शिक्षा और व्यक्तिक्त विकास–
शिक्षा का एक महत्वपूर्ण कार्य व्यक्तिक्त का विकास भी है। व्यक्ति वह धुरी है जिसके चारों ओर शैक्षिक क्रियाएं आवृत्तियाँ लेती हैं। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि शिक्षा व्यक्ति के लिए व्यक्ति द्वारा, व्यक्ति के हित में की जाने वाली सकारात्मक प्रक्रिया है। व्यक्ति के विकास में शिक्षा की भूमिका को संक्षेप में यह निम्नलिखित रूप में रेखांकित कर सकता है।
(1) व्यक्ति की जन्मजात शक्तियों का विकास-रेवर के अनुसार, “किसी प्राणी के समग्र जीवन विस्तार में होने वाले परिवर्तन क्रम को विकास कहते हैं।” विकास का एक सही शब्द है में विकास और अभिवृद्धि में अंतर है। फ्रँक के शब्दों में, “अभिवृद्धि से तात्पर्य कोशिकाओं में होने वाली वृद्धि यथा लम्बाई, चौड़ाई आदि से है जबकि विकास प्राणी में होने वाले समग्र परिवर्तन का द्योतक होता है। शिक्षा मानव के शारीरिक-मानसिक विकास की गति-दिशा को सुनियोजित करने में
योग देती है। उसी प्रकार मानव में अनेक मूल प्रवृत्तियां होती हैं। शिक्षा द्वारा इन मूल प्रवृत्तियों का सकारात्मक परिमार्जन होता है। शिक्षाशास्त्रियों तथा शिक्षा मनोवैज्ञानिकों ने मानव विकास के विविध पक्षों का अध्ययन कर विकास के अनेक उपयोगी नियमों का प्रतिपादन किया है जिनको दृष्टि- पथ में रखकर मानव-व्यक्तिक्त के विकास का पथ-प्रदर्शन किया जाता है
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(2) व्यक्ति का मानसिक विकास-मानव के मानसिक विकास से तात्पर्य मानसिक शक्तियों, क्षमताओं और योग्यताओं के विकास से है। मानसिक विकास के अन्तर्गत बुद्धि, अभिरुचि, संवेदन, प्रत्यक्षीकरण, ध्यान, चिंतन, तर्क, निर्णय, स्मृति, जैसी मानसिक क्रियाएँ आती है। शिक्षा शास्त्र की एक महत्वपूर्ण शाखा शिक्षा मनोविज्ञान इन मानसिक क्रियाओं का शास्त्रीय अनुशीलन कर मानसिक विकास की प्रक्रिया को उपयोगी दिशा-संकेत देती है।
(3) नैतिकता का विकास हरबर्ट ने लिखा है कि-“शिक्षा के सम्पूर्ण कार्य को एक ही शब्द में प्रकट किया जा सकता है और वह शब्द है ‘नैतिकता’।” इससे यह स्पष्ट होता है कि शिक्षा का कार्य बालक के आचरण एवं व्यवहार का सुधार, परिशोधन तथा उचित विकास करना है जिससे बालक पूर्णतः नैतिक व्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठित होता है।
(4) व्यक्तित्व का बहुमुखी विकास- वैयक्तिक विकास में व्यक्ति के व्यक्तित्व का बहुपक्षीय उन्नयन करना शिक्षा का महत्वपूर्ण कार्य है। व्यक्ति के व्यक्तित्व के अन्तर्गत शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक, आध्यात्मिक, व्यावसायिक आदि पक्ष आते हैं। इन सभी पक्षों को उन्नयन, परिमार्जन, सुधार हेतु शिक्षा महत्वपूर्ण मार्गदर्शन करती है।
(5) आवश्यकताओं की पूर्ति-स्वामी विवेकानंद का संदेश है कि “शिक्षा का कार्य यह पता लगाना है कि जीवन की समस्याओं को कैसे सुलझाया जाय और इस बात की ओर संसार के आधुनिक सभ्य समाज का गम्भीर ध्यान पूर्णतया लगा हुआ है।” वास्तव में, मानव जीवन में अनन्त आवश्यकताएँ हैं। ये आवश्यकताएं विविधता से युक्त होती है। प्रत्येक मानव की विविधा वतायुक्त आवश्यकताओं की पूर्ति शिक्षा के विविध साधनों से संभव हो पाती है।
(6) भावी जीवन की तैयारी-शिक्षा व्यक्ति के वर्तमान को ही सुखमय नहीं बनाती, अपितु भविष्य को सुखमय बनाने का पथ-प्रदर्शन भी करती है। शिक्षा मानव जीवन का दर्पण है जिसमें भावी जीवन की स्पष्ट झलक प्रतिबिम्बित होती है। प्रत्येक प्रबुद्ध व्यक्ति अपनी झलक को दृष्टिगत रखकर भविष्य के स्वर्णिम पहलुओं को साकार करने हेतु उचित कार्य-योजना बनाने में समर्थ होता है।