शिक्षा के सामाजिक विकास सम्बन्धी कार्य-
शिक्षा का एक प्रमुख कार्य सामाजिक विकास का भी है। शिक्षा के सामाजिक विकास सम्बन्धी प्रमुख कार्य निम्नलिखित है
(1) सामाजिक चेतना का विकास-शिक्षा का सामाजिक कार्य उसकी सामाजिक संस्थाओं द्वारा पूरा होता है। शिक्षा के द्वारा सामाजिक भावना की जाति होती है। व्यक्ति समाज के कार्यों में भाग लेता है और उसे सफलतापूर्वक पूरा करता है। इसके मूल में मनुष्य की सामाजिक भावना छिपी रहती है जो सामाजिक जीवन के लिए प्रेरणा तथा इच्छा से पूरी होती है। यही कारण है कि मनुष्य विभिन्न आर्थिक, राजनीतिक संस्थाओं, विद्यालय, शिल्प संस्थाओं आदि का निर्माण करता है। शिक्षा का कार्य इन संस्थाओं को संगठित करके सामाजिक चेतना तथा परिवर्तन लाना है। कैन्डेल महोदय का कथन है-“ऐसी स्थिति में यह पुनर्निर्माण केवल एक नवीन सामाजिक व्यवस्था के अर्थ में नहीं होता है बल्कि इससे व्यक्ति को साधन मिलते हैं कि वह संसार को समझे, सभ्यता एवं संस्कृति के गुणों की एक रुचि एवं उत्तरदायित्वपूर्ण सामाजिक भावना से प्रशंसा करे।”
(2) सामाजिक परिवर्तन के कार्य-शिक्षा की व्यक्ति के समाजीकरण तथा सामाजिक परिवर्तन में भी महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। ड्रेवर के अनुसार, “समाजीकरण वह प्रक्रिया है। जिसके द्वारा व्यक्ति सामाजिक अनुरूपता प्राप्त कर अपने सामाजिक वातावरण के साथ अनुकूलन प्राप्त करता है तथा उस समाज का मान्य, सहयोगी तथा कुशल सदस्य बनता है।” बालक जिस समाज में जन्म लेता है, उसके रीति-रिवाज, आचरण, व्यवहार भाषा, बोल-चाल इत्यादि को ग्रहण कर लेता है। बालक के सामाजीकरण की यह प्रक्रिया अनुकरण, आत्मीकरण तथा सात्मीकरणा के माध्यम से पूर्ण होती है। इस प्रक्रिया में परिवार के अतिरिक्त विद्यालय की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसी प्रकार सामाजिक परिवर्तन में भी शिक्षा की महती भूमिका होती है। सामाजिक परिवर्तन के साथ ही सामाजिक नियंत्रण में भी शिक्षा का मुख्य योगदान रहता है। शिक्षा संयम और अनुशासन की सहचरी है। शिक्षा तथा सुअनुशासित विद्यार्थी सामाजिक नियंत्रण के सूत्रधार होते हैं। समस्त शैक्षिक प्रक्रियाएं सुअनुशासित परिवेश में ही सम्भव होती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं शिक्षा और समाज एक-दूसरे पर अवलम्बित है तथा परस्पर निर्भर है।
(3) स्वस्थ समाज के निर्माण का कार्य-शिक्षा समाज के सदस्यों को सुशिक्षित कर उन्हें पश्चिमी, चरित्रवान, सामाजिक गुणों से समलंकृत कर स्वस्थ्य समाज के सृजन में योग देती है। शिक्षा सामाजिक मूल्यों और आदर्शों की रक्षा और संवर्द्धन में योग देती है। शिक्षा समाज के सदस्यों में प्रेम, सहयोग, सहानुभूति जैसे मानवीय गुणों का विकास करने में योग देती है। संक्षेप में हम कह सकते हैं, शिक्षा समाज के सृजन, संगठन, संयोजन और विकास में महती भूमिका का निर्वहन करती है।
(4) सामाजिक कार्य कुशलता का विकास-लोकाभिमुख शिक्षा का प्रमुख कार्य सामाजिक कार्यकुशलता का विकास करना है। सामाजिक कार्य कुशल व्यक्ति वह जो स्वतंत्र रूप से अपना जीविकोपार्जन कर सके, शारीरिक श्रम का सम्मान कर सके और समाज तथा राष्ट्र की उन्नति में अपना दे सके।
शिक्षा का कौशल अधिग्रहण (Acquisition of skills) का कार्य
कौशल का अधिग्रहण, शिक्षा का एक प्रमुख कार्य है। कौशल का अधिग्रहण कहा जाए तो यह एक प्रकार का शिक्षण है जिसमें किसी विशेष कार्य को करने के लिए किसी व्यक्ति की क्षमता में परिवर्तन के परिणामस्वरूप पुनरावृत्ति होती है। इसे इस तरह से भी कह सकते हैं कि किसी भी व्यवहार को सीखने की आवश्यकता होती है। शिक्षा मनोविज्ञान के अन्तर्गत ‘सीखना’ एक अति महत्वपूर्ण विषय है, अतः मनोवैज्ञानिकों ने सीखने को वैज्ञानिक ढंग से परिभाषित करने का प्रयास किया है। इसीलिए सामान्यतः सीखने का आशय है ‘व्यवहार में परिवर्तन’, जो कि अभ्यास से बेहतर होता है। उसे एक कौशल माना जाता है। अधिगम या सीखना एक कौशल है। कुछ लोग जल्दी सीखते हैं और कुछ देर में सीखते हैं। सीखने का विषय शीघ्र अधिग्रमित कर लेते है यही कुशलता है। इन कौशलों में नवीन क्रिया, आदत, अनुभवों का उपयोग, ज्ञान तथा स्थानानतरण, स्मृति तथा अनुकूलन यह सभी देखें तो अधिगम कौशल ही है।
कौशक अधिग्रहण के चरण
कौशल अधिग्रहण के चरण निम्नलिखित हैं
(1) संज्ञानात्मक चरण – इस प्रारम्भिक चरण के अन्तर्गत लक्ष्य कौशल की समग्र समझ को विकसित किया जाता है। इसीलिए सीखने वाले को यह निर्धारित करना चाहिए कि कौशल का आखिर उद्देश्य है क्या। जब एक विद्यार्थी एक विशिष्ट प्रकार के कार्य के लिए नया होता है तो सबसे पहले प्राथमिक विचार की ही प्रक्रिया शुरू होती है कि क्या किया जाना चाहिए? विचारशील संज्ञानात्मक गतिविधि जरूरी है जिससे कि विद्यार्थी अपने वांछित लक्ष्य को पर्याप्त रूप से प्रतिबिम्बित करने के लिए उपयुक्त रणनीति को निर्धारित कर सके।
(2) साहचर्य चरण- इस अवस्था के अन्तर्गत सीखने वाला अभ्यास के माध्यम से अपने प्रदर्शन को करना शुरू करता है। जब वह कुछ अभ्यास को कर लेता है और इसी के साथ ही विभिन्न उत्तेजनाओं की पहचान कर लेता है तो वह अपने पहले चरण में “क्या करें” से लेकर आगे बढ़ जाता है।
(3) स्वायत्त चरण- सीखने के इस अंतिम चरण में सीखने के इस स्तर तक प्रगति सीखने वाले को पहले की तुलना में बहुत कम संज्ञानात्मक भागीदारी के साथ किसी भी वातावरण में कौशल का प्रदान करने की अनुमति देती है।
अतः देखा जाए तो सीखने की प्रक्रिया हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग होती है और इसकी प्रगति विभिन्न प्रकार के कारकों पर निर्भर हो सकती है। जैसे-प्रेरणा, प्रतिक्रिया, अभ्यास, पर्यावरण आदि ।
‘कौशलों का अधिग्रहण का महत्व
- व्यक्ति के कौशल एवं ज्ञान के अधिग्रहण पर बहुत बल दिया जाता है। शिक्षा का उद्देश्य एवं कार्य छात्रों को ज्ञान एवं कौशल देना है। एवं बच्चों को जीवन में बुद्धिमानी से इस कौशल का उपयोग करना सिखाना है।
- ज्ञान सीखने का कौशल मनुष्य को अपने व्यक्तित्व का विकास करने में सक्षम बनाता है। यह सभ्यता की प्रगति का प्रमुख साधन है।
- जीवन में कौशल का अधिग्रहण मानव को खुश करता है एवं दिन-प्रतिदिन की समस्याओं को हल कर सकता है।
- वर्तमान स्थिति में कौशल का अधिग्रहण अधिक महत्वपूर्ण है, इससे वैज्ञानिक, तकनीकी, औद्योगिक, आर्थिक एवं राजनीतिक उन्नति होती है। ज्ञान व कौशल का अधिग्रहण वास्तविक ज्ञान है जिसके द्वारा व्यक्ति जीवन के मूल्यों, जीवन स्तर, समायोजन आदि को सीखता है।
- शिक्षा विभिन्न बुनियादी कौशल जैसे पढ़ना, लिखना एवं गणना करना भी विकसित करती है, जो बदले में ज्ञान प्राप्त करने में सहायता करती है। कौशल शिक्षा के बहुत महत्वपूर्ण परिणाम हैं।
- शिक्षा छात्रों को प्रयोगात्मक कौशल, कला कौशल, निर्माण कौशल एवं अवलोकन कौशल में प्रशिक्षित करने में सहायता करती है।
- यह समस्या समाधान कौशल विकसित करके छात्रों को समस्याओं को हल करने में का सामना करने का भी सहायता करता है साथ ही छात्रों में उनके जीवन में आने वाली समस्याओं विश्वास भी विकसित करता है।
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