्ति करना तथा वंश को आगे बढ़ाना है।
स्त्री-पुरुषों में पारस्परिक अधिकार एवं कर्तव्यों का उदय इन्हीं सम्बन्धों के परिणाम स्वरूप होता है। धार्मिक कर्तव्यों की पूर्ति पुत्र प्राप्ति, पारिवारिक सुख, सामाजिक एकता, पितृ ऋण से मुक्ति, पुरुषार्थों की पूर्ति, आदि उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हिन्दुओं में विवाह सम्पन्न किया जाता है।
हिन्दू विवाह को संस्कार रूप में स्वीकार करते हुए डॉ० कपाड़िया लिखते हैं” हिन्दू विवाह एक संस्कार है।” विभिन्न संस्कारों को सम्पन्न करता हुआ एक हिन्दू अपने जीवन को आगे बढ़ाता है और अपने व्यक्तित्व को पूर्णता प्रदान करता है।
हिन्दू धर्म की प्रकृति को स्पष्ट कीजिए तथा हिन्दू धर्म के विभिन्न स्वरूपों की विवेचना कीजिए।
मेघातिथि के अनुसार, “विवाह कन्या को पत्नी बनाने के लिए एक निश्चित क्रम से की जाने वाली अनेक विधियों से सम्पन्न होने वाला पाणिग्रहण संस्कार है, इसकी अन्तिम विधि सप्तर्षि दर्शन है।’
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