सामाजिक दृष्टिकोण से निर्देशन की आवश्यकता का वर्णन कीजिए ?

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सामाजिक दृष्टिकोण से निर्देशन की आवश्यकता

समाज की सुरक्षा और प्रगति के लिए आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति ऐसे स्थान पर रखा जाय जहाँ से यह समाज के कल्याण तथा प्रगति में अधिकतम योगदान कर सके अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को इस प्रकार प्रशिक्षित किया जाये कि वह एक योग्य एवं क्रियाशील नागरिक बन जाए। आज का समाज अनेक नवीन परिस्थितियों से होकर गुजर रहा है- संयुक्त परिवार प्रणाली विघटित होती जा रही है, विभिन्न देशों की संस्कृति के साथ सम्पर्क बढ रहा है. नवीन उद्योगों की स्थापना हो रही है। इस बदलते हुए सामाजिक परिवेश में व्यक्ति के विकास को सही दिशा देने में निर्देशन का महत्वपूर्ण स्थान है। यहाँ हम सामाजिक दृष्टि से आवश्यक अन्य आधारों के सन्दर्भ में निर्देशन की आवश्यकता पर विचार करेंगे।

(A) परिवर्तित पारिवारिक दशाएँ

प्राचीन काल में बच्चे का घर या परिवार में रहकर ही व्यावसायिक प्रशिक्षण हो जाता था। कृषक उस समय किसी एक क्रिया में दक्ष न होकर विभिन्न क्रियाओं में दक्षता प्राप्त करता था। धीरे-धीरे परिवार के वातावरण में परिवर्तन आया। प्रशिक्षण का दायित्व अब परिवार पर न रहकर विद्यालय पर आ गया। प्रशिक्षण का दायित्व विद्यालय पर आ जाने से विभिन्न प्रकार के वातावरण में पले विविध छात्रों को प्रशिक्षण देना विद्यालयों को कठिन हो गया क्योंकि विद्यालय समस्त छात्रों की पारिवारिक स्थिति, उनकी क्षमताओं योग्यताओं आदि से अनभिज्ञ थे। अतएव छात्रों को उनकी योग्यता एवं क्षमता के अनुकूल प्रशिक्षण देने के लिए निर्देशन सहायता की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी।

(B) उद्योग एवं श्रम की परिवर्तित दशाएँ

पहले लोग अपने परम्परागत व्यवसायों को अपना लेते थे। उदाहरणार्थ, एक लुहार का कार्य उसके बच्चे भी स्वतः ही अपना लेते थे। किन्तु अब परिस्थितियाँ बदल गई हैं। व्यवसायों की संख्या तथा विविधता दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। व्यवसायों में विशिष्टीकरण विशेष रूप से हो रहा है विभिन्न व्यवसायों में कार्य प्रणाली विभिन्न प्रकार की होती है। इन प्रणालियों को सीखना तथा उनका प्रशिक्षण आवश्यक है। किन्तु प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक प्रणाली के अनुसार कार्य नहीं कर सकता है। अतः उपयुक्त प्रणाली का उपयुक्त व्यक्ति के लिए चयन निर्देशन द्वारा ही संभव है।

(C) जनसंख्या में परिवर्तन

भारत की जनसंख्या तीव्र गत से बढ़ रही है। सन् 1931 से हमारे देश की जनसंख्या करीब 2755 थी। यही जनसंख्या 1951 में बढ़कर 3569 लाख हुई तथा 1981 में यह जनसंख्या 65.1 करोड़ हो गई। जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ जनसंख्या की प्रकृति में भी परिवर्तन हो गया है। अब व्यक्ति प्रामों से नगरों की ओर दौड़ रहे हैं। परिणामस्वरूप शहरों में आबादी बढती जा रही है जिससे नगरों का जीवन अत्यन्त भीड-युक्त, जटिल तथा क्लिष्ट हो गया है। अतः जनसंख्या वृद्धि ने तथा उनकी परिवर्तित प्रकृति ने निर्देशन की आवश्यकता को और बढ़ा दिया है।

(D) सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन

देश में हो रहे परिवर्तनों के साथ यहाँ का सम्पूर्ण समाज भी बदल रहा है इसके साथ ही पूर्व स्थापित सामाजिक मूल्यों के प्रति वर्तमान नवयुवकों की निष्ठा कम होती जा रही है और नवीन मूल्यों की स्थापना के प्रति उत्साह बढ रहा है। प्राचीन मूल्यों में आध्यात्मिक शान्ति पर विशेष बल दिया जाता था, किन्तु आज भौतिकवाद बढ रहा है। शारीरिक सुख व आराम प्राप्त करना ही युवकों का लक्ष्य है। भारत में जाति प्रथा के प्रति व्यक्ति संकुचित धारणा में परिवर्तन आता जा रहा है। और अन्तर्जातीय विवाह में लोगों की रुचि बढ़ती जा रही है। इन समस्त परिवर्तित परिस्थितियों में मनुष्य अपने को किंकर्तव्यविमूढ सा पाता है। एक ओर प्राचीन मूल्यों में आस्था कम हो रही है तो दूसरी ओर नवीन मूल्य निर्धारित नहीं हो पा रहे हैं। ऐसी विकट परिस्थिति में युवकों द्वारा, निर्देशन सहायता की माँग करना स्वाभाविक है।

(E) धार्मित तथा नैतिक मूल्यों में परिवर्तन

सामाजिक, आर्थिक एवं औद्योगिक परिवर्तनों का प्रभाव निश्चित रूप में हमारे नैतिक तथा धार्मिक स्तर पर पड़ा है। धार्मिक रीति-रिवाज बदलने से कट्टरपंथी कम ही दृष्टिगत होते हैं। इसके साथ ही देश में व्यभिचार बढ़ता जा रहा है। नैतिक दृष्टि से कोई भी व्यक्ति अपने उत्तरदायित्व का पालन ईमानदारी से नहीं करता है। रिश्वत का बोलबाला है। मदिरा का सेवन, जुआ खेलना, धूम्रपान उच्च जीवन स्तर के मानदण्ड हो गये हैं। ऐसी परिस्थितियों से नवयुवकों को बचाने के लिए हम निर्देशन सहायता की उपेक्षा नहीं कर सकते हैं।

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(F) उचित नियोजन की आवश्यकता

यदि व्यक्ति को अपनी योग्यताओं एवं क्षमताओं के अनुसार कार्य मिलता है तो उससे उसको व्यक्तिगत संतोष के साथ-साथ उत्पादन क्षमता में विकास के लिए प्रोत्साहन भी प्राप्त होता है। इस कार्य में निर्देशन अधिक सहायक सिद्ध हो सकता है।

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