हिन्दू विवाह का अर्थ
– जिससे सी से जन्मा बच्चा माता-पिता की वैध सन्तान माना जाता है।” बोगार्डस के अनुसार विवाह स्त्री-पुरुष के पारस्परिक जीवन में प्रवेश करने की संस्था है।” डब्ल्यू एच० आर रिवर्स के अनुसार, जिन साधनों द्वारा मानव समाज यौन सम्बन्धों का नियमन करता है, उन्हें विवाह की संज्ञा दी जा सकती है। ” वेस्टरमार्क के अनुसार “विवाह एक या अधिक पुरुषों का एक या अधिक स्त्रियों के साथ होने वाला वह सम्बन्ध है जिसे प्रथा व कानून स्वीकार करता है और जिसमें इस संगठन में आने वाले दोनों पक्षों एवं उनसे उत्पन्न बच्चों के अधिकार और कर्तव्यों का समावेश होता है।
विवाह के उद्देश्य
मरडॉक ने 250 समाजों के अध्ययन के आधार पर विवाह के तीन उद्देश्यों का उल्लेख किया-
- (i) यौन संतुष्टि,
- (ii) आर्थिक सहयोग,
- (iii) सन्तानों का समाजीकरण एवं लालन-पालन। मजूमदार और मदान के शब्दों में “विवाह से वैयक्तिक स्तर पर शारीरिक (यौन) और मनोवैज्ञानिक सन्तान प्राप्ति) संतोष प्राप्त होता है, तो व्यापक सामूहिक स्तर पर इससे समूह और संस्कृति को बढ़ाए रखने में सहायता मिलती है।
हिन्दू विवाह के उद्देश्यों की विवेचना इस प्रकार है
(1) पुत्र प्राप्ति-
विवाह का दूसरा उद्देश्य सन्तोनोत्पत्ति है। तीनों के ऋणों से मुक्ति होने के कारण तथा मोक्ष की इच्छा से प्रत्येक हिन्दू पुत्र की कामना करता है।
(2) रति-
रति का अभिप्राय है समाज से मान्यता प्राप्त तरीके से यौन संबंधों की पूर्ति करना और इस प्रकार मानसिक जीवन का संतुलन बनाना। रति सुख को उपनिषदों में सबसे बड़ा सुख माना गया है तथा ब्रह्मा के साथ संबंध से उत्पन्न होने वाले मानवीय रति को सुख की उपमा दी गई है। हिन्दू ग्रंथों में धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष चार पुरुषार्थों को प्राप्त करना आवश्यक माना गया है। पुरुषार्थों की प्राप्ति विवाह द्वारा सम्भव है।
(3) धार्मिक कर्तव्यों का पालन-
(अ) पत्नी का सहयोग-
आपस्तम्ब धर्म सूत्र के अनुसार हिन्दू विवाह का प्रथम उद्देश्य धार्मिक कर्तव्यों का पालन है। यह तीन प्रकार का होता है-सब धर्म कार्यों में पत्नी के सहयोग द्वारा, गृहस्थ धर्म का पालन से तथा पितृ ऋण को उतारने से। हिन्दू दर्शन के अनुसार वैदिक युग में धर्म कार्य के लिए पत्नी को हिन्दू समाज में आवश्यक समझा जाता था, उस समय यज्ञ करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य था और यज्ञ पत्नी के बिना नहीं हो सकता था। तैत्तिरीय ब्राह्मण के मत से अपत्नीक व्यक्ति को यज्ञ करने का अधिकार नहीं है। संस्कृत काव्यों में पत्नी के साथ धर्माचरण के कार्य करने पर बहुत बल दिया गया है।
(ब ) गृहस्थाश्रम का पालन-
हिन्दू समाज में धार्मिक दृष्टि से गृहस्थ धर्म के पालन के लिए विवाह आवश्यक माना जाता है। ऋग्वेद और अथर्ववेद में गृहस्थाश्रम का विधान है। मनु और याज्ञवल्क्य स्पष्ट रूप से इसका विधान करते हैं। मनु ने गृहस्थाश्रम के महत्व को स्पष्ट करते हुए वायु से इसकी तुलना की है। जिस प्रकार वायु के सहारे सब प्राणी जीते हैं वैसे ही गृहस्थाश्रम से जीवन प्राप्त करते हैं।
(स) पितृ ऋण का विचार-
धार्मिक दृष्टि से विवाह का तीसरा कारण पितृ ऋण से मुक्ति है।
अन्य उद्देश्य:-
धर्मशास्त्रों में उल्लिखित हिन्दू विवाह के उपर्युक्त तीन उद्देश्यों के अतिरिक्त कुछ दूसरे सामान्य उद्देश्य निम्नलिखित है
(1) संस्कृति की निरन्तरता-
हिन्दू विवाह के द्वारा सांस्कृतिक तत्वों की निरन्तरता को बनाए रखा जा सकता है।
(2) समाज की निरन्तरता-
समाज तथा वंश की निरन्तरता को बनाए रखने का महत्वपूर्ण कार्य भी हिन्दू विवाह द्वारा सम्पन्न होता है।
(3) व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास-
हिन्दू विवाह के समय पति और पत्नी के अधिकारों तथा कर्तव्यों की व्याख्या की जाती है। अनेक विधि-विधानों के माध्यम से उन्हें जीवन की वास्तविकता दैनिक जीवन को कठिनाइयों का ज्ञान कराया जाता है जिससे वे मानसिक जीवन को संतुलित रख व्यक्तित्व का समुचित रूप से विकास कर सकें।
प्रथम शिक्षण उपक्रम के विभिन्न कार्यक्रमों की विवेचना कीजिए।
(4) परिवार के सदस्यों के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन-
हिन्दू विवाह का उद्देश्य केवल धर्म का पालन, सन्तान की प्राप्ति एवं रति नहीं, वरन् पारिवारिक उत्तरदायित्व तथा त्याग की भावना का विकास करना भी है। सभी पारिवारिक सदस्यों के प्रति पति और पत्नों को सम्मिलित उत्तरदायित्व को पूरा करना है ताकि पारिवारिक वातावरण सुखी हो।
इस प्रकार उपरोक्त विवसेना के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि ” विवाह एक संस्कार है।”
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