(1) पवित्रता एवं अपवित्रता की धारणा-
पवित्रता तथा अपवित्रता के सन्दर्भ में परिवर्तित हो रहे दृष्टिकोणों का एक ज्वलन्त उदाहरण स्त्रियों में मिलता है। प्राचीन काल में स्त्रियाँ अपवित्रता के सन्दर्भ में अत्यधिक सजग रहती थीं और उनकी पवित्रता व्यवस्था का केन्द्र बिन्दु रसोईघर था। रसोईघर में प्रवेश से पूर्व स्नान एवं शुद्ध सूती धोती धारण करना आवश्यक था परन्तु यह स्थिति परिवर्तित हो गयी है। अब स्त्रियों में पवित्रता की धारणा के स्थान पर स्वास्थ्य तथा पौष्टिकता की धारणा प्रमुख हो गयी है। अधिकांश स्त्रियाँ अपवित्रता सम्बन्धी नियम अपने माता-पिता या सास-ससुर के साथ रहने पर ही निभाती हैं वैसे एक प्रमुख बात यह भी हे कि औद्योगीकरण, नगरीकरण आदि प्रक्रियाओं के फलस्वरूप परिवार टूट रहे हैं तथा केन्द्रीय परिवार (Central family) जिसे हम एकाकी परिवार भी कहते हैं, का अभ्युदय हो रहा है और इन एकाकी परिवारों में मुख्यतः पति-पत्नी तथा बच्चे ही होते हैं और इन नवीन एकाकी परिवारों में अत्यधिक व्यस्तता एवं प्रत्येक कार्य हेतु निर्धारित समय होता है, फलस्वरूप यदि पति दफ्तर से वापस आया और पत्नी भी उसी समय आयी तो वह सीधे उन्हीं कपड़ों में बिना स्थान किये रसोईघर में नाश्ता यह भोजन बनाने चली जाती है और यही सन्दर्भ विशेष के अनुरूप आचरण लौकिकीकरण का आधार है।
लौकिकीकरण का अर्थ एवं कारण Meaning and causes of secularization
(2) कर्मकाण्डों में परिवर्तन की प्रक्रिया-
ब्राह्मणों, पुरुषों एवं स्त्रियों के दैनिक कर्मकाण्ड में व्यय होने वाले समय में निरन्तर कमी हो रही है। इस सन्दर्भ में इंगोल्स का कथन है कि, “परिवार का मुखिया धार्मिक कृत्यों में संध्या में स्नान में, पूजा में, अग्नि कृत्य में, वेदपाठ में दिन में पाँच घण्टे या उससे भी अधिक समय लगाता है। ब्राह्मण की पत्नी अथवा उसके परिवार की कोई अन्य स्त्री घर में स्थापित देव मूर्तियों के पूजा-पाठ में रोज एक घण्टा लगाती है।” परन्तु यह तभी सम्भव है जब यह तो उसकी कोई स्वतन्त्र आमदनी का स्रोत हो या उसका पुरोहिती का ही धन्धा हो किन्तु कालचक्र के साथ ही नवीन सामाजिक व्यवस्था में वे दोनों ही बाते अत्याधिक अल्प प्रतिशत में ही हैं। अतः दैनिक कर्मकारण्ड में व्यतीत होने वाले प्रतिदिन के एक बड़े-हिस्से में ह्रास हुआ।
परम्परा से विवाह के पूर्व ब्राह्मण कन्या से यह अपेक्षा की जाती थी कि उसे लड़कियों द्वारा किये जाने वाले कर्मकाण्ड का तथा जाति और अपवित्रता सम्बन्धी नियमों का ज्ञान हो। साथ ही, रसोई बनाने एवं घरेलू काम-काज का ज्ञान तथा विवाह के उपरान्त वह अपने पति, सास-ससुर तथा ससुराल के अन्य सदस्योंका सम्मान करे। परन्तु वर्तमान नवीन परिवेश में शिक्षा ने लड़कियों के दृष्टिकोणों, सोचने के ढंग एवं जीवन शैली में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन कर दिया। आज की अधिकांश शिक्षित नारी समानता का दर्जा देना चाहती है तथा स्वयं भी विभिन्न नौकरियों एवं रोजगार में सहभागी बन रही है।
इस सन्दर्भ में एलीन रौस का बंगलूर के एक नगरीय परिवार के अध्ययन के उपरान्त यह कथन है कि, “कुल मिलाकर इस अध्ययन से प्रकट है है कि मध्य और उच्च वर्गों की हिन्दू लड़कियों को शिक्षा अभी तक विवाह के उद्देश्य से दी जाती है, आजीविका के लिए नहीं। किन्तु बहुत से माँ-बाप अपनी लड़कियों को विश्वविद्यालयों में पढ़ाने को उत्सुक थे। शायद, इस नयी प्रवृत्ति का एक मुख्य कारण यह है कि बाल विवाह के बजाय वयस्क विकास प्रारम्भ होने से अन्नीस अथवा पच्चीस वर्ष तक की लड़कियों के अवकाश के समय को भरना आवश्यक है और विवाह तक उन्हें व्यवस्था रखने का उपाय कॉलेज है। एक अन्य कारण कई लोगों ने यह बताया कि अपनी लड़कियों के लिए उपयुक्त वर मिलने में कठिनाई के कारण कभी-कभी माँ-बाप उनकी शिक्षा जितना चाहते थे उसके बाद पढ़ाये जाते हैं।”
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