हिन्दू धर्म में लैंगिक विषमता का विवरण
हिन्दूवाद अनेक परम्पराओं का संश्लेषण है। इसमें लैंगिक वंशाक्रम को लेकर प्रायः इन्द्रात्मक विचार निहित हैं। इसमें कुछ संरचनाएँ एवं विचार स्पष्ट रूप से महिलाओं को निम्न स्थिति पर प्रतिस्थापित करते हैं और कुछ विचार पुरुष एवं स्त्री को एक-दूसरे का अनुपूरक मानते हैं और कुछ महिलाओं एवं नारीवाद को बढ़ावा देते हैं। एक उच्च जाति, विशेषकर ब्राह्मण जाति के व्यक्ति के सामान्य जीवनकाल में प्रायः महिलाओं को अवर (निम्न) स्थान दिया जाता है। जब एक उच्च जाति का लड़का आठ या बारह वर्ष की आयु प्राप्त कर लेता है तो उसे एक धर्मक्रिया के अनुसार कंधों पर एक पवित्र धागा पहनाया जाता है जो इस बात का प्रतीक है कि वह द्विज में से एक है (one of the twice born)।
इसके विपरीत एक उच्च जाति की लड़की को यह पवित्र धागा नहीं दिया जाता और न ही उसे पवित्र ग्रंथों के अध्ययन की अवस्था का भागी बनाया जाता है। परिवार की ऐसी संस्था है जो समाज के विकास को आगे बढ़ाती है। परिवार में सियों का
योगदान सर्वाधिक तथा केन्द्रीय है। हिन्दू परिवारों में कीर्तिमान के तौर पर एक आदर्श गृहणी को ही दर्शाया जाता है। उसकी छथि गृह लक्ष्मी, आदर्श सहायिका तथा आदर्श संरक्षिता की है। भारतीय स्त्रियों के आदर्श ‘लैला’ और ‘ज्यूलियट’ के बजाय सीता, सावित्री, गांधारी, दमयन्ती के चरित्र रखे जाते हैं। प्रतीक स्वरूप स्त्रियां अपने चरित्र निर्माण के लिये समृद्धि-रूपणी लक्ष्मी, विद्या-रूपणी सरस्वती या फिर वीरता रूपणी दुर्गा की छवि को कीर्तिमान बना सकती हैं। हमारे इतिहासों में कई शकुन्तला, सीता तथा जीजाबाई जैसी महिलाओं के उल्लेख है जिन्होंने अपने पति से बिछुड़ने के पश्चात् कठिनाइयों में अकेले रहकर भी अपनी सन्तानों को न केवल पाला, बल्कि उनका मार्गदर्शन करके उन्हें वीरता का पाठ भी पढ़ाया। इस संदर्भ में शर्म की बात है कि आज भारत में मदर्स डे मनाने के लिये हमारी युवा पीढ़ी भारत की आदर्श महिलाओं को भुलाकर किसी अनजानी और अनामिक विदेशी ‘मदर’ को ही प्रतीक मान पाश्चात्य देशों की भेड़ चाल में लग रही है। वास्तविक मदर्स डे तो अपनी माता की जन्म तिथि होनी चाहिये।
हिन्दू मतानुसार स्त्री-पुरुष दोनों के जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है। मोक्ष प्राप्ति के साधन भी दोनों के लिये समान हैं। जीवन-शैली में पवित्रता, आत्म-नियन्त्रण, आस्था तथा सात्विकता का होना स्त्री-पुरुष दोनों के लिये आवश्यक है। किन्तु हिन्दू समाज स्त्री-पुरुष के शरीर की प्राकृतिक विभिन्नताओं के प्रति भी जागरूक है। दोनों के बीच जो मानसिक तथा भावनात्मक अन्तर हैं उनको भी समझा है। स्त्रियों के शरीर का प्रत्येक अंग उन विषमताओं का प्रगटीकरण करता है। उन्हीं शारीरिक, मानसिक तथा भावनात्मक असमानताओं पर विचार करके स्त्री-पुरुषों के लिये अलग-अलग कार्यक्षेत्र तथा आचरण का प्रावधान किया गया है। समस्त विश्व में स्त्रीपुरुष के आपसी कर्तव्यों में एक परम्परा रही है जिसके फलस्वरूप पुरुष साधन जुटाने का काम करते रहे हैं और स्त्रियाँ साधनों के सदुपयोग का कार्यभार सम्भालती रही हैं।
पाश्चात्य संस्कृति के भ्रमात्मक प्रभाव के कारण हिन्दू धर्म में कुछ दुष्परिणाम भी सामने आये हैं। कहीं-कहीं कुछ हिन्दू महिलायें अपने प्राकृतिक तथा परम्परागत कर्तव्यों से भटककर अपने लिये नयी पहचान बनाने में जुट गयी हैं। वह घरों में रहकर केवल संतान उत्पन्न करने का निमित मात्र नहीं बनना चाहती बल्कि निजी उन्नति और पहचान के मार्ग ढूंढ रही हैं जिसके कारण होटल उनके घरों का विकल्प बन गये हैं। आर्थिक स्वालम्बन की चाह में स्त्रियों नौकरी के लिये घरों से बाहर निकल पड़ी हैं और घरों का जीवन तनाव तथा थकान पूर्ण बन गया। है। घरों में अशान्ति, अनिश्चिता तथा असुरक्षा का वातावरण उभर रहा है। छोटे बच्चे जन्म से ही माता के वात्सल्य के अभाव के कारण निरंकुश और स्वार्थी हो रहे हैं। उनकी देखभाल का जिम्मा क्रेश हाउस या ‘आया’ के ऊपर होने से संतानें संस्कारहीन हो रही हैं।
विग्रहराज ‘बीसलदेव’ एक महान शासक था। विवेचना कीजिए।
अपने पड़ोस में ही देखने से पता चल जायेगा। जिन घरों में महिलायें अपनी सन्तान को क्रंश हाउस या नौकरों के सहारे छोड़कर पाल रही हैं, उनके बच्चे वात्सल्य के अभाव में स्वार्थी, असंवेदनशील, असुरक्षित तथा विकृत व्यक्तित्व में उभर रहे हैं। इसके विपरीत जहां सन्तानों को मातृत्व का संरक्षण प्राप्त है वहाँ बच्चे सभी प्रकार से विकसित हो रहे हैं। आपके होंठ भले ही इस सच्चाई को मानने की हिम्मत ना जुटा पायें किन्तु आपकी अन्तर्रात्मा इस तथ्य को अवश्य ही स्वीकार कर लेगी।
पाश्चात्य देशों में स्त्री-पुरुष दोनों अपनी निजी रुचि के अनुसार चलते हैं तो वैवाहिक | जीवन अस्थिर और तनावपूर्ण है। इस्लामी देशों में स्त्री का अस्तित्व गाड़ी के पाँचवें टायर जैसा है लेकिन हिन्दू समाज में घर के अन्दर स्त्री प्रधानता है और बाहर पुरुष की।
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