मानव जीवन में शिक्षा के दो कार्यों का वर्णन कीजिए।

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मानव जीवन में शिक्षा के दो कार्य निम्नलिखित हैं

(1) व्यक्तित्व विकास-

आधुनिक युग में अधिकांश शिक्षाशास्त्रियों का कार्य केवल आन्तरिक शक्तियों के विकास तक सीमित नहीं रखना चाहते बल्कि वे बालक के सर्वोन्मुखी विकास अर्थात् व्यक्तित्व विकास पर जोर देते हैं। वुडवर्थ के शब्दों में, “व्यक्तित्व व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यवहार की व्यापक विशेषता का नाम है।” अर्थात् व्यक्तित्व के अन्तर्गत व्यक्ति के समस्त पहलुओं-शारीरिक, संवेगात्मक, मानसिक, नैतिक इत्यादि का समावेश होता है। शिक्षा द्वारा व्यक्तित्व के इन पहलुओं का विकास होता है। संक्षेप में, के० भाटिया एवं बी०डी० भाटिया के अनुसार, “शिक्षा योजना में बालक के व्यक्तित्व के सम्पूर्ण तथा सर्वांगीण विकास के लिये व्यवस्था है।”

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(2) अन्तःशक्तियों का प्रगतिशील विकास-

शिक्षा के क्षेत्र में मनोविज्ञान को महत्वपूर्ण स्थान देने वाले शिक्षाशास्त्री बालक की अन्तः शक्तियों के “प्रगतिशील विकास’ को शिक्षा का मुख्य कार्य बतलाते हैं। मनोविज्ञान के इस कथन के आधार पर कि बालक कुछ विशेष शक्तियों जैसे जिज्ञासा, प्रेम, आत्म-गौरव, कल्पना, तर्क इत्यादि को लेकर जन्म लेता है, पेस्टालॉजी महोदय ने शिक्षा का प्रमुख कार्य इन शक्तियों का विकास करना बतलाया है। उन्होंने शिक्षा के इसी कार्य पर बल देते हुए शिक्षा को इस प्रकार परिभाषित किया है, “शिक्षा मनुष्य की आन्तरिक शक्तियों का स्वाभाविक, सर्वांगपूर्ण तथा प्रगतिशील विकास है।”

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