सामाजिक समूह का अर्थ
सामाजिक समूह से तात्पर्य कुछ व्यक्तियों में शारीरिक समीपता होना नहीं है, बल्कि समूह की प्रमुख विशेषता कुछ व्यक्तियों द्वारा एक-दूसरे से सम्बन्ध स्थापित करना अथवा एक-दूसरे के व्यवहारों को प्रभावित करना है। मैकाइबर के अनुसार “सामाजिक समूह से हमारा तात्पर्य मनुष्य के किसी भी ऐसे संग्रह से है, जो एक-दूसरे से सामाजिक सम्बन्धों द्वारा बंधे हो।’
सामाजिक समूह के निर्माण का आधार- सामाजिक समूह के निर्माण के आधार भिन्न-भिन्न है। समूह निर्माण के आधार में हम लिंग-भेंद, व्यक्तिगत रुचि, मनोवृत्तियां, धर्म व व्यवसाय आदि का उल्लेख कर सकते हैं।
समाजिक समूह का वर्गीकरण – विभिन्न समाज शास्त्रीयों ने समूह का जो वर्गीकरण किया है, उसका वर्णन इस प्रकार है।
सामान्य वर्गीकरण – सामाजिक समूहों का वर्गीकरण विभिन्न आधारों पर किया जा सकता। है। जैसे-
- 1. स्वार्थी की प्रक्रिया,
- 2. संगठन की मात्रा
- 3. स्थायित्व की मात्रा,
- 4. सदस्यों के बीच
आपसी सम्बन्धों के प्रकार आदि।
(1) मैकाइवर एवं पेज द्वारा किया गया वर्गीकरण-मैकाइवर एवं पेज ने समस्त समूहों को तीन वर्गों में विभक्त किया है
(क) क्षेत्रीय समूह-
इन समूहों में सदस्यों के सम्पूर्ण हित व्याप्त होते हैं तथा इनका एक निश्चित क्षेत्रीय आधार होता है। सभी समुदाय इस श्रेणी में आते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य जाति, गांव, नगर और राष्ट्र इसी प्रकार के समूहों के उदाहरण है।
(ख) हितों के प्रति चेतन एवं असंगठित समूह
इस कोटि में सामाजिक वर्ग, जाति, प्रतिस्पर्धा वर्ग, शरणार्थी समूह, राष्ट्रीय समूह, प्रजातीय समूह आते हैं। इनमें स्वार्थो के प्रति चेतना अवश्य होती है किन्तु इनका संगठन अनिश्चित प्रकार का होता है। भीड़ एवं श्रोता समूह तो हितों के लिए चेतन अवश्य होते हैं, किन्तु इनका संगठन तो पूर्णतया अस्थिर ही होता है।
(ग) हितों के प्रति चेतन एवं संगठित समूह-
इसमें आपने परिवार पड़ोस, खेल का समूह आदि को सम्मिलित किया है। इसी प्रकार के दूसरे राज्य, चर्च, आर्थिक व श्रमिक समूह आदि होते हैं जिसमें सदस्य संख्या कहीं अधिक होती है किन्तु फिर भी इन दोनों प्रकार के समूहों में स्वार्थ एवं हितों के साथ ही एक निश्चित संगठन भी पाया जाता है। इस प्रकार मैकाइवर और पेज के अनुसार सामाजिक समूहों के वर्गीकरण में सामाजिक सम्बन्धों की प्रगति मुख्य आधार होता है।
- (2) गिलिन और गिलिन के अनुसार वर्गीकरण इनका वर्गीकरण इस प्रकार है
- (क) रक्त सम्बन्धी समूह-इनके अन्तर्गत आपने परिवार एवं जाति को सम्मिलित किया है।
- (ख) शारीरिक विशेषता सम्बन्धी समूहः- जैसे लिंग, आयु, प्रजाति आदि।
- (ग) क्षेत्रीय समूह-जैसे जनजाति, राज्य एवं राष्ट्र ।
- (घ) अस्थाई समूह-जैसे भीड़भाड़ एवं श्रोता समूह।
- (ङ) स्थाई समूह-जैसे खानाबदोश जत्थे, गांव एवं कस्बे तथा शहर इस कोटि में आते हैं।
- (च) सांस्कृतिक समूह- इसमें आपने विभिन्न आर्थिक, धार्मिक, शैक्षिक, राजनीतिक एवं मनोरंजन समूह को सम्मिलित किया गया है।
(3) सुमनर के अनुसार समूहों का वर्गीकरण-सुमनर ने समूहों को निम्न दो भागों में वर्गीकृत किया है
(क) अन्तः समूह –
यह एक ऐसी समिति का रूप होता है जिसके प्रति हम परस्पर अधीनता दृढ़ता वफादारी, मित्रता एवं सहयोग की भावना का अनुभव करते हैं। इसके सदस्य अपने को हम की भावना से सम्बन्धित मानते हैं और अपने को मेरा समूह, हमारा उद्देश्य आदि शब्दों के द्वारा सम्बोधित करते हैं। इनके बीच आमने-सामने के सम्बन्धों की प्रधानता होती है। अन्तःसमूह के सदस्य अपने प्रति बड़ी सहानुभूति एवं प्रेम की भावना का प्रदर्शन करते हैं, जबकि अपने बाहर के व्यक्तियों को प्रायः गन्दे एवं तुच्छ नामों से सम्बोधित करते हैं।
(ख) बाह्य समूह
यह एक ऐसी समिति मानी जाती है जिसके प्रति हम घृणा, नापसंदगी भय, स्पर्धा तथा अरुचि आदि की भावना प्रदर्शित करते हैं। इस समूह की एक आवश्यक विशेषता अन्तर की भावना होती है किन्तु एक बात यहाँ ध्यान रखने योग्य है कि जो एक व्यक्ति के लिए अन्तःसमूह है वही दूसरे के लिये बाह्य समूह है। इसकी सीमायें स्थान और समय के लिए है। दूसरी जनजाति बाह्य समूह है जबकि राष्ट्र की बात करते समय एक राष्ट्र के सभी सदस्य अन्तःसमूह एवं दूसरे राष्ट्र के लोग बाह्या समूह कहें जायेंगे।
4. कूले का वर्गीकरण- चार्ल्स कूले ने सामाजिक समूह का सबसे अच्छा और वैज्ञानिक वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। कूले ने समूहों को दो वर्गों में विभाजित किया है-
- प्राथमिक समूह तथा
- ( द्वितीयक समूह।
(1) प्राथममिक समूह
चार्ल्स कूले ने प्राथमिक समूहों की व्याख्या करते हुए लिखा है कि ” प्राथमिक समूहों से मेरा तात्पर्य उन समूहों से है जिसकी विशेषता, घनिष्ठ आमने-सामने के सम्बन्ध और सहयोग से होती है।” इसके सभी सदस्यों में हम की भावना की प्रधानता होती है। इसे सदस्य की संख्या द्वैतीयक समूहों के सदस्यों से कम होती हैं जिसके कारण पड़ोस तथा क्रीड़ा समूह को प्राथमिक समूह कहकर पुकारा है। इन समूहों का सम्बन्ध व्यक्ति के बाल्यकाल से अधिक होता है। यही कारण है कि व्यक्तित्व के विकास में इनका योगदान प्रशसंनीय रहता है। ये बच्चे में स्नेह, त्याग, सहानुभूति, ईमानदारी एवं स्वामिभक्ति की भावना का सूत्रपात करते है। इसलिए कुल ने इन्हें ‘मानव स्वभाव की वृक्षारोपिणी’ कहा है कूले इन समूहों को सार्वभौमिक मानते हैं क्योंकि परिवार, पड़ोस तथा खेल के समूह अस्तित्व प्रत्येक स्थान एवं काल में मिलता है। इस समूह की प्रकृति स्थाई होती है, सदस्यों की संख्या कम होती है, आमने-सामने के सम्बन्ध एवं घनिष्ठता होती है। इसके अतिरिक्त इस प्रकार के समूहों की आन्तरिक विशेषताओं के समान उद्देश्य, वैयक्तिक सम्बन्ध, सर्वांगीण सम्बन्धों की स्वाभाविकता को सम्मिलित कर सकते हैं।
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(2) द्वैतीयक समूह
इनसे कूले का तात्पर्य ऐसे समूहो से हैं जिसमें प्राथमिक समूहों से भिन्न विशेषतायें होती है। इसके सदस्यों में पारस्परिक घनिष्ठता, प्राथमिक समूहों से कहीं कम होती है क्योंकि इसके सदस्य दूर दूर फैलें हो सकते हैं जो संचार के साधनों से एक-दूसरे के साथ सम्पर्क स्थापित करते है। इसके अतिरिक्त इसके सदस्यों की संख्या कहीं अधिक होती है। इनमें भारी संख्या, अल्प अवधि, कम घनिष्ठता, शारीरिक दूरी की प्रधानता पायी जाती है। कूले ने लिखा है कि यह एक ऐसा समूह है जिसमें घनिष्ठता का अभाव होता है और आमतौर से अधिकतर अन्य प्राथमिक एवं अर्ध प्राथमिक विशेषताओं का भी अभाव रहता है। चूँकि इसका निर्माण विशेष हितों या स्वार्थों की पूर्ति के लिए किया जाता है और सदस्यों के सम्बन्ध आंशिक होते हैं इसीलिए इन्हें विशेष स्वार्थ समूह भी कहा जाता है। सामाजिक कर्म, राष्ट्र, स्थानीय समुदाय और प्रादेशिक समूह, जनता संस्थात्मक समूह एवं कारपोरेशन इसी कोटि के समूह है।
निष्कर्ष :- इस प्रकार विभिन्न वर्गीकरणों में चार्ल्स कूले का वर्गीकरण सबसे सुन्दर और वैज्ञानिक है। अन्य विद्वानों के वर्गीकरण कूले के वर्गीकरण प्राथमिक समूह और द्वैतीयक समूह में आत्मसात् हो गये है।
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