समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य का तात्पर्य / अर्थ
समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य का तात्पर्य / अर्थ अंग्रेजी भाषा में “पर्सपेक्टिव शब्द का प्रयोग परिप्रेक्ष्य के लिए किया जाता है, ज लैटिन भाषा के (पर्सपेक्ट) शब्द से बना है जिसका तात्पर्य (अर्थ) ऊपर से नीचे तक देखन होता है। इस प्रकार परिप्रेक्ष्य का शाब्दिक अर्थ एक सिरे से दूसरे सिरे तक देखना या निरीक्षण करना है। समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य के सन्दर्भ में इसका अर्थ प्रारम्भ से लेकर अन्त तक अन्वेषण करना है। जब कोई वैज्ञानिक अपने विषय के विशिष्ट उद्देश्य को ध्यान में रखकर किसी घटना, तथ्य अथवा सामाजिक वास्तविकता का अध्ययन एक विशेष दृष्टिकोण से करता है, तो वह उस विषय का “परिप्रेक्ष्य” कहलाता है।
परिभाषा –समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य को परिभाषित करने वाले विचारकों में थियोडोरसन का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है।
थियोडोरसन के अनुसार, “मूल्य विश्वास अभिवृत्ति तथा अर्थ, व्यक्ति को संदर्भ एवं दृष्टिकोण उपलब्ध कराते हैं, जिनके अनुसार वह परिस्थिति का निरीक्षण अथवा अवलोकन करता है, परिप्रेक्ष्य कहलाता है।” आपके मतानुसार परिप्रेक्ष्य और संदर्भ-परिधि एक-दूसरे के साथ घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं तथा परिप्रेक्ष्य को उचित रूप से समझने हेतु संदर्भ-परिधि को समझ लेना भी आवश्यक है। उनके ही शब्दों में “किसी बिन्दु के दृष्टिकोण, मानदण्ड अथवा अवधारणाओं की व्यवस्था को लेकर कोई व्यक्ति अथवा समूह अपने अनुभव, ज्ञान एवं व्याख्याओं को संगठित करता है, तो उसे ही सन्दर्भ-परिधि कहा जाता है।” व्यक्ति के मूल्य और सामाजिक प्रतिमान सामाजिक परिस्थिति में उसके अवलोकनों तथा निर्णयों को प्रभावित करते हैं, जिनको हम “संदर्भ-परिधि” के नाम से पुकार सकते हैं।
जॉर्ज ए. लुण्डबर्ग के अनुसार, “हमारी स्थापित आदतों की व्यवस्था ही सन्दर्भ परिधि के निर्माण में योगदान करती है।” इलोय चिनॉय के अनुसार, “किसी भी विषय का परिप्रेक्ष्य उसमें प्रयोग होने वाली अवधारणाओं से ज्ञात की जाती है।”
गुडे एवं हैट के अनुसार, किसी घटना, स्थिति अथवा वस्तु का अलग-अलग ढंग से अध्ययन किया जा सकता है। उनके अनुसार किसी भी विषय अथवा विज्ञान की परिभाषा, अध्ययन का क्षेत्र, उसकी प्रकृति, सिद्धांत एवं अवधारणाएं आदि उसके परिप्रेक्ष्य को निश्चित करती हैं।
इस प्रकार सामाजिक दृष्टिकोण को ही समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य कहा जाता है। यह एक विशिष्ट दृष्टिकोण है जो अन्य विज्ञानों के दृष्टिकोण से सर्वथा भिन्न है।
समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य के प्रकार समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य को मुख्य रूप से दो भागों किया गया है, जिनका विवरण निम्नलिखित है
- वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य
- मानवीय/मानवतावादी परिप्रेक्ष्य
(2) मानवतावादी (मानविक) परिप्रेक्ष्य-समाजशास्त्र का स्वरूप 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप उत्पन्न हुई परिस्थितियों एवं समस्याओं के कारण बदलने लगी। इस समय मनोवैज्ञानिक तत्वों को प्रधानता देते हुए अमेरिकी समाजशास्त्रियों ने मनुष्य को इच्छा, उद्देश्य, भावना और बुद्धि आदि के रूप में परिभाषित करना प्रारम्भ किया। उन्होंने व्यक्तियों को नवीन व्यावसायिक संरचना हेतु तैयार रहने की प्रेरणा भी दी। अमेरिकी समाजशास्त्रियों ने उन सामाजिक समस्याओं के प्रति लोगों को आकृष्ट किया “जो औद्योगिकरण, नगरीकरण और प्रवास के कारण उत्पन्न हुयीं।
इस प्रकार के बदलते हुए सामाजिक परिवेश ने समाजशास्त्र में मानवतावादी परिप्रेक्ष्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। मानवतावादी परिप्रेक्ष्य समाजशास्त्र में उन उपागमों की ओर इंगित करता है, जो समाज को इसमें रहने वाले व्यक्तियों के दृष्टिकोण में समझना चाहते हैं। स्पष्ट है कि मानवतावादी परिप्रेक्ष्य समाजशास्त्र के पारम्परिक “प्रत्यक्षवादी / वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य के विपरीत है। समाजशास्त्र में प्रत्यक्षवादी या वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य को सर्वप्रथम चुनौती यूरोप में गत शताब्दी के अन्त में डिल्थे द्वारा आनुभाविक परम्परा के विरोध में दी गयी थी। सामाजिक विज्ञानों में यह चुनौती आनुभविक एवं प्रत्यक्षवादी परम्पराओं को दी गयी थी, जिसमें कॉम्टे एवं दुर्खीम भी सम्मिलित हैं।
प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् चार्ल्स कूले ने अमेरिका में डिल्थे के सदृश दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। अपने मत में कूले ने समाजशास्त्र को प्रत्यक्षवादी के स्थान पर आनुभविक दृष्टिकोण से परिभाषित किया। अपनी आनुभविक कमियों को दूर करने के लिए कूले को अमेरिका में ही समाजशास्त्री तथ्यों का संकलन करने लगा। क्योंकि इस समय सिद्धांत अधिक एवं तथ्य बहुत कम थे। 1920 से 1940 के मध्य अमेरिका में आनुभविक समाजशास्त्र की गति अत्यन्त तीव्र रही। परिवारों, समुदायों, अपराध, बालापराध, सामाजिक परिवर्तन, विचलित व्यवहार और जनसंख्यादि सम्बन्धी अनेक अध्ययन किये गये।
इस समय में वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य के अनुरूप चैपिन, ऑग्बर्न, बर्नार्ड एवं राइस आदि समाजशास्त्रियों ने प्रयोगों से नियंत्रित क्षेत्रीय अध्ययनों और तथ्यों की सांख्यिकीय समीक्षा आदि पर पर्याप्त बल दिया। इसके विपरीत पार्क, थॉमस, लिन्ड्स आदि ने मानववादी वैयक्तिक अध्ययन एवं सहभागी अवलोकन उपागमों पर विशेष ध्यान दिया। इस पर भी उनके अध्ययन मुख्यतः तथ्याधारित ही थे। इसी अवधि में “नव प्रत्यक्षवाद” का लुण्डबर्ग, हार्ट, बेन आदि ने खुलकर समर्थन किया। इन समाजशास्त्रियों ने वस्तुपरक माप, प्रचालनता और निगमनात्मक सिद्धांत पर विशेष बल दिया। किन्तु इस नव प्रत्यक्षवाद का विरोध कार्ल, मैनहीम और गुरुविच जैसे मानववादियों ने किया।
मानविकी परिप्रेक्ष्य पिछले कुछ दशकों में विज्ञान वादिता पर अत्यधिक जोर दिये जाने के कारण उसकी प्रतिक्रिया के रूप में उभर कर स्पष्ट रूप से सामने आया। इस परिप्रेक्ष्य को लेकर चलने वाले समाजशास्त्रियों ने उन वर्गों, समूहों एवं व्यक्तियों के अध्ययन पर विशेष बल दिया, जिन्हें व्यवस्था द्वारा कोई संरक्षण नहीं प्राप्त हुआ था। ऐसे उपेक्षितों के अध्ययन की अनुपस्थिति में समाजशास्त्रीय ज्ञान अधूरा और अपूर्ण रहेगा।
यहां पर हमारा ध्यान इस ओर आकृष्ट किया गया है कि जहाँ समाजशास्त्र में अधिकांश लोगों का अध्ययन आवश्यक है, वहीं उपेक्षित व्यक्तियों, वर्गों और समूहों आदि का अध्ययन भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसीलिए मानविकी/मानवीय परिप्रेक्ष्य को दृष्टि में रखते हुए आगे बढ़ने वाले समाजशास्त्रियों का कथन है कि वैयक्तिक पक्षों का अध्ययन किया जाना अत्यावश्यक है।
मानववाद- मानविकी परिप्रेक्ष्य में मानववाद की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसलिए मानववाद की स्पष्ट जानकारी मानवीय परिप्रेक्ष्य के संदर्भ में आवश्यक है। “मानववाद” पर हमें सैद्धांतिक पद्धतिशास्त्रीय और सक्रियवादी दृष्टिकोण से विचार करना समीचीन होगा। सैद्धांतिक दृष्टिकोण से मानववाद समाजशास्त्र की मानववादी विषय-वस्तु पर बल देता है, जिसमें जटिल एवं परिवर्तनीय आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों के अर्थों तथा मूल्यों पर ध्यान दिया जाता है। पद्धतिशास्त्रीय दृष्टिकोण से मानवीय परिप्रेक्ष्य को मानने वाले समाजशास्त्री विज्ञान
को अत्यन्त कठोर और अति संयमी पद्धति को आवश्यक नहीं मानते, उसे लाभकारी नहीं समझते। वे अधिक ढीले रूप में संयुक्त पद्धतियों, यथा-सहभागिक निरीक्षण/अवलोकन एवं प्रघटनशास्त्रीय उपागमों का समर्थन करते हैं जो कि सामाजिक जीवन और अन्यान्य प्रघटनाओं में गुणात्मक अन्तर को मान्यता प्रदान करते हैं। इस मत के प्रमुख समर्थक है-गारफिकल, लसर, स्ट्रास, जोबर्ग एवं नेट आदि। इस नये परिप्रेक्ष्य के अन्तर्गत यह भी माना जाने लगा कि समाजशास्त्र को “मानव दशा” के अनुरूप प्रासंगिक होना चाहिये। इस दृष्टिकोण के समर्थका का। कहना है कि “मनुष्य समाज के सामाजिक प्राणी नहीं है, बल्कि प्राणी के लिए है।”
मानववादी समाजशास्त्रियों के अंतर्गत वे सम्मिलित है, जो कि स्वयं को अत्यन्त संवेदनशील मानव, अवलोकनकर्ता, भागीदार और पूर्णतः बुद्धिजीवी मानते हैं। इनकी मान्यता है कि समाजशास्त्रियों का मुख्य दायित्व अपने-आप को दैनिक जीवन की समस्याओं व मामलों में लगाना है, भले ही वे मामले/समस्याएं नैतिक, राजनैतिक अथवा सौन्दर्य-बोध से सम्बन्धित हो। मानववादी समाजशास्त्रियों का मुख्य जोर दैनिक घटनाओं में सम्मिलित होने पर है। मानविकी परिप्रेक्ष्य में नैतिक तटस्थता को उचित नहीं माना जाता।
समाजशास्त्र की विषय वस्तु का विवेचना कीजिए।
विशेषताएं-मानविकी परिप्रेक्ष्य की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित है
(1) इस परिप्रेक्ष्य में अध्ययन करने के लिए एक ऐसी पद्धति का आश्रय लिया जाता है, जो कि वास्तविकता के अधिकाधिक समीप हो, यथा-सहभागी अवलोकन/निरीक्षण, पत्र आत्मकथा, जीवनियाँ आदि।
(2) मानविकी परिप्रेक्ष्य में स्वयं व्यवस्था और साथ ही व्यवस्था के पोषकों के प्रति विरोधी दृष्टिकोण को अपनाया जाता है।
(3) परिप्रेक्ष्य में मात्र समाज के अध्ययन पर बल नहीं दिया जाता, बल्कि व्यक्ति के अध्ययन को विशेष महत्व प्रदान किया जाता है, क्योंकि व्यक्ति ही समाज का वास्तविक निर्माता है।
(4) इस परिप्रेक्ष्य के अन्तर्गत यह स्वीकार किया जाता है कि सामाजिक यथार्थ स्थिर नहीं है, अतः उसे निर्मित एवं पुनः निर्मित भी किया जा सकता है। इस कार्य को वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य के बजाय मानविकी परिप्रेक्ष्य अपनाकर ही किया जा सकता है।
(5) मानविकी परिप्रेक्ष्य में उपेक्षित और शोषित वर्ग, महिलाओं, बालापराधियों आदि के अध्ययन पर बल देकर समाजशास्त्रीय ज्ञान के उचित उपयोग की महता को स्पष्ट किया गया है।
(6) इस परिप्रेक्ष्य के अनुसार अध्ययनकर्ता स्वयं को सभी प्रकार के पूर्वाग्रहों अथवा पूर्व ●स्थापित मान्यताओं से पूर्णतः मुक्त रखता है, ताकि नव-निर्मित सामाजिक यथार्थ की तटस्थता / निष्पक्षता का अध्ययन और परीक्षण किया जा सके।
(7) मानविकी परिप्रेक्ष्य वैज्ञानिकवाद, प्रत्यक्षवाद, आनुभविकता, गणनात्मक तथ्यों आदि पर आवश्यकता से अधिक बल दिये जाने के विरोध स्वरूप विकसित हुआ अर्थात् यह वैज्ञानिक पद्धति की कठोरता के विपरीत अथवा विरुद्ध है।
(8) इसके अन्तर्गत सामाजिक यथार्थ को ठीक से समझने के लिए वस्तुनिष्ठ स्थान पर विषयनिष्ठ अध्ययन पर अधिक जोर दिया जाता है। अतिलघु एवं लघुउत्तरीय प्रश्न
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