राजपूतों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विद्वानों में बहुत मतभेद है। जहाँ कुछ विद्वान राजपूतों को भारतीय वंश का स्वीकार करते हैं वहीं कुछ विद्वान उन्हें विदेशी नस्ल से उत्पन्न मानते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ विद्वान ऐसे भी है जो राजपूतों को मिश्रित नस्ल (विदेशी और भारतीय का मानते हैं।
राजपूत विदेशी थे
अनेक विद्वानों के अनुसार राजपूत विदेशी वंश से उत्पन्न थे। ऐसे विद्वानों में टॉड महोदय का प्रमुख स्थान है। उनके अनुसार राजपूत विदेशी थे और शकों, हूणों, कुषाणों, गुर्जरों आदि के वंशज थे जो भारत में आये और यहीं बस गये। उन्होंने भारतीय स्त्रियों से विवाह किये और भारत में ही रहने लगे और भारतीय सभ्यता और संस्कृति को अपनाया। उच्च वर्ण के युद्ध प्रिय लोगों ने अपना एक अलग वर्ग स्थापित किया और अपने को राजपूत कहने लगे।
विलियम क्रूक भी राजपूतों की उत्पत्ति विदेशी जातियों से स्वीकार करते हैं। क्रूक के अनुसार पृथ्वीराजरासो की अग्निकुण्ड की कथा से विदित होता है कि जब पृथ्वी म्लेच्छों के अत्याचार से त्रस्त हो गयी, तब वशिष्ट ने आबू पर्वत पर एक यज्ञ किया। इस यज्ञ में अग्निकुण्ड से चार योद्धाओं ने जन्म लिया ये चारों योद्धा थे प्रतिहार, परमार, चाहमान और चालुक्य इन्हीं योद्धाओं ने चार राजवंशों की स्थापना की, जिन्हें अग्निवंशीय कहा गया। क्रूक महोदय का कथन है कि ये चार राजवंश विदेशी थे, जिन्हें अग्नि द्वारा शुद्ध किया गया। अग्निशुद्धि जहाँ की गयी वह स्थान दक्षिणी राजपूताना में स्थित था लेकिन विलियम कुक महोदय के इस तक्र को स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि पृथ्वीराजरासो में अनेक काल्पनिक कथाएं दी गयी है, साथ ही साथ उसमें कहीं भी शुद्धिकरण की बातें नहीं कही गयी है। अतः क्रूक महोदय के मत को उचित नहीं माना जा सकता है।
स्मिथ महोदय के अनुसार- भारत में जो विदेशी आक्रमणकारी आये, वे कालान्तर में यहाँ के रीति-रिवाज और धर्म को अपनाकर भारतीय हो गये। स्मिय महोदय का कथन है कि “मुझे कोई सन्देह नहीं कि शकों और कुषाणों के राजपरिवारों को जब वे हिन्दू हो गये तो उन्हें हिन्दू जाति व्यवस्था के अन्तर्गत क्षत्रिय जाति में सम्मिलित कर लिया गया।” इन्हीं भारतीय कृत विदेशियों को ‘राजपूत’ नाम से पुकारा गया।
स्मिथ महोदय के कथन को भी सहीं नहीं माना जा सकता, क्योंकि शक, कुषाण आदि जातियों ने भारतीय रीति-रिवाज आदि को तो अपना लिया था परन्तु क्षत्रियों के साथ उनका विलय नहीं हुआ था। अतः राजपूतों को विदेशी नहीं माना जा सकता।
डॉ. भण्डारकर- महोदय का मत है कि गुर्जर-प्रतिहारों की उत्पत्ति विदेशी खिजर जाति से हुई। औ हूणों के साथ आये थे और भारत में ही बस गये। कालान्तर में इन लोगों ने भारतीयों से देवि सम्बन्ध स्थापित कर लिए और क्षत्रिय कहे जाने लगे। बाद में इन्हें ही राजपूत कहा जाने लगा लेकि भण्डारकर महोदय का भी मत सही नहीं प्रतीत होता है, क्योंकि खिजर नामक किसी जाति का भारत आक्रमण का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। उपरोक्त मतों के अध्ययन के बाद यह स्पष्ट हो जाता है। राजपूतों की उत्पत्ति विदेशी नस्त से नहीं हुई थी।
राजपूत स्वदेशी (भारतीय) थे
अनेक विद्वान राजपूतों को विदेशी स्वीकार नहीं करते। ये राजपूतों को भारतीय वंश से उत्पन मानते हैं। ऐसे विद्वानों में सी वैद्य, जी. एस. ओशा प्रमुख है। ऐसे विद्वानों का कथन है कि राज शब्द संस्कृत भाषा के राजपुत्र (राजकुमार) का अपभ्रंश है। प्राचीन काल में क्षत्रिय अथवा राजन्य को रक्षक माना जाता था। रामायण, महाभारत, स्मृतियां एवं पुराणों में क्षत्रिय को रक्षक माना गया है। इन्हीं क्षि राजकुमार को ‘राजपुत्र’ के नाम से पुकारा जाता था। अष्टाध्यायी में क्षत्रिय को ही राजपुत्र कहा गया है।
राजपूत राजाओं के अभिलेखों में उनके सूर्यवंशी एवं चन्द्रवंशी क्षत्रियों से सम्बन्ध दिखाये हैं। प्रतिहार राष्ट्रकूट, सिसोदिया तथा चालु अपना सम्बन्ध राम या कृष्ण से स्थापित करते हैं। जीएच ओझा, सीवी चैद्य तथा अन्य इतिहासकार यही मानते हैं कि राजपूत प्राचीन क्षत्रियों की ही सन्तान है। इसके विपरीत डॉ. दशरथ शर्मा, विश्वम्भर शरण पाठक जैसे अनेक विद्वानों ने राजपूत जाति की उत्पति ब्राह्मणों से मानी है। प्रतिहारों, चौहानों, चन्देलों, गुहिलों आदि वंशों के संस्थापक ब्राह्मण ही थे। अरबों के आक्रमण से फैली अव्यवस्था से सुरक्षा प्रदान करने के लिए ब्राह्मणों ने शास्त्र के स्थान पर शस्त्र सहारा लिया तथा प्राचीन क्षत्रिय वंशों से अपना सम्बन्ध जोड़कर कालान्तर में राजपूत कहलाने लगे। स्मिथ महोदय ने यह तक भी प्रस्तुत किया है कि राजपूत प्राचीन आदिम जातियों गोंड, भर, तव, वा आदि के वंशज थे। चन्देल, राठौर, गहड़वाल आदि वंशों की उत्पत्ति इन्हीं से हुई थी। आर्यों के सम्पर्क में आने से उनमें राजनैतिक चेतना विकसित हुई। क्षेत्र विशेष में राजनैतिक सत्ता प्राप्त कर वे क्षत्रिय बन गये तथा कालान्तर में राजपूत कहलाने लगे।
जी. एस. ओझा ने राजपूतों को क्षत्रिय सिद्ध करने के लिए एक नया तक प्रस्तुत किया है। उनका कहना है कि मनुस्मृति में कुछ ऐसी जातियों का उल्लेख है जो मूलरूप से क्षत्रिय थे, लेकिन वैदिक क्रियाओं को सम्पन्न न करने के कारण ब्राह्मणों ने उन्हें क्षत्रिय समाज से अलग कर दिया, फलस्वरूप उनका क्षत्रित्व समाप्त हो गया। शक, यवन, पहलव आदि जातियों का उल्लेख इनमें किया जा सकता है। इस प्रकार ओझा महोदय के अनुसार शक यदन जिन्हें राजपूतों का जनक बताया जाता है, मूलरूप से क्षत्रिय ही ये और प्राचीन क्षत्रिय वर्ण के शासक तथा योद्धा वर्ग के लोग ही बाद में राजपूत कहे जाने लगे थे।
अग्निकुण्ड का सिद्धान्त- राजपूतों को भारतीय सिद्ध करने के लिए अग्निकुण्ड सिद्धान्त का भी सहारा लिया जाता है। चन्दबरदाई की कृति ‘पृथ्वीराज रासों का अध्ययन करने से जानकारी होती है कि राजपूतों की उत्पत्ति अग्निकुण्ड से हुई है। इसके अनुसार परशुराम जो भगवान विष्णु के अवतार के रूप में माने जाते हैं, ने समस्त क्षत्रियों का विनाश कर दिया था परन्तु ब्राह्मणों को अपनी रक्षा के लिए क्षत्रियों की आवश्यकता का आभास हुआ, क्योंकि क्षत्रिय लोग युद्ध में भाग लिया करते थे तथा ब्राह्मणों की रक्षा करते थे इसलिए ब्राह्मणों ने आबू पर्वत चोटी पर 40 दिनों तक हवन और इष्ट देवता से प्रार्थना की। ब्राह्मणों की प्रार्थना सफल सिद्ध हुई और अग्निकुण्ड से चार नायक निकले जिन्हें ब्राह्मणों ने चार वर्गों में बांट दिया। इस तरह चौहान, प्रतिहार, परमार और सोलंकी (या चालुक्य) योद्धाओं ने चार राजवंशों की स्थापना की, जिन्हें अग्निवंशीय कहा गया। इन्हीं से राजपूतों का उद्भव हुआ।
भारतीय समाज के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य (दृष्टिकोण) पर प्रकाश डालिए।
राजपूत मिश्रित जाति (शक-कुषाण) के थे- राजपूतों को मिश्रित जाति का बताने वाले विद्वानों सर्वप्रमुख एस्मिय है। इनका कथन है कि भारत में जो विदेशी आक्रमणकारी आये, कालान्तर में यहाँ के रीति-रिवाज और धर्म को अपनाकर भारतीय हो गये। स्मिथ महोदय का कथन है कि “मुझे कोई सन्देह नहीं कि शकों और कुषाणों के राजपरिवारों को जब वे हिन्दू हो गये एवं कालान्तर में भारतीय समाज में घुल-मिल गये तो उन्हें हिन्दू जाति व्यवस्था के अन्तर्गत क्षत्रिय जाति में सम्मिलित कर लिया गया।”
निष्कर्ष उपरोक्त विचारों का अध्ययन करने के पश्चात् यह निष्कर्ष निकलता है कि राजपूतों को विदेशी जाति से उत्पन्न होने के कोई सबल आधार नहीं है। केवल खान-पान और लड़ाकू होने से ही उन्हें विदेशी नहीं माना जा सकता है। वास्तव में राजपूत शब्द संस्कृत भाषा के ‘राजपुत्र’ का अपभ्रंश है। इसी राजपुत्र को बाद में राजपूत कहा जाने लगा जो वास्तव में क्षत्रिय थे। राजपूत वंश परमार, चालुक्य, चाहमान और प्रतिहार के लेखों आदि से भी वे क्षत्रिय ही सिद्ध होते हैं। अतः राजपूतों को भारतीय क्षत्रि ही स्वीकार किया जाना उचित प्रतीत होता है।
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