समाज में हिन्दू परिवार की स्थिति
समाज में हिन्दू परिवार की स्थिति को निम्नांकित रूप में देखा जा सकता है
(1) प्रथाओं एवं परम्पराओं को महत्त्वपूर्ण स्थान हिन्दू परिवार प्रथाओं को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है।
हिन्दू परिवार के सदस्य भावना प्रधान होते हैं और पारिवारिक सम्बन्ध आदर्श मूल्यों से ओत-प्रोत होते हैं, जैसे पति-पत्नी के बीच का सम्बन्ध, पिता-पुत्र के बीच का सम्बन्ध, भाई-भाई के बीच का सम्बन्ध आदि सभी सामाजिक मूल्यों के संपादक होते हैं। हिन्दू परिवार एक सुव्यवस्थित संगठन माना जाता है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के कार्य क्षेत्र एवं अधिकार को निश्चित किया गया है, लेकिन अनेक सामाजिक कुप्रथाओं के कारण नारी की दैवीय स्थिति दासी की स्थिति में बदल गई है।
(2) समाजीकरण की प्रकृति और जेण्डर
परिवार में एक बच्चे के साथ उसके लिंगानुसार अलग-अलग व्यवहार किया जाता है क्योंकि परिवार में ही बच्चों को सर्वप्रथम अपने लिंग के बारे में ज्ञान प्राप्त होता है। उसके लिंग के आधार पर ही उसका विकास किया जाता है और उसे उसी प्रकार के खिलौने, कपड़े आदि प्रदान किए जाते हैं। इस प्रकार से माता-पिता द्वारा बचपन से ही यह अवधारणा बालक के हृदय में उत्पन्न कर दी जाती है कि अपने जीवन में उसकी किस प्रकार की भूमिका होगी, क्योंकि हमारे पितृसत्तात्मक समाजों में पुरुषों का समाजीकरण बिल्कुल अलग ढंग से किया जाता है।
पुरुषों से यह आशा की जाती है कि उनमें पुरुषोचित गुण पूरी तरह से विकसित हो, जैसे स्वतन्त्रता, आत्मनिर्भरता, प्रभाती सक्रियता, सांसारिकता निर्णय लेने की क्षमता, नेतृत्व का गुण, स्वाबलम्बन, तार्किकता, प्रतियोगिता आदि इसका कारण यह है कि इन गुणों से युक्त पुरुषों पर ही. समाज गर्व करता है तथा किसी नारी में ये गुण उत्पन्न होने पर समाज द्वारा पौरुषीय गुण वाली स्त्री
बताकर उसमें परिवर्तन लाने के लिए समाज दबाव बनता है। इसलिए सत्य ही कहा गया है कि एक महिला न केवल हमारे रीति-रिवाजों, परम्पराओं को संरक्षक होती है, बल्कि यह समस्त समाज के व्यवहार का एक दर्पण भी मानी जाती है।
इन सब परिणाम यह हुआ कि पुरुष को अपना कैरियर चुनने, नये क्षेत्र में भागीदारी करने, की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है जबकि इसी समाज में महिलाओं के लिए सब कुछ पहले निश्चित कर दिया है। यदि खियाँ अपना कैरियर उस क्षेत्र में बना लेती है तो ठीक है, अन्यथा परिवार द्वारा उनका शीघ्र ही विवाह कर दिया जाता है। इसीलिए महिलाओं को परम्पराओं तथा समाज की दासी के रूप में ही श्री को देखा जाता है। वस्तुत परिवार समाज में उनकी स्वयं की न कोई पहचान होती है और न ही उन्हें किसी प्रकार की कोई स्वतन्त्रता ही प्राप्त होती है। अतः खियों का समाजीकरण पुरुष प्रधानता के आधार पर ही परिवार एवं समाज द्वारा किया जाता है।
(3) पुरुष ही वंश चलाते हैं
परिवार के पांच की इस मान्यता से भारतीय समाज के अधिकांश तबकों में बेटों की चाहत कुछ ज्यादा बढ़ी है। The National Family Health Survey’ (2005-06) ने कुछ पहलुओं जैसे प्रतिरक्षण पर स्तनपान की अवधि सामान्य शैशवकालीन रोगों की स्थिति और उनके उपचार की सम्भावना 4 वर्ष से कम आयु के बच्चों में कुपोषण की समस्या और नवजात शिशुओं तथा बच्चों के जीवित रहने की दर आदि के आधार पर 19 सर्वाधिक जनसंख्या वाले राज्यों में बेटे को किता दिए जाने का अनुमान लगाया था। लगभग यह मापदण्ड अधिकांश राज्यों में लड़कियों की तुलना में लड़के अधिक लाभकारी स्थिति में है।
(4) परिवार रूपी संस्था में सर्वाधिक प्रचलित रूप है संयुक्त परिवार
संयुक्त परिवार में पितृपक्ष से सम्बन्धित पुरुषों का एक समूह होता है जिन्हें सम्पत्ति, संयुक्त खर्ची में हिस्सेदारी, आवास और रसोई के समान अधिकार प्राप्त होते हैं। यद्यपि औद्योगीकरण, शहरीकरण और आधुनिकता है। प्रभाव के कारण इस प्रकार के रहन-सहन में काफी परिवर्तन हुआ है, परन्तु संयुक्त परिवार की मान्यताएँ आज भी काफी हद तक प्रचलित है। इस प्रकार के पारिवारिक ढांचे में महिलाएं कठोर प्रतिबंधों के अधीन होती हैं और निर्णय लेने की प्रक्रिया में उनकी भूमिका नहीं के बराबर अथवा बिल्कुल ही नहीं होती और वे अपनी सास के सीधे अधीन होती हैं। परिवार में उनकी परिस्थिति, उनके द्वारा देहज में लाए गए धन व पारिवारिक अर्थव्यवस्था में उसके पति के योगदान पर मुख्यतः निर्भर करती है।
(5) विधवा होना भी एक सामाजिक अभिशाप है
हमारी जनसंख्या के अधिकांश हिस्सों में विधवा होना भी एक सामाजिक अभिशाप है और उच्च आतियों की विधवाओं में तो यह विशेष रूप से प्रभावी है। भारतवर्ष में महिलाओं की प्रस्थिति पर राष्ट्रीय समिति की रिपोर्ट (1988) के अनुसार “विधवाओं के प्रति समाज की सोच, विभिन्न सामाजिक आर्थिक स्तरों पर मित्र मित्र है, किन्तु वैधव्य के उपरान्त सी की जीवन-शैली में बदलाव, भारतीय समाज के सभी वर्गों में लगभग एक जैसा ही है। पारम्परिक रूप से विधवाओं को अशुभ माना गया है और शुभ कार्यों में उनकी भागीदारी को आज भी समाज का बड़ा हिस्सा अवांछित समझता है।” सोच में थोड़े बहुत बदलाव के बावजूद भी विधवाओं की दशा हमारे समाज पर एक बदनुमा दाग है।
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(6) परिवार की जाति व्यवस्था पर निर्भरता
सांस्कृतिक स्वायत्तता और महिलाओं की प्रस्थिति हमेशा से जाति-व्यवस्था से नियन्त्रित होती रही है। शुद्धता और अशुद्धता की विचारधारा को वैवाहिक व खानपान सम्बन्धी नियमों द्वारा जातीय प्रतिबद्धता, व्यवसाय और जीवन-शैली के आधार पर बनाए रखा गया है। सात्विक शाकाहार, नशे की लत से बच के रहना व सियों पर पाबंदी कर्मकांडीय शुद्धता के प्रमुख मापदण्ड रहे हैं। ‘नेशनल प्रोफाइल ऑफ वोमेन’ के अनुसार, जातीय प्रथा को बनाए रखने का वैचारिक और भौतिक आधार, धार्मिक ग्रन्थों और पितृसतात्मक, पिशामक और पितृस्थानीय परिवार की विचारधारा से निर्धारित होती है। इस प्रकार सियों पर निम्न प्रकार से नियन्त्रण रखा जाता है –
- सम्पत्ति एवं संसाधनों में उनको उत्तराधिकारी न मानना ।
- पर्दा प्रथा जैसे रिवाज के द्वारा स्त्रियों को समाज से अलग कर घरेलू जीवनचर्या तक सीमित कर देना।
- रीति-रिवाजों और आदर्शों द्वारा उनका समाजीकरण
- विवाह के माध्यम से गृहस्थ जीवन और सम्पत्ति की सुरक्षा हेतु उनका प्रयोग।
- मासिक धर्म सम्बन्धी मान्यताएँ शरीर के प्रति लज्जा बोध की प्रवृत्ति, छोटी उम्र में शादी केवल महिलाओं के लिए ‘एक पुरुष व्रत’ का कठोर नियम स्त्री का मूल्यांकन विवाह और परिवार विशेषकर कई पुत्रों की मां के रूप में सीमित कर दिया जाना
(7) समाजीकरण की दृष्टि से नारी की भूमिका
हिन्दू परिवारों में महिलाओं को न तो किसी प्रकार का कोई निर्णय लेने का अधिकार दिया जाता है और न घर की चारदीवारी के बाहर ही किसी प्रकार की क्रियाओं में भाग लेने का अधिकार ही उन्हें दिया जाता है। यही नहीं महिलाओं से आशा भी की जाती है कि वे अपने अधिक से अधिक समय को गृहकार्य में ही व्यतीत करें समाज उनके व्यवहार में कुछ ऐसे गुणों की आशा करता है कि महिलाओं में सहनशीलता, समर्पण, परोपकारिता आदि जैसे गुण अवश्य होने चाहिए।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि समाजीकरण पर भी लिंग का बहुत अधिक प्रभाव है, क्योंकि एक पुरुष का समाजीकरण इस प्रकार से होता है कि वह स्वयं जागरूक बने तथा स्वयं के विकास के विषय में अधिक से अधिक सोचे, जबकि स्त्री का समाजीकरण इस प्रकार से किया जाता है कि उसके परिवार के सदस्यों की उन्नति में ही उसकी भी उन्नति है। समाज में नर-नारी के समाजीकरण का एक आधार यह भी है कि पुरुष बच्चों के लालन की कोई भी जिम्मेदारी अपने ऊपर नहीं लेते हैं। परिवार में बच्चे के लालन-पालन की पूर्ण जिम्मेदारी महिला को ही सौंप दी जाती है। समाज में एक बालक का समाजीकरण करने में वस्तुतः माँ की ही महत्वपूर्ण भूमिका है और माँ ही बच्चे की प्रथम शिक्षिका होती है, क्योंकि बालक को समाज के मानदण्डों का पालन करने की और उन बातों को नहीं करने की जो कि समाज के प्रतिकूल है, शिक्षा परिवार में केवल माँ ही देती है।