स्त्री-पुरुष भूमिका विभेद के प्रकार
स्त्री एवं पुरुष की भूमिका विभेद के प्रकारों को निम्नलिखित रूप से दर्शाया जा सकता है
(1) मानवशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य – मानवशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में विश्वास किया जाता है की मानव व्यवहार संस्कृति द्वारा निर्धारित एवं निहैड मूल्य एवं भूमिका संस्कृति द्वारा निर्धारित एवं समाज द्वारा सम्प्रेषित होते हैं। सेवी स्ट्रास थियों की भूमिकाओं के बारे में यह मानते हैं कि समाज की रचना की प्रक्रिया के दौरान स्त्री ने अधीनता की स्थिति ग्रहण की। उनके अनुसार संस्कृति का विकास स्त्री-पुरुष के विनिमय से प्रारम्भ हुआ जिसके द्वारा पारिवारिक बन्धन मजबूत हुए और समाज का निर्माण हुआ।
(2) प्राणीशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य – प्राणीशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य के अनुसार श्री द्वारा किए जाने वाले कार्य ही कम गतिशीलता वाले होते हैं। पर पर अधिक रहने के कारण की को गृहकार्य सौंपे गए, जबकि पुरुष ने अपनी अधिक शारीरिक शक्ति के कारण आखेट एवं कृषि सम्बन्धित कार्यों को ग्रहण किया तथा समाज में शक्ति प्राप्त कर ली जो अब तक बनी हुई है। समाज में आज भी यह धारणा प्रचलित है कि पुरुष को घर के बाहर के कार्य करने चाहिए जबकि स्त्री का कार्यक्षेत्र पर है। वह रसोई, चक्की का कार्य करे, क्योंकि उसे बच्चे को जन्म देने एवं उसके लालन-पालन का कार्य करना है। समाज में पुरुषों की भूमिका को अधिक महत्त्व एवं शक्ति प्रदान की गई है। मुरडॉक ने अपने द्वारा अध्ययन किए गए समाजों में यौन आधारित श्रम विभाजन पाया। पारसन्स ने भी परिवार में पिता की भूमिका को भावात्मक नेतृत्व के रूप में चित्रित किया है।
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(3) सामाजिक भूमिकाओं में भेद – फ्रॉयड कहते हैं कि स्त्री-पुरुष में यौन भेद ही उनकी सामाजिक भूमिकाओं के भेद के लिए उत्तरदायी है। फ्रायड की स्त्रीवाद के बारे में सम्पूर्ण समझ व विश्लेषण स्त्री पुरुषों के यौनिक भेद पर निर्भर हैं। फ्रायड का मत है कि स्त्री में बचपन से ही पुरुष की तुलना में यौनिक दृष्टि से हीनभावना जन्म लेने लगती है और उसमें पाए जाने वाले स्त्रियोचित गुण, रुचियाँ, भावनाएँ, मनोवृत्तियां और इच्छाएँ किसी-न-किसी रूप में उसके असन्तोष तथा क्षतिपूर्ति सम्बन्धी विचार को व्यक्त करती है। फ्रॉयड ने स्त्री और पुरुष को दो ध्रुव न मानकर उन्हें समान माना। इस प्रकार से उसका सिद्धान्त लैंगिकता पर आधारित है प्रेम पर नहीं।
(4) पितृसत्तात्मक सत्ता – सर हेनरीमेन ने पुरुष की स्वाभाविक उच्चता एवं स्त्री के स्थान के बारे में अपना मत व्यक्त करते हुए लिखा है कि सामाजिक संगठन का सार्वभौमिक रूप वह था, जिसमें सत्ता का स्वरूप पितृसत्तात्मक था। प्रारम्भ में परिवार ही समाज की ईकाई था। परिवार से ही यह सत्ता गौत्र, जनजाति और आगे की ओर हस्तान्तरित होती गई। सदैव पुरुष ने शासन का कार्य किया है। अपवाद रूप से, अस्थायी रूप से मानव समाज में माता की सत्ता विद्यमान रही।
संक्षेप में, मानवशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य इस बात पर बल देता है कि किसी भी मानव समाज में स्त्री और पुरुषों के मध्य भूमिकाओं के असमान वितरण के लिए संस्कृति ही मुख्य रूप से उत्तरदायी रही है।
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