हिन्दू धर्म की प्रकृति को स्पष्ट कीजिए तथा हिन्दू धर्म के विभिन्न स्वरूपों की विवेचना कीजिए।

हिन्दू धर्म की प्रकृति हिन्दू धर्म अत्यन्त प्राचीन धर्म है। यथापि इस धर्म को यह नाम अरब के मुसलमानों द्वारा दिया गया है लेकिन इसके पूर्व इसे अन्य नामों से जाना जाता था जैसे, वैदिक धर्म, ब्राह्मण धर्म तथा सनातन धर्म इत्यादि ।

हिन्दू धर्म का अर्थ –

धर्म (हिन्दू धर्म) को वेदों, उपनिषदों, गीता और स्मृतियों में धर्म को भिन्न-भिन्न रूपों में परिभाषित किया गया है, परन्तु इन सभी ने यह माना है कि धर्म का उद्देश्य जीवन के सत्य को उद्भाषित करना है। सभी यह मानते हैं कि धर्म जीवन की सम्पन्नता प्रदान करने की एक विधि है। ऋग्वेद में सूर्य को उन्नायक और सम्पोषक अर्थात् ऊँचा उठाने वाला और पालन-पोषण करने वाला बताया गया है। एतरेय ब्राह्मण धर्म को धार्मिक कर्त्तव्यों का सर्वाग स्वरूप किया गया है। छान्दोग्य उपनिषद् में धर्म का तात्पर्य विभिन्न वर्णों के कर्त्तव्यों से बताया गया है। तैत्तिरीय उपनिषद् में कर्म का अर्थ जीवन के विभिन्न आश्रमों से सम्बद्ध कर्त्तव्यों के पालन से लिया गया है।

हिन्दू धर्म का स्वरूप –

हिन्दू धर्म किसी मत तथा सम्प्रदाय का द्योतक नहीं है। यह जीवन की एक ऐसी आचरण संहिता है, जिसे समाज के किसी अंग अथवा व्यक्ति के रूप में अपने कर्म तथा कृत्यों द्वारा व्यवस्थित किया जा सकता है। यह व्यक्ति को क्रमशः अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के योग्य बनाता है, इस दृष्टिकोण से धर्म को दो भागों में बाँटा गया है

  • (1) श्रोता,
  • (2) स्मार्ता

श्रोत धर्म में उन कृतियों तथा संस्कारों को सम्मिलित किया जाता है, जिसका सम्बन्ध वैदिक सहिताओं में है। यथा, आश्रितों की प्रतिष्ठा यज्ञ तथा सोमकृत्य में स्मार्त धर्म में उन बातों का समावेश है, जिनका सम्बन्ध स्मृतियों से है। स्मार्त धर्म, मुख्य रूप से वर्णों के कर्त्तव्यों तथा विशेषाधिकारों का वर्णन करता है। कुछ धर्मशास्त्रों में रूपों का वर्णन इस प्रकार किया गया। है-विधर्म, परधर्म, उपधर्म, धर्माभास तथा चलधर्म। विधर्म का तात्पर्य उस धर्म से है, जो किसी व्यक्ति के निजी धर्म से मेल न खाता हो। विधर्म का तात्पर्य उस धर्म से है, जिसके अनुयायी उस व्यक्ति से भिन्न हो। इसी प्रकार चल धर्म, धर्म की अभिव्यक्ति प्रतीत होती है, लेकिन वह वस्तुतः ६ कर्म, सत्य को प्रगट नहीं करता। अतः अपने धर्म को पहचानने के लिए बुद्धि आवश्यक है। धर्म के अनुकरण के लिए यदि आवश्यक हो, तो व्यक्ति को ‘अर्थ’ तथा ‘काम’ का त्याग ही करना चाहिए। हिन्दू धर्म के वास्तविक स्वरूपों को तीन प्रमुख भागों और उनसे सम्बद्ध अनेक उप-विभागों में निम्नलिखित रूप से स्पष्ट किया जा सकता है

(क) सामान्य धर्म-

सामान्य धर्म का अभिप्राय आचार व व्यवहार के उन सामान्य नियमों से है, जिनका पालन प्रत्येक वर्ण तथा प्रत्येक आश्रम के व्यक्ति के लिए आवश्यक है। उसमें आचार शास्त्र के सामान्य सिद्धांतों का समावेश होता है। यथा सत्य की सर्वोपरिता। ऋग्वेद के अनुसार सत्य तथा असत्य में प्रतियोगिता चलती है। दोनों में सत्य है, सोम उसी की रक्षा करता है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार जो सत्य है, मनुष्य उसी को बोले। इसी प्रकार समावर्तन संस्कार के समय गुरु शिष्य को सर्वप्रथम यह शिक्षा देता है-‘सत्यं वद् धर्म चर।’ इसी प्रकार तप के गुण माने गये है- दान, आजर्व, अहिंसा तथा सत्यवचन वृहदारण्यकोपनिषद के अनुसार मनुष्य को दान, दया तथा दम (आत्मनिग्रह), इन तीन गुणों को ग्रहण करना चाहिए। गौतम धर्मसूत्र के अनुसार वही मनुष्य ब्रह्मलोक के योग्य है, जिसमें आठ गुण हो यथा दया, शान्ति, अनुसूया, शौच, अनायास, मंगल, अर्कापण्य तथा अस्पृहा वशिष्ठ के अनुसार सभी आश्रम के व्यक्ति कर यह कर्तव्य है कि चुगलखोरी, ईर्ष्या, घमण्ड, अहंकार, अविश्वास, प्रवंचना, लोभ, अपबोध, क्रोध, प्रतिष्पर्धा, आत्म-प्रशंसा आदि का त्याग करें। मनुस्मृति में सामान्य धर्म के दस लक्षण बताये गये हैं-

  1. पृत्ति,
  2. क्षमा
  3. धर्म
  4. स्तेय
  5. पवित्रता
  6. इन्द्रिय निग्रह
  7. प्री
  8. विद्या
  9. सत्य
  10. अक्रोध इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
  1. घृत्ति अपनी जीभ या जननेन्द्रियों पर संयम रखना वृत्ति या धैर्य का गुण विकसित “कर लेता है वह “धीर” है।
  2. क्षमा-क्षमा का तात्पर्य सबल होते हुए भी उदार कार्य करना है। जो है, बल्कि क्षमावान वही है, जो शक्ति रहते हुए भी उदार रहे।
  3. काम और लोभ पर संयम-काम और लोभ पर संयम कर लेना धर्म के अन्तर्गत आता है। शारीरिक विषयों को रोककर जीवन को शुद्ध और नियमित बनाना धर्म है।
  4. स्तेय-सामान्य रूप से स्तेय का अर्थ चोरी न करना है, परन्तु सामान्य धर्म के लक्षणों के रूप में ऐसा परिभाषित करते हुए कहा गया है कि “सोये हुए, पागल या अविवेकीय व्यक्ति से विविध उपायों द्वारा छल करके चीज ले लेना चोरी है।”
  5. सुचिता या पवित्रता पवित्रता का तात्पर्य केवल साफ वस्तुओं को धारण कर लेना आदि ही नहीं है। शारीरिक पवित्रता के साथ मन की पवित्रता भी आवश्यक है। पवित्रता का वास्तविक अर्थ मन, जीवात्मा और बुद्धि को पवित्र रखना है। यह पवित्रता ही व्यक्ति में दैवीय भावनाओं का विकास करती है।
  6. इन्द्रिय निग्रह- मनुस्मृति में इन्द्रिय निग्रह को धर्म का एक लक्षण माना गया है। इन्द्रियों का दमन हो जाने पर मनुष्य के समस्त लक्ष्य अर्थहीन हो जाते हैं।
  7. ‘घ्री’ अथवा ‘बुद्धि-धर्म का सातवाँ प्रमुख लक्षण बुद्धि का समुचित विकास है, क्योंकि बुद्धि के समुचित विकास के बिना कर्त्तव्यों को पूरा नहीं किया जा सकता।
  8. विद्या विद्या को भी धर्म का लक्षण माना गया है। जिस विद्या के द्वारा मनुष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जैसे पुरुषार्थो के वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति कर लेता है, वहीं वास्तविक विद्या है।
  9. सत्य – सत्य का अर्थ केवल सत्य बोलना ही नहीं है, बल्कि सत्य मनसा, वाचा कर्मणा होना चाहिए। महाभारत में तो सत्य के अन्दर ही सामान्य को समस्त लक्षणों का समावेश कर दिया गया है।
  10. अक्रोध-क्रोध अभी अवगुणों का आधार है और क्रोध की स्थिति में मनुष्य अपने कर्त्तव्यों का पालन नहीं कर पाता है। अतएव अक्रोध को भी धर्म का लक्षण माना गया है। सामान्य धर्म के उपर्युक्त समस्त लक्षणों से स्पष्ट है कि ये लक्षण किसी धर्म से नहीं विकास से व्यक्ति का शारीरिक, मानसिक, आत्मिक और आध्यात्मिक विकास हो सकता है।

(ख ) विशिष्ट धर्म-

विशिष्ट धर्म का अभिप्राय उस धर्म से है, जिसका पालन किसी वर्ण विशेष अथवा आश्रम विशेष के सदस्यों द्वारा आवश्यक ठहराया गया है। इसी के आध धार पर शास्त्रकारों के स्वधर्म तथा परधर्म में भी भेद किया गया है। यह धर्म वर्ण तथा आश्रम के विभिन्न कर्त्तव्यों तथा विशेषाधिकारों का वर्णन करता है। मनुस्मृति के अनुसार वेदाध्ययन दान लेना, यज्ञ करना ब्राह्मण का धर्म है प्रजा की तथा आतं की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना पढ़ना, विषय में आसक्ति न रखना, क्षत्रियों का धर्म है। पशुओं की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, पढ़ना, व्यापार करना, ब्याज देना और खेती करना वैश्यो का धर्म है। अनिन्दक रहते हुए तीनों वर्णों के सेवा करना शूद्र का धर्म है। विशिष्ट धर्म को स्वधर्म कहा गया है, क्योंकि यह एक विशेष व्यक्ति का अपना धर्म होता है, सामान्य व्यक्तियोंका सामान्य नहीं। इस विशिष्ट धर्म को उसके कुछ प्रमुख स्वरूपों के आधार पर सरलतापूर्वक समझा जा सकता है

(i) वर्ण धर्म – इस धर्म का तात्पर्य उन कर्त्तव्यों से है, जो कि चारों वर्णों के व्यक्तियों के लिए है। यथा ब्राह्मण के लिए अध्ययन, शिक्षा, दान, जप इत्यादि क्षत्रिय के लिए दूसरों को रक्षा अध्ययन दान आदि। कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य वैश्य के लिए और अन्य वर्णों की सेवा करना शूद्र के लिए।

(ii) आश्रम धर्म प्रत्येक व्यक्ति द्वारा अपने लिए दूसरे व्यक्तियों के लिए और सम्पूर्ण समाज के प्रति कर्त्तव्यों को पूरा करने के दृष्टिकोण से जीवन को चार आश्रमों में विभाजित किया। गया है-

  • 1. ब्रह्मचर्याश्रम,
  • 2. गृहस्थाश्रम,
  • 3. वानप्रस्थ आश्रम और
  • 4. सन्यास आश्रम इन चारों आश्रमों के लिए अलग-अलग कर्त्तव्य निर्धारित किये गये हैं।

(iii )कुल धर्म – कुल धर्म का तात्पर्य परिवार के सभी सदस्यों के द्वारा एक-दूसरे के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना और परिवारों को परम्पराओं में निष्ठा रखना है। कुल धर्म के अन्तर्गत मुख्यत: 1. पति धर्म, 2. पत्नी धर्म, 3. पुत्र धर्म और 4. आतृ धर्म सम्मिलित किया जाता है। इन सबके लिए अलग-अलग प्रकार के आचरण की व्यवस्था की गयी है और उनका धर्म है।

(iv) राजधर्म- राजधर्म के अन्तर्गत राजा के कर्त्तव्यों का समावेश किया गया है। विभिन्न शास्त्रकारों ने राजा के कर्त्तव्यों का विस्तृत उल्लेख किया है। एक राजा को प्रजा के प्रति किस प्रकार का आचरण करना चाहिए यह राजधर्म के अन्तर्गत ही आता है।

(v) युग धर्म – मनुस्मृति, पराशर स्मृति, पद्म पुराण आदि में युग धर्म की विवेचना की गयी है। सतयुग में तप धर्म, त्रेतायुग में ज्ञान धर्म द्वापर में यज्ञ धर्म और कलयुग में दान धर्म सबसे महत्वपूर्ण है।

(vi) मित्र धर्म- हिन्दू धर्म में मित्रता के बन्धन को अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है।मित्र धर्म का भी विवेचना हिन्दू शास्त्रकारों ने किया है।

(vii) गुरुधर्म – हिन्दू धर्म के अन्तर्गत जहाँ गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतिरूप माना गया है, वही उसके धर्म को भी निर्धारित किया गया है। जिसका उसे समुचित रूप से निर्वाह करना चाहिए।

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि विशिष्ट धर्म एक व्यावहारिक धर्म है, जो प्रत्येक व्यक्ति को अपनी स्थिति से अनुकूलन करना तथा अपने समूह के आदर्शों को स्थायी रूप देने का अवसर प्रदान करता है। वास्तव में समाज में प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी का आदर्श है। अतएव उसका आचरण केवल उसके जीवन को ही प्रभावित नहीं करता, बल्कि दूसरे व्यक्तियों को भी प्रभावित करता है। यही कारण है कि हिन्दू धर्म में स्वधर्म में निर्वाह को अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है।

सामाजिक दृष्टिकोण से निर्देशन की आवश्यकता का वर्णन कीजिए ?

(ग) आपद् धर्म

हिन्दू धर्म में सभी व्यक्तियों के यदि सामान्य और विशिष्ट दोनों प्रकार के धर्मों का निर्धारण किया गया है, परन्तु हिन्दू शास्त्रकारों के अनुसार आपत्तिकाल में सामान्य और विशिष्ट धर्म में कुछ परिवर्तन कर लेने में कोई दोष नहीं है और यह कार्य आपद धर्म के अन्तर्गत आता है। उदाहरण के लिए अपने जीवन अथवा किसी अन्य व्यक्ति के जीवन को रक्षा करने हेतु झूठ बोलना, भूख से मरने वाले ऋषि के लिए जीवन की रक्षा के लिए शूद का झूठ भोजन खा लेना, बहेलिया के हाथों से किसी पक्षी के जीवन की रक्षा हेतु उसे गुमराह करना आदि। आपद् धर्म कहलाता है।

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