समकालीन भारतीय समाज में जातिवाद की समस्या गंभीरतम स्तर पर पहुँच चुकी है। सामान्य शब्दों में जातिवाद से हमारा अभिप्राय उस मानसिकता, भावना व व्यवहार से हैं जिसमें कोई व्यक्ति विशेष या जाति समूह विशेष अपने ही जाति के सदस्यों को अन्य जातियों की तुलना में पूर्ण धारणा के अनुसार ज्यादा महत्व देता है। प्रायः अन्य जाति से घृणा की भावना भी रखता है। स्पष्ट है कि जातिवाद की भावना भी संकीर्ण मनोवृत्ति की परिचायक है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था में जाति के कुछ प्रकार्य निर्धारित किए गए हैं जो समाज के लिए आवश्यक माने जाते हैं। इन निर्धारित प्रकार्यों की परिधि में किए गए जातिगत व्यवहार जातिवाद नहीं कहे जा सकते। इसके विपरीत जाति के कुछ प्रकार्य नहीं हैं जो आधुनिक समाज में भी अकार्य है। अन्य शब्दों में जाति से हमारा आशय उस संकीर्ण मनोवृत्ति से हैं जिससे प्रेरित होकर लोग अपनी जाति को प्रमुखता तथा अन्य जाति के साथ घृणा या निम्रता की भावना रखते हैं।
जाति तथा जातिवाद- ये दोनों पूर्णत: भिन्न-भिन्न अवधारणाएँ हैं। जाति एक मानव समूह है जबकि जातिवाद एक भावना है। स्पष्ट है कि जाति एक मूर्त अवधारणा है जबकि जातिवाद अमूर्त अवधारणा है। जाति हिन्दू समाज की एक संस्था है जबकि जातिवाद एक समस्या है। जाति, जातिवाद से प्राचीन संस्था है। जाति के अन्तर्गत जन्म का विचार निहित है जबकि जातिवाद में आधारभूत रूप में जाति सम्मान व श्रेष्ठता की भावना निहित है।
जातिवाद की परिभाषा
श्री के० एम० पाणिकर के अनुसार- “राजनीति की भाषा में उपजाति के प्रति निष्ठा की भावना ही जातिवाद है।”
श्री के० एम० पाणिकर के अनुसार
काका केलकर के अनुसार- “जातिवाद एक अबाधित अन्ध और सर्वोच्च समूह भक्ति है, जो कि न्याय, औचित्य, सामान्तः और विश्व बन्धुत्व की उपेक्षा करती है।
काका केलकर के अनुसार-
एन० प्रसाद के अनुसार- “जातिवाद राजनीति में परिणित जाति के प्रति निष्ठा है।”
एन० प्रसाद के अनुसार
जातिवाद के विकास के कारण
जातिवाद कोई नवीन समस्या नहीं है। इस प्रकार की समस्या प्रत्येक युग व प्रत्येक समाज में सदैव बनी रही है, कहीं वर्ग के नाम पर तो कहीं प्रजाति व प्रकृति के नाम पर। भारतीय समाज में जाति की संस्था की जड़ें अत्यन्त गहरी हैं और जातिवाद की समस्या जाति से भी ज्यादा परिपक्व प्रतीत होती है।
(1) जाति व्यवस्था– जाति की परम्परा स्वयं जातिवाद का सबसे बड़ा, मुख्य व आधारभूत कारण रहा है। जाति व्यवस्था समाज की व्यवस्था व आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बनाई गई थी, परन्तु इसके दुष्प्रभावों का ध्यान नहीं रखा गया। ऐसी व्यवस्था से क्या लाभ जो बाद में स्वयं ही जहर बन जाए। भारतीय समाज की विशिष्ट संस्था जाति एवं स्वयं जातिवाद की जननी कही जा सकती है।
(2) मानव प्रकृति- जाति प्रथा का विकास मानव प्रकृति के अनुरूप घटना है। मानव स्वाभावतः स्वार्थी व अहंकारी जानवर है और इसी प्रवृत्ति की वजह से यह अपनी ही जाति के अन्य लोगों के ऊपर शासन करने व शोषण करने से बाज नहीं आता है। अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए अपने जातिगत समूह की मदद लेता है और जातिवाद को बढ़ावा देता हैं।
(3) विवाह सम्बन्धी प्रतिबन्ध- भारतीय समाज में विवाह सम्बन्ध केवल स्वजाति में स्थापित करना अनुमोदित है। इससे विभिन्न जातियों के बीच सामाजिक व सांस्कृतिक दूरी बढ़ जाती है। इस कारण अतःक्रिया का अवसर कम मिल पाता है। प्रत्येक जाति की एक उप संस्कृति विकसित हो जाती है और अतंत: यह परिस्थितियाँ जातिवाद को बढ़ावा देती है।
(4) राजनीतिक कारण- भारत में आज प्रजातन्त्र के बजाय जातितन्त्र का वातावरण बना हुआ है। भारत की प्रजातन्त्रात्मक व्यवस्था व आधुनिक राजनीति ने जातिवाद को बढ़ावा दिया है। आधुनिक राजनीतिज्ञों ने विभिन्न जातियों को वोट बैंक बना रखा है। अनुसूचित जाति तथा जनजाति की संरक्षण नीति के पीछे इसी वोट बैंक की भावना निर्हित है।
(5) यातायात व संचार की सुविधाएँ- आधुनिक समय में यातायात व संचार के साथ मन में वृद्धि होने से जातिवाद को बढ़ावा मिला है। बिखरी हुई जातिगत समूहों के मध्य सम्पर्क स्थापित कि गया है, जाति परिषद का दायरा विकसित हुआ है। इससे अतिरिक्त पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से जातिय ने अपना विचारधारा को फैलाने का प्रयास किया है। एस०एम० श्रीनिवास भी इस निष्कर्ष पर पहुं है। हैं कि डाक व्यवस्था ने जातिवाद को मजबूत किया
जातिवाद के दुष्परिणाम
- जातिवाद की प्रक्रिया प्रजातन्त्र के प्रतिकूल है। जातिवाद प्रजातन्त्रात्मक एवं समतापरव मूल्यों का अपमान है।
- जातिवाद से अन्य समस्याएँ जैसे सम्प्रदाय, सामाजिक विघटन, सामाजिक तनाव मिलता है। भ्रष्टाचार, पक्षपात, अस्पृश्यता को बढ़ावा
- जातिवाद समाजवाद का विरोध तत्व है।
- जातिवाद कट्टरवाद व पिछड़ेपन का परिचायक होने के साथ-साथ देश की प्रगति व विकास में बाधक तत्व है।
- जातिवाद देश की एकता व अखण्डता के लिए खतरा है।
- जातिवाद औद्योगिक व प्रशासनिक कुशलता में भी बाधा डालता है।
- जातिवाद के बन्धन से व्यावसायों का खुलकर विकास नहीं हो पाता और प्रायः व्यवसाय लोगों के पूर्ण आजादी नहीं मिल पाती है।
- जातिवाद से सामाजिक गतिशीलता में रुकावट आती है।
- जातिवाद में शोषण की क्रिया डिपे तौर पर पाई जाती है।
- जातिवाद व्यक्तित्व के विकास में बाधक है।
- विदेशी कूटनीतिज्ञ जातिवाद व सम्प्रदायवाद के सहारे देश को प्रगति के मार्ग से हटाने (12) जातिवाद विभिन्न संस्कृतियों के आदान-प्रदान में बाधक है। नी व्यवस्था
- जातिवाद विभिन्न संस्कृतियों के आदान-प्रदान में बाधक है। यह जजमान व्यवस्था की भावना को नकारता है।
भारत में भाषायी विविधता का वर्णन कीजिए।
जातिवाद को दूर करने के उपाय
(1) नैतिक एवं राष्ट्रीय शिक्षा- जातिवाद की समस्या के समाधान हेतु सबसे उचित उपाय यह है कि लोगों की मानसिकता ही बदल दी जाय। इसके लिए नैतिक शिक्षा का प्रचार- प्रसार किया जाना चाहिए। शिक्षा इस प्रकार की होनी चाहिए कि लोगों में राष्ट्रीय चरित्र का विकास हो सके। राष्ट्रीय भवनों का विकास इस प्रकार का होना चाहिए कि जाति जैसे समूह को लोग द्वैतीयक और राष्ट्र को प्राथमिक मानने लगे।
(2) अन्तर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन- विडम्बना को बात है कि आज भी भारत में अन्य जाति में विवाह सम्बन्ध स्थापित करना पाप समझा जाता है। आज भारत में एक प्रतिशत विवाह भी अन्तर्जातीय विवाह नहीं है। वास्तविकता यह है कि ये तथाकथित अन्तर्जातीय विवाह भी प्रेम विवाह होते है। लोग अन्य जातीय में विवाह इस लिए नहीं करते हैं कि वे जातिगत बन्धन को दूर करना चाहते है बल्कि इसलिए करते हैं क्योंकि ये शारीरिक व अन्य पक्षों से आकर्षित होकर विवाह करते हैं और ये स्वा रचाते हैं कि मैंने तो अन्ततीय विवाह सम्बन्ध स्थापित किया है। आज इतना जरूर है कि प्रेम के सामने जाति के बन्धन को तोड़ने में लोग अब उनी हिचकिचाहट व विरोध नहीं महसूस करते जितना कि आज से एक दशक पहले हुआ करता था। सहशिक्षा इस प्रकार के विवाह के लिए सहायक पद्धति है।
(3) जाति संगठनों पर रोक- जाति संगठनों पर रोक लगना चाहिए, क्योंकि ये संगठन जाति की प्रथा एवं परम्परा को अनावश्यक रूप से तीव्रता के साथ क्रियान्वित करवाने का प्रयास करते हैं और जातिवाद को बढ़ावा देते हैं।
(4) औद्योगीकरण व नगरीकरण- इन प्रक्रियाओं के कारण जातिगत दूरी, खाने-पीने की पाबन्दी, वैवाहिक प्रतिबन्धों में शिथिलता आएगी और जातिवाद को रोका जा सकता है।
(5) कानूनी उपाय- जातिवाद की प्रथा को रोकने के लिए विभिन्न व उचित सामाजिक अधिनियमों को प्रतिपादित किया जाना चाहिए। जाति के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए। अनुसूचित जाति व जनजाति का आरक्षण जाति के आधार पर न करके आर्थिक स्थिति के आधार पर किया जाना चाहिए। अस्पृश्यता निवारण अधिनियम इस दिशा में सराहनीय कदम है।
(6) प्रचार- जातिवाद की बुराई से सामान्य जनता को अवगत कराया जाना चाहिए। मनोवैज्ञानिक व समाजशास्त्रियों की मदद से जातिवाद की क्रमियों तथा इसके निराकरण के लिए प्रचार किया जाना चाहिए। इसके लिए स्वस्थ्य जनमत का निर्माण किया जाना चाहिए।
(7) शुद्ध राजनीति आधुनिक भारत में राजनीति को अगर जातिवाद का एक मात्र निर्णायक कारण माना जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। भ्रष्ट व मूल्य विहीन राजनेताओं ने जातिगत भावनाओं को शोषित कर अपनी कुर्सी को सुनिश्चित करने का प्रयास किया है। जब तक देश की राजनीति में नैतिकता की भावना नहीं आएगी, जातिवाद जैसी समस्याएँ हमारे लिए सिरदर्द बनी रहेंगी।
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