समाज का शिक्षा का प्रभाव
समाज का शिक्षा का प्रभाव प्रत्येक समाज अपनी मान्यताओं एवं आवश्यकताओं के अनुकूल ही अपनी शिक्षा की व्यवस्था करता है और समाज की मान्यताएँ एवं आवश्यकताएँ उसकी भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनैतिक और आर्थिक स्थिति पर निर्भर करती है। समाज में होने वाले परिवर्तन भी उसके स्वरूप एवं आवश्यकताओं को बदलते हैं और उनके अनुसार उसकी शिक्षा का स्वरूप भी बदलता रहता है। यहाँ इस सबका वर्णन संक्षेप में आगे प्रस्तुत है।
ग्रामीण एवं नगरीय जीवन में भेद स्पष्ट कीजिए।
1. समाज की भौगोलिक स्थिति और शिक्षा – किसी भी समाज का जीवन और उसकी भौगोलिक स्थिति से प्रभावित होता है। तब उसकी शिक्षा भी उससे प्रभावित होनी स्वाभाविक है। जिन समाजों की भौगोलिक स्थिति ऐसी होती है कि उनमें मनुष्य को जीवन रक्षा के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ता है, उनमें अधिकतर व्यक्तियों के पास शिक्षा के लिए न समय होता है और न धन, परिणामतः उनमें जन शिक्षा की व्यवस्था नहीं होती और शिक्षा भी सीमित होती है। इसके विपरीत जिन समाज की भौगोलिक स्थिति मानव के अनुकूल होती है और प्राकृतिक संसाधन भरपूर होते हैं। उनमें व्यक्तियों के पास शिक्षा के लिए समय एवं धन दोनों होते हैं. परिणामतः उनमें शिक्षा की उचित व्यवस्था होती है। यह तथ्य भी सर्वविदित है कि जिस देश में जैसे प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध होते हैं उसमें वैसे ही उद्योग धन्धे पनपते हैं और उन्हीं के अनुकूल यहाँ शिक्षा की व्यवस्था की जाती। है। कृषिप्रधान देशों में कृषि शिक्षा और उद्योगप्रधान देशों में औद्योगिक शिक्षा पर बल रहता है।
2.समाज की संरचना और शिक्षा – भिन्न भिन्न समाजों के स्वरूप मित्र-भित्र होते हैं। कुछ समाजों में जातियाँ होती है और जाति-मेद भी, कुछ में जातियाँ होती है परन्तु जाति-भेद नहीं हो और कुछ में जातियाँ ही नहीं होती। इसी प्रकार कुछ समाज में कुलीन और निम्न वर्ग भेद होता है. और कुछ समाजों में नहीं होता। समाज विशेष के इस स्वरूप का उसकी शिक्षा पर प्रभाव पड़ता है। अपने भारतीय समाज को ही लीजिए, जब इसमें कठोर वर्ग व्यवस्था थी तब शूद्रों को उच्च शि से वंचित रखा जाता था और आज वर्ण भेद में विश्वास नहीं किया जाता तो समाज के प्रत्येक वर्गी के लिए शिक्षा की समान सुविधाएँ उपलब्ध हराने का नारा बुलन्द है।
3.समाज की संस्कृति और शिक्षा – भित्र-भित्र अनुशासनों में संस्कृति को भित्र-भित्र अर्थ में देखा-समझा गया है परन्तु आधुनिक परिप्रेक्ष्य में किसी समाज की संस्कृति से तात्पर्य उसके रहन सहन एवं खान-पान की विधियों, व्यवहार प्रतिमानों आचार-विचार, रीति-रिवाज, कला-कौशल, संगीत-नृत्य, भाषा-साहित्य, धर्म-दर्शन, आदर्श-विश्वास और मूल्यों के उस विशिष्ट रूप से होता है। जिसमें उसकी आस्था होती है और जो उसकी अपनी पहचान होते हैं। किसी समाज की शिक्षा पर सर्वाधिक प्रभाव उसकी संस्कृति का ही होता है। किसी भी समाज की शिक्षा का उद्देश्य उसके धर्म दर्शन, आदर्श-विश्वास और उसकी आकांक्षाओं के आधार पर ही निश्चित किए जाते हैं, उसकी शिक्षा की पाठ्यचर्या में सर्वाधिक महत्व उसके भाषा-साहित्य और धर्म-दर्शन को दिया जाता है और शिक्षा संस्थाओं में यथा व्यवहार प्रतिमानों को अपनाया जाता है।
4.समाज की आर्थिक स्थिति और शिक्षा – यूँ धर्म संस्कृति का अंग होता है परन्तु यहाँ इसको अलग से इसलिए लिया गया है कि प्रारम्भ से ही शिक्षा पर धर्म का सबसे अधिक प्रभाव रहा है। दूसरी बात यह है कि अब धर्म के विषय में विद्वानों के भिन्न-भित्र मत हैं, कुछ उसे शिक्षा का आधार मानने के पक्ष में हैं और कुछ शिक्षा को धर्म से दूर रखने के पक्ष में हैं। धर्म की दृष्टि से समाजों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- एक वे जिनमें धर्म विशेष को माना जाता है और दूसरे वे जिनमें अनेक धर्मों का प्रचलन होता है। इन समाजों की शिक्षा व्यवस्था मित्र-मित्र होती है। धर्म विशेष को मानने वाले समाजों की शिक्षा में उनके अपने धर्म की शिक्षा को स्थान दिया जाता है, जैसे- मुस्लिम राष्ट्रों में दूसरे प्रकार के समाजों में किसी धर्म विशेष की शिक्षा देना सम्भव नहीं होता, उनमें उदार दृष्टिकोण अपनाया जाता है, जैसे अपने देश भारत में कुछ समाजों में धर्म शिक्षा को स्थान ही नहीं दिया जाता, जैसे रूस में।
5.समाज की राजनैतिक स्थिति और शिक्षा – समाज की राजनैतिक स्थिति भी उसकी शिक्षा को प्रभावित करती है। उदाहरण के लिए, एकतन्त्र शासन प्रणाली वाले देशों में शिक्षा के द्वारा अन्धे राष्ट्रभक्त तैयार किए जाते हैं, जबकि लोकतन्त्र शासन प्रणाली वाले देशों में शिक्षा के द्वारा व्यक्ति को स्वतन्त्र चिन्तन और स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के लिए तैयार किया जाता है। इसके साथ-साथ एक बात और है और वह यह कि जो समाज राजनैतिक दृष्टि से सुरक्षित होता है उसकी शिक्षा के उद्देश्य व्यापक होते हैं और जिस समाज में राजनैतिक दृष्टि से असुरक्षा होती है वह केवल सैनिक शक्ति और उत्पादन बढ़ाने पर बल देता है।
6.समाज की आर्थिक स्थिति और शिक्षा – समाज की आर्थिक स्थिति भी उसकी शिक्षा को प्रभावित करती है। आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न समाजों की शिक्षा बहुउद्देशीय होती है ये अपने प्रत्येक सदस्य के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करते हैं, उन शिक्षा का प्रसार करते हैं। और इस सबके लिए अनेक साधन जुटाते हैं; जैसे अमेरिका प्रगतिशील समाज जन शिक्षा और व्यवसायिक शिक्षा पर अधिक बल देते हैं; जैसे- भारत आर्थिक दृष्टि से पिछड़े समाज न अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की बात सोच पाते हैं, न जन शिक्षा की ओर न व्यावसायिक शिक्षा की जैसे बांग्लादेश समाज का अर्थतन्त्र भी उसकी शिक्षा को प्रभावित करता है। कृषिप्रधान अर्थतन्त्र में शिक्षा की सम्भावनाएं कम होती हैं, वाणिज्यप्रधान में अपेक्षाकृत उससे अधिक और उद्योगप्रधान में सबसे अधिक
7.सामाजिक परिवर्तन और शिक्षा – हम जानते हैं कि समाज परिवर्तनशील है। संसार का इतिहास इस बात का साक्षी है कि समाज के साथ-साथ उसकी शिक्षा का स्वरूप भी बदलता है। अपने भारतीय समाज को ही लीजिए। प्राचीन काल में इसकी भौतिक आवश्यकताएँ कम थीं और आध्यात्मिक पक्ष प्रबल था इसलिए शिक्षा के क्षेत्र में धर्म और नीतिशास्त्र की शिक्षा पर अधिक बल दिया जाता था परन्तु आज उसकी भौतिक आवश्यकताएँ बढ़ गई है और आध्यात्मिक पक्ष निर्बत पड़ गया है इसलिए शिक्षा में विज्ञान एवं तकनीकी को अधिक महत्व दिया जाने लगा है। कल तक नारियाँ केवल गृहिणी के रूप में रहती थी। इसलिए उन्हें केवल लिखने-पढ़ने एवं घरेलू कार्यों की शिक्षा दी जाती थी, आज ये पुरुष के साथ कंधा मिलाकर हर क्षेत्र में कार्य करती हैं अतः उनके लिए पुरुषों की भाँति सभी प्रकार की शिक्षा मुलम है। जब कभी सामाजिक क्रान्ति होती है तो यह शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन कर देती है।
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