मुस्लिम स्त्रियों की समस्याएँ (Problems of Muslim Women)
यद्यपि सैद्धान्तिक रूप में मुस्लिम स्त्रियाँ अधिकार सम्पन्न लगती हैं, तथापि व्यावहारिक रूप में विभिन्न समस्याओं से प्रसित है, जिससे उनकी सामाजिक स्थिति निम्न है, यथा
(1) बहुपत्नीत्व– मुसलमानों में एक पुरुष को एक समय में एक से लेकर चार पत्नियों को रखने का सामाजिक एवं वैधानिक अधिकार प्राप्त है। अधिक पत्नियाँ होने से पुरुष समान व्यवहार नहीं कर पाता। स्वाभाविक है कि बहुपत्नीत्व के कारण स्त्रियों के साथ भेदभाव होता है। स्त्री की पुरुष पर निर्भरता होने के कारण भी उसकर स्थिति उच्च नहीं हो पाती। सभी स्त्रियों की सन्तानों को परिवार में समान स्थिति न मिलने से भी उन्हें संघर्ष करने पड़ते हैं।
(2) विवाह विच्छेद या तलाक – यद्यपि मुस्लिम स्त्रियों को भी पुरुष की ही भांति तलाक सम्बन्धी अधिकार प्रदान किये गये हैं, तथापि पुरुष पर आर्थिक दृष्टि से निर्भर होने, अशिक्षा और पुरुष प्रधान समाज होने के कारण प्रायः पुरुष ही तलाक सम्बन्धी अधिकारों का मनमाना प्रयोग अधिक करते हैं। तलाक, तलाक, तलाक तीन बार यह कहते ही मुस्लिम स्त्री का जीवन मंझधार में फंस जाता है।
(3) पर्दा प्रथा- मुस्लिम समाज में पर्दा प्रथा का प्रचलन स्त्रियों को पुरुषों की कुदृष्टि से सुरक्षित रखने के उद्देश्यवश प्रारम्भ किया गया था। कालान्तर में इस प्रथा ने मुस्लिम स्त्रियों को अनेक समस्याओं से ग्रसित कर दिया। इसी प्रथा के फलतः उनकी शिक्षा नहीं हो सकी। आधुनिक वैज्ञानिक युग में भी अरब समाज के युग के नियमों का पालन कराया जाता है। शिक्षा के अभाव में मुस्लिम स्त्रियों में अज्ञानता और रूढ़िवादिता व्याप्त है। शिक्षित न होने से वे सार्वजनिक एवं राजनैतिक जीवन में भाग नहीं ले पायी हैं। समाज निर्माण और समाज सुधार में उनका योगदान नगण्य मात्र ही रहा है।
(4) धार्मिक कट्टरता – मुस्लिम धर्म में अत्यधिक कठोर अनुशासन और नियन्त्रण होने के कारण उसे एक कट्टरवादी धर्म माना जाता है। यह धर्म नवीनता एवं परिवर्तन का समर्थक नहीं है। यद्यपि टर्की में कमाल पाशा के नेतृत्व में स्त्रियों की स्थिति सुधारने के प्रयत्न किए गए, किन्तु ईरान और अफगानिस्तान में प्राचीन इस्लाम के नियमों को सख्ती से लागू किया गया। धार्मिक कट्टरता का पालन किये जाने के कारण अनेक स्थानों में मुस्लिम स्त्रियों को विभिन्न समस्याओं का शिकार बनना पड़ा है।
(5) अव्यावहारिक अधिकार – व्यावहारिक दृष्टि से मुस्लिम स्त्री को विवाह, परिवार और सम्पत्ति सम्बन्धी जो भी अधिकार दिए गए हैं, वे सैद्धान्तिक बनकर रह गये हैं। यद्यपि विधवा-स्त्री को पुनर्विवाह करने का अधिकार है, किन्तु उसे समाज हीन दृष्टि से देखता है। विवाह से पूर्व स्त्री से उसकी स्वीकृति ली जाती है, किन्तु वह भी एक औपचारिकता मात्र है, क्योंकि माता-पिता की इच्छानुसार उसे स्वीकृति देनी ही होती है। इसी प्रकार निकाह के समय प्राप्त होने वाली ‘मेहर’ की राशि पर स्त्री का नहीं, वरन् पुरुष या परिवार का अधिकार होता है। प्रायः सम्पत्ति में अपना भाग लेने के लिए उसे न्यायालय की शरणागत तक होना पड़ता है।
मुस्लिम स्त्रियों के अधिकार (Rights of Muslim Women)
(1) वैवाहिक अधिकार – मुस्लिम स्त्रियों को विवाह सम्बन्धी निम्नलिखित अधिकार प्राप्त हैं
(अ) विवाह से पूर्व स्वीकृति का अधिकर – मुस्लिम विवाह में विवाह के पूर्व ही वधू से स्वीकृति लेना आवश्यक है, जिससे स्त्री की सामाजिक स्थिति उच्च है। इस अधिकार के कारण किसी भी स्त्री के साथ विवाह के लिए दबाव या जोर-जबरदस्ती नहीं की जा सकती तथा विवाह को स्त्री-पुरुष के मध्य द्विपक्षीय सहमति वाला एक शिष्ट समझौता माना जाता है, जो वर वधू दोनों की सहमति से सम्पन्न हो सकता है।
(ब) तलाक का अधिकार – मुस्लिम स्त्रियों को ‘शरीयत अधिनियम’ के अन्तर्गत ‘ईला’ और ‘जिहर’ नामक तलाक देने का अधिकार प्राप्त है। इसी प्रकार ‘मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम’ 1939 के अनुसार भी मुस्लिम महिलाओं को तलाक देने का अधिकार प्रदान किया गया है।
(स) विधवा पुनर्विवाह का अधिकार – इस्लामी कानून के अनुसार मुस्लिम विधवाओं को पुनर्विवाह का भी अधिकार प्राप्त है। पति की मृत्यु पर होने ‘इद्दत’ की अवधि अर्थात् तीन मासिक धर्म के उपरान्त मुस्लिम विधवा को पुनर्विवाह करने की आज्ञा प्रदान की गयी है।
(द) बाल विवाह- मुस्लिम समाज में बाल-विवाह का अभाव पाया जाता है। 15 वर्ष से कम आयु वाली लड़की का विवाह उसके संरक्षकों की स्वीकृति के बिना नहीं हो सकता है। इस पर भी यदि ऐसा विवाह हो जाता है, तो बालिग होने पर वर या वधू ऐसे विवह को रद्द भी कर सकते हैं। इस अधिकार को ‘ख्याल-उल-बुलुग’ अर्थात् ‘कौमार्य का विकल्प’ (Option of Puberty) कहते हैं।
(2) परिवार सम्बन्धी अधिकार – मुस्लिम परिवार पुरुष प्रधान अर्थात् पितृसत्तात्मक परिवार है। परिवार में एकाधिक स्त्रियों के होने की स्थिति में भी स्त्रियों को अपने पति से समान व्यवहार और प्रेम पाने का अधिकार प्राप्त है, फिर भी बहुपत्नीत्व-प्रथा के कारण मुस्लिम स्त्री को विभिन्न अधिकारों से वंचित रहना पड़ता है। पर्दा प्रथा के कठोर प्रचलन ने उन्हें घर की चहारदीवारी से बाहर निकलने से रोका है। घरों में भी ‘जनानखाना’ और ‘मर्दानखाना बनाया गया है । पर्दा प्रथा ने मुस्लिम स्त्रियों को बाह्य जगत से अपरिचित रखा है, जिसके कारण वे सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करने से भी वंचित रही हैं। मुस्लिम परिवार पितृ-प्रधान है, अतः स्त्रियों की अपेक्षा पुरुष अधिक अधिकार सम्पन्न हैं।
(3) सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार – सैद्धान्तिक तौर पर मुस्लिम स्त्री को सम्पत्ति सम्बन्धी अनेक अधिकार दिये गये हैं। प्रत्येक पति से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी पत्नी को ‘खर्च-ए-पानदान’ अर्थात् पान खाने का व्यय दे। विवाहोपवसर पर प्राप्त होने वाले ‘मेहर’ भी स्त्री का धन माना गया है। मुस्लिम स्त्री अपने पिता और पति की सम्पत्ति में भी अपना भाग प्राप्त करती है। मुस्लिम स्त्री माना, पत्नी और पुत्री तीनों ही रूपों में पारिवारिक सम्पत्ति में से अपना भाग प्राप्त करती है। मुस्लिम स्त्री को अपने मृत पुत्र की सम्पत्ति में से 1/3 से लेकर 1/5 तक तथा मृत पति की सम्पत्ति 1/4 से लेकर 1/8 के बीच तक सम्पत्ति प्राप्त होती है। अपने पिता की सम्पत्ति में अपने भाइयों के ही समान वह भी सम्पत्ति पाने की अधिकारिणी बनायी गयी। है। वह अपनी सम्पत्ति की बिक्री करने या उसे गिरवी रखने के लिए भी पूर्णतया स्वतन्त्र है।
मुस्लिम स्त्रियों की समस्याओं के समाधानार्थ प्रयास
मुस्लिम समाज विभिन्न कारणोंवश आज भी परम्परावादी एवं कट्टरवादी धार्मिकता का समर्थक है। मुसलमानों के जीवन के लगभग प्रत्येक क्षेत्र का संचालन कुरान के नियमानुसार ही होता है। कदाचित यही वह सर्वप्रमुख कारण है कि अनेक नये परिवर्तनों के बाद भी मुस्लिम स्त्रियों की सामाजिक प्रस्थिति को उच्च करने तथा उनकी समस्याओं को समुचित तरीकों से हल करने के लिए भारत में कोई विशेष अधिक प्रयास नहीं किये गये। भारत में ब्रिटिश शासनकाल के दौरान मुस्लिम विवाह से सम्बन्धित दो अधिनियमों को पारित किया गया (1) मुस्लिम शरीयत अधिनियम 1937 और (2) मुस्लिम तलाक (विवाह विच्छेद) अधिनियम 1939। पहला अर्थात् शरीयत अधिनियम 1937 मुसलमान स्त्री को उसके पति के नपुंसक होने की स्थिति में तथा उसके द्वारा पत्नी पर झूठे व्यभिचार का दोष आरोपित करने और ‘इला’ अथवा ‘जिहर’ के आधार पर विवाह विच्छेद करने का अधिकार प्रदान करता है। इसी प्रकार मुस्लिम तलाक अधिनियम 1939 भी मुसलमान स्त्री को अनेक आधारों पर तलाक देने की छूट प्रदान करता है, यथा यदि पति स्त्री का भरण-पोषण करने में सक्षम न हो, यदि पति सात वर्षों से अधिक अवधि तक जेल में बन्द हो, नपुंसकता, पागलपन, यौन रोगादि से ग्रस्त हो, पत्नी के साथ क्रूरतापूर्वक व्यवहार करता हो, धार्मिक कार्यों में बाधक हो, एकाधिकार पत्नियाँ होने पर स्त्री के साथ समान व्यवहार न करता हो आदि। अन्त में कहा जा सकता है कि मुस्लिम स्त्रियाँ आज भी विभिन्न समस्याओं से संघर्षरत है, जिन्हें अविलम्ब दूर करने की आवश्यकता है, किन्तु इसकी पहल सर्वप्रथम स्वयं मुस्लिम समाज के कर्णाधारों को ही करनी होगी।
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