मानव-जीवन में शिक्षा के कार्य:-
देश, समय और समाज की आवश्यकताओं के अनुसार, मानव-जीवन में शिक्षा के कार्य हमेशा से ही अलग-अलग रहे हैं और आज भी हैं। भारतीय समाज की वर्तमान आवश्यकताओं, मूल्यों गुणों, समस्याओं तथा उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए मानव जीवन में शिक्षा के निम्न कार्य होने चाहिए
1. आवश्यकताओं की पूर्ति – शिक्षा के महत्वपूर्ण कार्यों में मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति करना अत्यन्त आवश्यक कार्य है। ये आवश्यकताएं, जैविक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, आर्थिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक सभी प्रकार की हो सकती हैं। यद्यपि आज के नैतिक तथा संघर्षशील युग में भोजन, वस्त्र तथा मकान आदि जैविक आवश्यकताओं पर विशेष जोर दिया जाता है लेकिन शिक्षा को सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, भौतिक तथा आध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु भी उन्मुख होना पड़ेगा ताकि व्यक्ति एक सामाजिक तथा नैतिक प्राणी के रूप में सुन्दर जीवन व्यतीत कर सके। इस सन्दर्भ में स्वामी विवेकानंद ने कहा है- “शिक्षा का कार्य यह पता लगाना है कि जीवन की समस्याओं को किस प्रकार हल किया जाए और आधुनिक सभ्य समाज का गम्भीर ध्यान इसी बात में लगा हुआ है। “
2.अन्तःशक्तियों का प्रगतिशील विकास – शिक्षा के क्षेत्र में मनोविज्ञान को महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान करने वाले शिक्षाशास्त्रियों के अनुसार, शिक्षा का मुख्य कार्य बालक की अन्तः शक्तियों का ‘प्रगतिशील विकास’ है। मनोविज्ञान के इस कथन के आधार पर कि बालक कुछ विशेष शक्तियों जैसे जिज्ञासा, प्रेम आत्म-गौरव, कल्पना, तर्क इत्यादि को लेकर पैदा होता है, पेस्टालॉजी महोदय ने शिक्षा का मुख्य कार्य इन शक्तियों का विकास करना कहा। है। उन्होंने शिक्षा के इसी कार्य पर जोर देते हुए शिक्षा को इस प्रकार परिभाषित किया है, “शिक्षा मनुष्य की आन्तरिक शक्तियों का स्वाभाविक सर्वांगपूर्ण तथा प्रगतिशील विकास है।”
3.निपुणता की प्राप्ति-शिक्षा का एक कार्य निपुणता की प्राप्ति है। शिक्षा के द्वारा विभिन्न प्रकार के उद्योगों में कुशलता अर्जित की जाती है। शिक्षा ही हमें यह सिखाती है कि किसी कार्य को अच्छी तरह से कैसे किया जा सकता है। प्रत्येक कार्य की हानियों तथा लाभ से परिचित कराया जाता है, विभिन्न प्रकार के कल-पुर्जों का ज्ञान कराया जाता है। इस प्रकार शिक्षा के द्वारा निपुणता की प्राप्ति होती है।
4.व्यक्तित्व विकास – वर्तमान युग में ज्यादातर शिक्षाशास्त्री शिक्षा का कार्य मात्र आन्तरिक शक्तियों के विकास तक सीमित नहीं रखना चाहते अपितु वे बालक के सर्वोन्मुखी विकास अर्थात् व्यक्तित्व विकास पर जोर देते हैं। के. भाटिया एवं वी.डी. भाटिया के अनुसार, “शिक्षा योजना में बालक के व्यक्तित्व के सम्पूर्ण तथा सर्वांगीण विकास के लिए व्यवस्था है। ” वुडवर्थ के शब्दों में, “व्यक्तित्व व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यवहार की व्यापक विशेषता का नाम है।” अर्थात् व्यक्तित्व के तहत् व्यक्ति के सभी पहलुओं-शारीरिक, संवेगात्मक, मानसिक, नैतिक इत्यादि का समावेश होता है। शिक्षा द्वारा व्यक्तित्व के इन पहलुओं का विकास होता है।
5.व्यक्तिगत विकास – शिक्षा का एक कार्य व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन का विकास करना भी है। व्यक्तिगत विकास में व्यक्ति के बाह्य एवं आन्तरिक सभी प्रकार के विकास शामिल होते हैं। इसके तहत् व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, नैतिक, आध्यात्मिक सभी पक्षों का विकास किया जाता है।
6.सांस्कृतिक विरासत का स्थानान्तरण – शिक्षा का कार्य सांस्कृतिक विरासत का हस्तान्तरण करना है। संस्कृति व्यक्ति के जीवन का अंग है। संस्कृति समाज की विरासत होती है। जब समाज के पास संस्कृति काफी एकत्र हो जाती है और वह आगामी पीढ़ी को उसका उचित प्रकार से हस्तान्तरण नहीं कर पाता है तो वह यह कार्य स्कूलों द्वारा करवाता है। स्कूल शिक्षा के माध्यम से यह कार्य करते हैं।
7.चरित्र निर्माण और नैतिकता का विकास – शिक्षा का बालकों के चरित्र निर्माण करने तथा उनमें नैतिकता के गुण विकास करने में महत्त्वपूर्ण स्थान है। शिक्षा द्वारा बालक ‘सत्य शिवं सुन्दरम्‘ का साक्षात्कार कर अच्छे से अच्छा आचरण करने का प्रयास करता है। गाँधीजी का कथन है, “यदि शिक्षा का महत्वपूर्ण स्थान है तो उसका प्रमुख कार्य नैतिक शिक्षा प्रदान करना है।” इसी सन्दर्भ में हरबर्ट ने कहा है-“शिक्षा का कार्य-उत्तम नैतिक चरित्र का विकास करना है।”
8.आत्मनिर्भरता की प्राप्ति-शिक्षा जीवन के हर क्षेत्र में आत्म-निर्भर बनाने की कोशिश करती है इससे एक तो प्रत्येक बालक का जीवन सुखी तथा शांत होता है तथा समाज में अन्य व्यक्तियों के लिए भार न होकर दूसरे को सहायता पहुंचाने में मददगार होता है। प्रसिद्ध कवि मिल्टन ने इस सन्दर्भ में लिखा है, “मैं केवल उसी को पूर्ण शिक्षा कहता है जो मनुष्य की शक्ति और युद्ध से सम्बन्धित निजी, सार्वजनिक समस्त कार्यों को उचित प्रकार से करने के योग्य बनाती है।” आज से अनेक वर्षों पूर्व स्वामी विवेकानंद ने कहा था- “केवल पुस्तकीय ज्ञान से काम नहीं चलेगा हमें उसे शिक्षा की जरूरत है, जिनसे कि व्यक्ति अपने स्वयं के पैरो पर खड़ा हो सकता है।”
9. मार्ग-प्रदर्शन- वर्तमान युग में हर व्यक्ति हेतु जीवन में विभिन्न क्षेत्रों में मार्ग प्रदर्शन की जरूरत है ताकि वह जीवन की विभिन्न परिस्थितियों से सामंजस्य स्थापित कर सके और जीविकोपार्जन कर अपना जीवन सुखतम व्यतीत कर सके। इसके लिए शिक्षा को मार्ग प्रदेर्शन का कार्य करना होगा।
10. जीवन की निरंतरता को बनाए रखना चार्ल्स डार्विन ने ‘प्राकृतिक प्रवरण का सिद्धांत‘ में लिखा है कि प्रत्येक प्राणी को अपना जीवन बनाये रखने हेतु प्रकृति या पर्यावरण से संघर्ष करना पड़ता है। दूसरे शब्दों में, जहाँ प्रकृति में जीने के लिए नाना प्रकार के • साधन उपलब्ध हैं वहाँ उनमें जीवन को समाप्त करने के तत्त्व जैसे सर्दी, गर्मी, वर्षा, तूफान,भूचाल, जंगल, जानवर स्वयं असामाजिक मनुष्य इत्यादि मौजूद हैं जो कि विश्व को मानवहीन करने हेतु पर्याप्त हैं। लेकिन शिक्षा मानव को इन तत्त्वों पर विजय प्राप्त करने योग्य बनाती रहती है और इस प्रकार वह प्रकृति की शक्तियों का प्रयोग कर जीवन की निरंतरता को बनाए रखने में योगदान प्रदान करती है। इस सन्दर्भ में एक विद्वान ने लिखा है, “शिक्षा के अभाव में व्यक्ति बोलने तथा विचार करने के अयोग्य ही नहीं रहेगा बल्कि वह संसार में अपने जीवन की रक्षा भी नहीं कर सकेगा जो उसके चारों तरफ अस्तित्व के लिए संघर्ष प्रस्तुत करती है।”
11.अनुभवों का पुनर्संगठन एवं पुनर्रचना-मानव जीवन में शिक्षा का अन्तिम महत्त्वपूर्ण कार्य है (व्यक्ति जो जीवन-यात्रा में अनेक अनुभवों को प्राप्त करता है) उनका पुनर्संगठन एवं पुनर्रचना करना। शिक्षा के इस कार्य से व्यक्ति अपनी भावी प्रगति हेतु अतीत का उपभोग करने में समर्थ होगा। जॉन ड्यूवी ने इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए लिखा है, “प्रत्येक दृष्टिकोण से जीवन का मुख्य उद्देश्य यह है कि वह अपने प्रत्येक क्षण के अनुभव द्वारा जीवन को समृद्ध बनाये।”
इस प्रकार मानव-जीवन में शिक्षा का कार्य समाज के हर सदस्य की सभी शक्तियों, क्षमताओं एवं गुणों का विकास करना है ताकि वे अपना सर्वांगीण विकास कर निर्दिष्ट लक्ष्य की ओर बढ़ सके। इस लक्ष्य पर जोर देते हुए एमरसन ने ठीक ही लिखा है, “शिक्षा इतनी व्यापक होनी चाहिए जितना मनुष्य। उसमें जो भी शक्तियाँ हैं शिक्षा को उन्हें पोषित एवं प्रदर्शित करना चाहिए।”
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