हर्ष के शासन प्रबन्ध पर एक लेख लिखिए।

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हर्षवर्धन का शासन प्रबन्ध- हर्षवर्धन केवल एक महान विजेता ही नहीं था बल्कि यह एक कुशल प्रशासक भी था। गुप्तकाल के बाद भारत में जो अराजकता व्याप्त दी हर्ष उस वातावरण को श्रोत बाणभटट समाप्त कर राज्य में शान्ति स्थापित करना चाहता था उसने योग्यता और सूत्र से अपने ि साम्राज्य में शान्ति व सुव्यवस्था स्थापित की हर्ष के शासन प्रबन्ध की जानकारी के मुख्य का हर्षचरित, गुआनच्यांग का विवरण, मंजुश्री मूलकल्प और अभिलेख मुख्य है। हर्ष के शासन न्य का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है

केन्द्रीय प्रशासन –शासन का सर्वोच्च पदाधिकारी स्वयं सम्राट होता था। शासन व्यवस्था राजतन्त्रात्मक थी। सम्राट को देव तुल्य माना जाता था। इस प्रकार राजा के दैवी उत्पत्ति के सिद्धान्त पर ही विश्वास किया जाता था राजा ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज’, ‘परमेश्वर’, परमदेवता, एकाधिराज’ चक्रवर्ती एवं सार्वभौम आदि उपाधियों से विभूषित रहता था। राजा सभी देवताओं का सम्मिलित अवतार होता था। राजा के अभाव में भूमि अरक्षित होती थी। वह साक्षात् धर्म का अवतार होता था। वह दीन-दुखियों के दुःख को दूर करने वाला होता था।

चीनी यात्री युनव्यांग के विवरण से विदित होता है कि हर्ष ने अपने शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए सम्पूर्ण दिवस को तीन भागों में दिया था। दिन का प्रथम भाग राजकीय कार्यों को करने के लिए, द्वितीय भाग जन-सम्पर्क के लिए और तृतीय भाग धार्मिक कार्यों के लिए होता था।

मन्त्रिमण्डल –केन्द्रीय शासन का सम्पूर्ण भार मन्त्रिमण्डल के ऊपर होता था। यही मन्त्रिमण्डल राजा के आँख एवं कान होते थे। मन्त्रियों को ‘सचिव’ एवं ‘अमात्य’ भी कहा जाता था। हर्ष के प्रधान सचिव उसका ममेरा भाई भाण्डि था। उसका सन्धि विग्रहित अवन्ती था तथा सेनापति सिंहनाद था। हर्ष के अन्य मन्त्रियों में स्कन्दगुप्त भी था जो गज सेना का प्रधान था। अश्वारोही का प्रधान कुन्तल था। मन्त्रिमण्डल में मन्त्र-गुप्ति का विशेष महत्व था। मन्त्र की रक्षा अथवा उसकी गोपनीयता बनाये रखना प्रत्येक मन्त्री का

कर्तव्य होता था। मधुबन के ताम्रपत्र में अन्य अनेक उच्च पदाधिकारियों के नाम मिलते हैं।

  1. दौस्साधसाधनिक
  2. प्रमातार,
  3. राजस्थानीय,
  4. कुमारामात्य,
  5. उपरिक एवं,
  6. विषयपति

केन्द्रीय शासन के अन्य पदाधिकारियों में पुरोहित, अध्यक्ष महतर, चाट, दूत, प्रतिहार आदि भी प्रमुख थे। हर्षचरित में अनेक उच्च अधिकारियों के नाम मिलते हैं। प्रान्तीय शासन केन्द्र के शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए सम्पूर्ण साम्राज्य को कई प्रान्तों में विभक्त कर दिया गया था। इन प्रान्तों को मुक्ति अथवा देश कहा जाता था। मुक्तियों के शासक उपर होते थे, जो प्रायः राजकुमार ही होते है।

प्रत्येक प्रान्त को कई जिलों में बांट दिया गया था, जिन्हें विषय अथवा प्रदेश कहा जाता था। जिले के प्रधान की नियुक्ति उपरिकद्वारा ही होती थी, जिन्हें विश्व (जिलाधी जागा कभी-कभी राजा स्वयं विषयपति की नियुक्ति करता था प्रान्तों की राजधानियों मे विषयपतियों की अदालतें होती थीं।

सम्भवतः नगर श्रेष्ठ, सार्थवाह, प्रथम कुलिक, प्रथम कायस्थ एवं पुस्तपाल प्रान्त की श समिति के सदस्य होते थे।

ग्राम शासन- ग्राम का प्रधान ग्रामिक (मुखिया) कहलाता था। ग्राम के प्रतिष्ठित लोग मह कहलाते थे जो ग्रामिक के कार्य में मदद करते थे। ग्राम के शासन में कर्मचारियों का दो वर्ग प्रमुख प्रथम वर्ग ‘अष्ट कुलाधिकरण’ एवं ‘अक्षपटिलिक’ तथा द्वितीय वर्ग ‘चाट’ एवं ‘भट’ डॉ. बसाक का कथन है कि छोटे-छोटे विभाग जो आठ कुलों (कुटुम्बों) का निरीक्षण करते थे उन्हें अष्टकुलाधिकरण गया है। इससे स्पष्ट है कि ग्राम के शासन को अत्यधिक सुखद बनाने की पेश की गयी थी। ग्राम का लेखा-जोखा रखने का कार्य अक्षपटलिक का होता था अक्षपटलिक का पद आधुनिक ग्रामों के पटे अथवा पटवारी के पद से बहुत मिलता-जुलता था।

कर्मचारियों का एक दूसरा वर्ग था जिसे ‘चाट’ एवं ‘मट’ कहा जाता था। चाट पुलिस कर्मचारी होते थे तथा भट सेवा मुक्त सैनिक होते थे। ये ग्राम में अमन-चैन स्थापित करने के लिए होते थे। दान में दिये गये ग्रामों का प्रबन्ध करने का भी अधिकारी होता था, जिन्हें ‘अग्रहारिक’ कहा जाता था। ये समस्त कर्मचारी वेतन भोगी होते थे। परन्तु मन्त्री एवं उच्च पदाधिकारियों को वेतन के स्थान पर जागीरें द जाती थीं।

सेना का प्रबन्ध- हर्ष जिस समय गद्दी पर बैठा था, उस समय देश की आन्तरिक एवं वाह स्थिति बहुत ही खराब थी। ऐसी स्थिति में हर्ष यह भली-भाँति जानता था कि सुव्यवस्थित सैन्य संगठन है अभाव में वह विस्तृत साम्राज्य की रक्षा नहीं कर सकता इसलिए उसने सेना को सुसंगठित करने के लिए विशेष ध्यान दिया। सेना का सर्वोच्च पदाधिकारी राजा स्वयं था। उसकी सेना चतुरंगिणी (हस्त, अश्व, र एवं पदाति) थी। चीनी यात्री युआनच्यांग ने हर्ष की विशाल सेना का उल्लेख किया है, जिसमें 60,000 हाथी और 1,00,000 अश्व थे। युद्ध के समय सम्राट स्वयं सेनापति होता था। शीतकाल में जो सेनापति होता था उसे महाबलाधिकृत कहते थे। सेना के अलग-अलग अंगों के लिए अलग-अलग सेनापति होते थे।

न्याय व्यवस्था- देश में सुव्यवस्था एवं शान्ति बनाये रखने के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था थी। गुप्त-काल में चीनी यात्री फाल्यान जब भारत में आया था तो उसने सुरक्षा का अनुभव किया परन्तु हर्ष के शासन में चीन ने पूर्ण सुरक्षा का अनुभव नहीं किया। मन जीवनी से विदित होता है कि एक बार युआनच्यांग शाकल नगर की यात्रा कर रहा था कि रास्ते में पंचाय डाकुओं के दल ने आक्रमण कर दिया और उसका सामान लूट लिया। उसके चिल्लाने पर गांव के व्यक्ति एकत्र हो गये और वह बाल-बाल बच गया। इसी प्रकार एक दूसरे अवसर पर वह राजधानी कन्नौज का भ्रमण कर रहा था, तो राजधानी पहुंचने के पहले कुछ डाकुओं ने उसे पकड़ लिया। डाकू दुर्गा के भक्त थे, अतः अनयांग को देवी के सम्मुख बलि चढ़ाने के लिए ले गये। परन्तु सं उसी समय भीषण तूफान के कारण डाकू चीनी यात्री को छोड़कर चले गये। इससे विदित होता है कि मार्ग में डाकुओं का भय था। अपराधियों को कठोर दण्ड दिये जाते थे। अपराधियों के अपराध की सत्यत का पता लगाने के लिए (1) जल द्वारा, (2) अग्नि द्वारा, (3) तुला द्वारा एवं (4) विष द्वारा दिव्य परीक्षा होती थी। देशद्रोहियों के लिए आजन्म कारावास की व्यवस्था थी। साधारण अपराध के लिए जुर्माना भी किया जाता था परन्तु अंगच्छेद का भी उल्लेख मिलता है। अपराध सिद्ध होने पर कार हाथ, पैर भी काट लिए जाते थे अथवा दूसरे देश या जंगल में निर्वासित भी कर दिया जाता था, लेकिन सामान्यतः शासन का कार्य ईमानदारी के साथ होता था और लोग आपस में प्रेम से रहते थे। इसी कार अपराधियों की संख्या भी कम थी।

आय के साधन- किसी भी राजा की शक्ति उसके राजकीय कोष पर ही निर्भर करती है। हर्ष में शासन में आय का प्रमुख साधन भूमिकर था, उपज का छठाँ भाग ही कर के रूप में लिया जाता था परन्तु जो भूमि मन्दिर को दान में दी जाती थी वह भूमिकर से मुक्त रहती थी। खाद्य पदार्थों एवं खनि‍ पदार्थों पर भी कर लगता था। इन सब करों को वसूल करने के लिए शौल्किक (चुंगी आफिसर) होते व्यापार, पाटों एवं नावों से भी कर लिया जाता था। मधुबन लेख में ‘तुल्यमेव’ का भी उल्लेख हुआ

अर्थात् प्रत्येक तौल की जाने वाली चीजों पर भी कर लगता था। इसके अतिरिक्त अपराधियों से प्राप्त जुर्माना तथा उनकी सम्पत्ति की कुर्की भी राज्य की आय का मुख्य साधन था परन्तु राजकीय आय का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्रोत अन्य विजित राज्यों से प्राप्त धन सम्पदा ही था। इससे राजकीय कोष में अतुलनीय वृद्धि होती थी।

राज्यवर्द्धन का राजनैतिक इतिहास लिखिए।

राजकीय व्यय- एक इतिहासकार के अनुसार राजकीय आय को चार बातों पर व्यय किया जाता था। आय का एक अंश राज्य की ओर से की जाने वाली पूजा उपासना तथा सरकारी कार्यों पर व्यय किया जाता था। अन्य भाग से उच्च सार्वजनिक अधिकारियों की धन सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती थी। तीसरे अंश से प्रकाण्ड विद्वानों को पुरस्कार आदि दिया जाता था तथा चौथे अंश को संस्थाओं को दान देकर पुण्यार्जन किया जाता था।

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