समाज में क्षेत्रीय विविधताओं की प्रकृति की विवेचना कीजिए।

समाज में क्षेत्रीय विविधताओं

समाज में क्षेत्रीय विविधताओं भारतीय समाज में धार्मिक एवं सजातीय विविधता के साथ-साथ क्षेत्रीय विविधता के भी दर्शन होते हैं। भौगोलिक विस्तार की दृष्टि से भारत एक विशाल देश है जिसके कारण देश के प्रत्येक क्षेत्र में समान आधार पर सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना सम्भव नहीं है। देश के पूर्व एवं पश्चिम तथा उत्तर एवं दक्षिण में हजारों किलोमीटर का फासला पाया जाता है। भारत के उत्तर में पहाड़ स्थित है तो दक्षिण में समुद्री तट पाया जाता है। भारत के पश्चिम में एक ओर गंगा-यमुना का विशाल उपजाऊ मैदान है तो दूसरी ओर पहाड़ी व जंगली प्रदेश है। यहाँ के लोग अत्यन्त कठिन परिश्रम करके जीविकोपार्जन करते हैं। भारत में इतनी अधिक क्षेत्रीय भिन्नताएँ पाई जाती है कि कहीं लोग आधुनिक युग का विलासपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हैं तो कहाँ पर अनेक समूह आज भी आदिमयुगीन अभावमय जीवन व्यतीत कर रहे हैं। देश के कुछ क्षेत्रों में लोग बड़े उद्योग-धन्धों की सहायता से आजीविका प्राप्त कर रहे हैं, तो कहीं पर कृषि एवं पशुपालन से स्पष्ट है कि क्षेत्रीय भिन्नताओं ने समाज में विषमरसता बढ़ाई है। इन क्षेत्रीय विविधताओं के बावजूद भी सम्पूर्ण देश भौगोलिक दृष्टि से एक इकाई का निर्माण करता है।

भारत में क्षेत्रीय असमानताएँ

भारतीय समाज एक अति प्राचीन समाज है। इतिहासज्ञों ने इस समाज का लगभग पिछले 5000 वर्षों का इतिहास लिपिबद्ध किया है। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में भारतीय समाज को हम चार कालों में विभाजित कर सकते हैं- प्राचीन काल (लगभग 3000 ईसा पूर्व से 700 ई0 तक), मध्यकाल (701 ई0 से 1750 ई0 तक), आधुनिक काल (1751 से 1947 ई० तक) एवं समकालीन काल (1947 ई0 से आज तक)। यह काल विभाजन विश्लेषण की सरलता की दृष्टि से किया गया है अन्यथा काल-प्रवाह को किसी भी तरह निश्चित अवधियों में नहीं बांटा जा सकता क्योंकि प्रत्येक युग में पिछले युग के तत्व के भी सम्मिलित होते हैं और वह भावी युग की सम्भावनाओं को अपने में समाये होता है।

प्राचीन भारत का लगभग 4000 वर्ष का इतिहास एक दीर्घकालीन सांस्कृतिक विकास की प्रक्रिया को प्रकट करता है जिसमें भारतीय समाज की मूल परम्पराएँ पूर्ण रूप से विकसित हुई। वैदिक संस्कृति के इसी युग में हिन्दू सामाजिक संगठन की संस्थागत आधारशिला एवं वैचारिक मान्यताएँ भी विकसित हुई। वर्ण व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था, जाति व्यवस्था, पितृसत्ता, लिंग विभेदीकरण तथा ग्राम प्रधानता हिन्दू सामाजिक संगठन की प्रमुख संस्थागत आधारशिलाएँ हैं। धर्म, कर्म, पुनर्जन्म, पुरुषार्थ तथा संसारेतर विश्व इसकी प्रमुख वैचारिक मान्यताएँ हैं। मध्यकाल तथा आधुनिक काल में इन संस्थागत आधारशिलाओं में काफी परिवर्तन हुआ है। परन्तु इनका महत्व, किसी न किसी रूप में, समकालीन भारतीय समाज में भी पाया जाता है। भारत की भौगोलिग परिस्थिति ने इसके इतिहास के निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाई है।

के०एम० पाणिक्कर के शब्दों में- “भारत के भूगोल, इसके प्राकृतिक संकुल, इसके पर्वतों और नदियों ने किसी अन्य देश की अपेक्षा भारत के इतिहास को कहीं अधिक मात्रा में प्रभावित किया है।” उत्तर में अभेद्य हिमालय की ऊँची पर्वतमालाएँ इसकी प्रहरी रही हैं जो इसे एशिया महाद्वीप से पृथक करती हैं। दक्षिण में एक पठारी हिस्सा है जो तीन तरफ से हिन्द महसागर से घिरा हुआ है। पश्चिम में अरब सागर एवं पूर्व में बंगाल की खाड़ी के नाम से यही महासागर भारत के सामुद्रिक महत्व को अति प्राचीन काल से बनाए हुए है। इस भाँति प्रारम्भिक काल से ही भारत एक पृथक् भू-भाग रहा है जिसने उनके

निजी जीवन एवं सभ्यता के विकास में बहुत योगदान दिया है। भारत का विशाल आकार इसे एक उपमहाद्वीप की संज्ञा दिया जान तर्कसंगत बनाता है। इसी प्रकार, भारतीय उपमहाद्वीप की प्राकृतिक विविधता ने भी भारतीय समाज के निर्माण में अपनी भूमिका निभायी है। प्रत्येक प्रकार की जलवायु के दर्शन यहाँ होते हैं। राजपूताना के तपते हुए रेगिस्तान, हिमालय की सदा बर्फ से ढकी रहने वाली उच्च चोटियाँ, गंगा-यमुना का बहुत बड़ा मैदान, बंगाल और मालाबार की ट्रोपिकल जलवायु एवं दक्षिणी पठार की सूखी पहाड़ियों वाली भूमि ने इसे सामाजिक विविधता प्रदान की है। मूल रूप से भारतीय मनीषी भारत की दो देशों के रूप में कल्पना करते थे- एक उत्तरी भारत जिसे आर्यावर्त कहा जात है।

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और दूसरा विन्ध्याचल पर्वत से पार दक्षिणा पथ कहलाता था। बाद में अगस्त्य ऋषि ने विन्ध्याचल को पार किया और पूरे दक्षिणा पथ को आर्य संस्कृति के साथ बाँधने का प्रयास किया। राम का वन गमन भी इस सांस्कृतिक एकीकरण का प्रयास कहा जा सकता है। तभी तो हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक सम्पूर्ण भारत की अवधारणा भारतीयों के जन मानस में सदा से रही है।

भारत में क्षेत्रीय असमानताएँ काफी समय से विद्यमान रही हैं। स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय भारत की अर्थव्यवस्था गतिहीन (स्थिर) थी। अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि-प्रधान थी तथा औद्योगिक विकास बहुत कम था। 84 प्रतिशत जनसंख्या अशिक्षित थी, जनस्वास्थ्य सेवाएँ कम होने के कारण महामरियों का प्रकोप था, मर्त्यता दर 1000:27 थी, बच्चे भूखे रोते थे तथा भुखमरी के कारण अनेक • व्यक्तियों की मृत्यु हो जाती थी। इसीलिए स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् 1950 ई0 में योजना आयोग की

स्थापना के साथ हो भारत में नियोजित परिवर्तन का दुग शुरु हुआ। पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा भारत के विकास की और विशेष ध्यान दिया जाने लगा। आज भारत का स्थान पहले दस औद्योगिक देशों में है। राष्ट्रीय नियोजन की प्रक्रिया द्वारा भारत में क्षेत्रीय असमानताओं को दूर करने वाली योजनाओं को प्राथमिकता प्रदान की जाती है। पिछड़े क्षेत्रों में उद्योग लगाने हेतु विशेष सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं। परन्तु इन प्रयासों से आशातीत सफलता नहीं मिल पाई है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भौगोलिक विविधता के परिणामस्वरूप भारत के सभी क्षेत्रों एवं प्रान्तों का विकास एक समान रूप से नहीं हुआ। है।

इससे भारत में अनेक प्रकार को क्षेत्रीय भिन्नताएँ विकसित हो गई हैं जिनके परिणामस्वरूप अनेक समूहों में निराशा एवं हताशा की स्थिति पैदा हो गई है। आर्थिक विकास के लक्ष्य को प्राप्त करते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि क्षेत्रीय असमानताओं एवं सामाजिक असमानताओं को कम-से-कम किया जा सके। इस लक्ष्य की प्राप्ति में राज्य की विशेष भूमिका होती है। भारत में आर्थिक विकास क्षेत्रीय असन्तुलन को कम करने में सफल नहीं हो पाया है जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न क्षेत्रों में जीवन प्रत्याशा, साक्षरता, आय एवं निर्धनता पर्यावरणीय प्रभाव तथा प्राथमिक सेवाओं की दृष्टि से विभिन्न क्षेत्रों एवं प्रान्तों में काफी असमानताएँ स्पष्टतया परिलक्षित होती है। प्राथमिक सेवाओं में स्वास्थ्य, शिक्षा, पानी, स्वच्छता एवं ऊर्जा इत्यादि को सम्मिलित किया जाता है। भारत में पाई जाने वाली आर्थिक असमानताओं को निम्नलिखित तथ्यों द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है

(1) विभिन्न राज्यों में साक्षरता दर में कफी अन्तर पाया जाता है। 2001 ई० को जनगणना के अनुसार एक तरफ ऐसे राज्य है जिनमें साक्षरता दर तीन-चौथाई से भी अधिक है, जबकि दूसरी और ऐसे राज्य हैं जिनमें केवल आधी जनसंख्या ही साक्षर है। उदाहरणार्थ एक और केरल में साक्षरता दर 90-92, मिजोरम में 88.9, लक्षद्वीप में 87.52, गोवा में 82-32, दिल्ली में 81.82, चण्डीगढ़ में 81. 49,अण्डमान एवं निकोबार द्वीप समूह में 81.18, दमन और दीव में 81.09 है, तो दूसरी ओर बिहार में यह केवल 47.53, झारखण्ड में 54.13, जम्मू व कश्मीर में 54-46, अरुणाचल प्रदेश में 54.74 उत्तर प्रदेश में 57.36 है।

(2) आर्थिक विकास की दृष्टि से बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तरांचल तथा उत्तर प्रदेश पिछड़े हुए है। इनमें प्रति व्यक्ति आय काफी कम है जिसके परिणामस्वरूप लाखों व्यक्ति ऐसे हैं जो निर्धनता, कुपोषण, अस्वास्थ्य एवं अशिक्षा की दशाओं में अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। दिल्ली, पंजाब तथा हरियाणा जैसे राज्यों में प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय आय की तुलना में काफी अधिक है। आज भी मणिपुर, बिहार, उड़ीसा, त्रिपुरा तथा उत्तर प्रदेश आर्थिक दृष्टि से भारत के पिछड़े राज्य हैं, जबकि दिल्ली के अतिरिक्त छह अन्य राज्य आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हैं। इन राज्यों में महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, पंजाब, गुजरात, तमिलनाडु तथा हरियाणा सम्मिलित हैं।

(3) सम्पूर्ण देश में सम्पत्ति का अत्यन्त असमान वितरण पाया जाता है। भारत की कुल सम्पत्ति का 99 प्रतिशत केवल 3 प्रतिशत जनसंख्या के हाथों में केन्द्रित है।

(4) आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न तमिलनाडु, महाराष्ट्र, दिल्ली और गुजरात जैसे राज्यों में देश के अन्य राज्यों की तुलना में औद्योगिक विकास भी अधिक हुआ है, जबकि पंजाब तथा हरियाणा में कृषि सम्बन्धी विकास अन्य राज्यों की तुलना में कहीं अधिक हुआ है।

(5) मर्त्यता दर की दृष्टि से भारत के विभिन्न क्षेत्रों में असमानता स्पष्ट देखी जा सकती है। उदाहरणार्थ- 1996 ई० में केरल जैसे राज्य में शिशु मर्त्यता दर (1000 शिशुओं पर) केवल 13 थी, जबकि मध्य प्रदेश जैसे राज्य में यह 97 थी। लिंग अनुपात की दृष्टि से भी इन राज्यों में स्त्रियों का अनुपात पुरुषों की तुलना में कहीं कम होता जा रहा है।

(6) लैंगिक हिंसा की दृष्टि से भी भारत के विभिन्न प्रान्तों में काफी अन्तर पाया जाता है। तमिलनाडु, राजस्थान तथा पंजाब जैसे राज्यों में शिशु मर्त्यता दर काफी अधिक है। लिंग परीक्षण के पश्चात् लड़की होने पर गर्भपात करा देने की घटनाएँ हरियाणा तथा पंजाब जैसे अमीर व आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न प्रान्तों में बढ़ रही हैं।

क्षेत्रीय असमानताएँ निर्धन राज्यों में रहने वाले लोगों में निराशा एवं हताशा की स्थिति विकसित कर देती है। उन्हें लगता है कि सरकार उनके साथ न्याय नहीं कर रही है। इससे देश में असंगति की स्थिति विकसित होने का खतरा रहता है। यद्यपि भारत सरकार क्षेत्रीय असमानताओं को दूर करने हेतु प्रयासरत है, तथापि इसमें सफलता नहीं मिल पा रही है। उद्योगपति भी अविकसित क्षेत्रों मैं उद्योग एवं पूंजी लगाने से डरते हैं।

सरकार द्वारा दिए जाने वाले प्रोत्साहन भी अविकसित क्षेत्रों को विकसित क्षेत्ररों में परिवर्तित करने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। यह क्षेत्रीय असन्तुलन प्रवसन जैसी समस्याएँ विकसित कर देता है। अतः सरकार का यह दायित्व है कि वह ऐसी योजनाओं को प्राथमिकता दे जिनसे क्षेत्रीय असन्तुलन कम हो सके ।।

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