संस्था का अर्थ एवं परिभाषा
संस्था का अर्थ सामाजिक नियमों तथा कार्यप्रणालियों की उस व्यवस्था का नाम है जो सामाजिक मूल्यों के अनुसार व्यक्तियों को अपने उद्देश्यों को पूरा करने की अनुमति देती है। कुछ विद्वानों ने संस्था की परिभाषा इस प्रकार दी है
वैयक्तिक और सामाजिक उद्देश्य एक दूसरे के पूरक है। इस कथन की व्याख्या कीजिए।
- (i) बोगार्डस- “सामाजिक संस्था समाज की वह संरचना होती है जिसे मुख्य रुप से सुव्यवस्थित विधियों द्वारा मनुष्यों की मुख्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संगठित किया जाता हैं।”
- (ii) रॉस-“सामाजिक संस्थाएँ संगठित मानवीय सम्बन्धों की वह व्यवस्था है जो सामान्य इच्छा द्वारा स्थापित या स्वीकृत होती है।”
- (iii) मैरिल व एलरिज- “सामाजिक संस्थाएँ आचरण के वे प्रतिमान हैं, जो मनुष्य की मुख्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए निर्मित हुए हैं।”
- (iv) मैकाइवर और पेज “सामूहिक क्रिया की विशेषता बतलाने वाली कार्य-प्रणाली के स्थापित रूप या अवस्था को ही हम संस्था कहते हैं।”
- (v) कूले- “संस्था सामाजिक विरासत के रुप में स्थापित और किसी अत्यन्त की मुख्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बनाया गया व्यवहारों का एक जटिल संगठन है।”
- (vi) जिन्सबर्ग- “संस्थाएँ सामाजिक प्राणियों के एक-दूसरे के प्रति या किसी बाहरी वस्तु के प्रति पारस्परिक सम्बन्धों के निश्चित एवं स्वीकृत सम्बन्धों के स्वरुप हैं।”
- (vii) आगबर्न एवं निमकॉफ- “सामाजिक संस्थाएँ कुछ आधार भूत मानवीय आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए संगठन एवं स्थायी प्रणालियों कहते हैं।”
- (viii) गिलिन और गिलिन- “सामाजिक संस्थाएँ कुछ सांस्कृतिक विशेषताओं को प्रकट करने वाले नियम हैं जिनमें काफी स्थायित्व होता हैं और जिनका कार्य सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करन होता है।”
संस्था की प्रमुख विशेषताएँ
संस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित है
- नियमों की व्यवस्था संस्था अनेक नियमों, कार्यविधियों तथा कार्य प्रणालियों की एक व्यवस्था है। यह कार्यविधियाँ बहुत से लिखित अथवा अलिखित नियमों, परम्पराओं तथा लोकाचार के रुप में होती हैं। नियमों तथा कार्यविधियों की इसी व्यवस्था के रूप में एक संस्था विभिन्न संगठनों की कार्यवाही को प्रभावित करती है।
- अमूर्त प्रकृति संस्था कोई स्थूल संगठन नहीं है। इसका निर्माण अनेक नियम तथा कार्यविधियों से होने के कारण अमूर्त होती है।
- स्थायित्व – स्थायित्व संस्था की प्रमुख विशेषता है। यह किसी भी समितियों तथा संघों की तुलना में अधिक अधिक स्थायी होती जै।
- अभिमति- प्रत्येक संस्था समाज से अभिमति या मान्यता प्राप्त होती है।
- प्रतीक- संस्थाओं का एक मुख्य लक्षण प्रतीक है। जिससे उनकी पहचान होती है। ये प्रतीक मूर्त एवं अमूर्त दोनों प्रकार के होते हैं।
संस्था के कार्य या महत्व
संस्था के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं
- आवश्यकता की पूर्ति – प्रत्येक संस्था किसी न किसी मानव आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही बनती है। संस्था मनुष्यों के लिए उद्देश्य पूर्ति का साधन है, स्वयं उद्देश्य नहीं।
- व्यवहार का नियन्त्रण – संस्था समूह की इच्छा और आज्ञा की प्रतीक होती है। उसका विरोध करना समूह का विरोध समझा जाता है, अतः प्रत्येक व्यक्ति उसके अनुसार व्यवहार करता है। ये जवीन के प्रत्येक क्षेत्र में मनुष्य की क्रियाओं को नियंत्रित करती है।
- एकरूपता- संस्थायें प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक निश्चित आचरण प्रदान करती है। हर स्थिति के लिए संस्था एक आदर्श व्यवहार निश्चित करती है। इस प्रकार समूह के सभी व्यक्तियों के व्यवहारों और क्रियाओं में एकरूपता दिखाई देती है।
- एकता – सामाजिक व्यवहार में एकरूपता आ जाने से समूह में एकता की भावना पैदा होती है। जब समूह के सभी सदस्य अपनी विशिष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति एक ही प्रकार से करते हैं, तो उनमें पारस्परिक एकता का भाव स्वयमेव उत्पन्न हो जाता है।
- संस्कृति का हस्तान्तरण– संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक संस्थाओं के माध्यम से ही हस्तांतरित होती है। संस्कृति के मौलिक तत्व संस्थाओं में होते हैं, अतः संस्कृति की निरन्तरता सामाजिक संस्थाओं पर ही निर्भर है।
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