महीपाल प्रथम ( 912-942 ई.)
महीपाल प्रथम ने सन् 912 ई. में प्रतिहार वंश की सत्ता सम्भाली। महीपाल प्रथम एक योग और कुशल सम्राट था। उसने अपने वंश की खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त किया और अपने साम्राज की रक्षा की। प्रतिहार शासक महीपाल प्रथम के साम्राज्य विस्तार और उपलब्धियों का वर्णन निम्न है
राष्ट्रकूटों से संघर्ष- महीपाल प्रथम का समकालीन राष्ट्रकूट शासक इन्द्र तृतीय था । खम्पा (कैम्बे) ताम्रपत्र लेख से पता चलता है कि राष्ट्रकूट इन्द्र तृतीय की सेनाओं ने मालवा से होते हुए न नदी को पार किया, तत्पश्चात् कन्नौज (महोदय) पर अधिकार कर लिया। प्रतिहार नरेशों की वैभवपूर्ण राजधानी को नष्ट कर दिया तथा हाथियों के प्रहार से कालप्रिय मन्दिर का प्रांगण भी ध्वस्त हो गया। कालय मन्दिर कहाँ पर था, इस पर विद्वानों में मतभेद है। कुछ इतिहासकार महाकाल मन्दिर को है कालप्रिय मन्दिर मानते हैं। महाकाल मन्दिर उज्जैन में है। अतः इन्द्र तृतीय उज्जैन होता हुआ कन्नोज को पहुँचा था परन्तु डॉ. अवस्थी का कथन है कि कालप्रिय का तात्पर्य काल्पी से हैं क्योंकि उज्जैन के रा में यमुना नदी नहीं पड़ती है, बल्कि काल्पी ही यमुना के तट पर बसा हुआ। है।
डॉ. आर. एस. त्रिपाठी का कथन है कि ‘महिपाल अपने शत्रुओं द्वारा बड़ी तेजी से पछाड़ा जाता हुआ अपनी राजधानी से भाग गया। बाद में हर्षदेव चन्देल ने अपना पुनः अधिकार छिन्न-भिन्न साम्राज्य पर स्थापित करने में शाही शासक की सहायता की।’
यह युद्ध 916 ई. के आस-पास हुआ था। परन्तु महीपाल प्रथम ने पुनः अपनी लुप्त शक्ति को प्राप्त कर लिया था। डॉ. रमेश चन्द्र मजूमदार का कथन है कि अपनी लुप्त शक्ति को प्राप्त करने के लिए महीपाल प्रथम की सहायता सामन्त चन्देल राजा हर्ष ने की थी। परन्तु डॉ. मजूमदार के इस कथन को अधिकांश विद्वान स्वीकार नहीं करते हैं क्योंकि खजुराहो अभिलेख में वर्णित चन्देल राजा हर्ष द्वारा महीपाल प्रथम की सहायता करने की बात, उसके उत्तराधिकार के युद्ध के समय की है अर्थात् भोज द्वितीय को पदच्युत करने में चन्देल राजा हर्ष ने महीपाल की सहायता की थी।
क्षेमीश्वर कृत [चण्डकोशिकम् नाटक से विदित होता है कि महीपाल ने कर्नाटक पर अपन अधिकार कर लिया था। डॉ. रमेश चन्द्र मजूमदार का कथन है कि इस नाटक का महीपाल प्रतिहार नरेश महीपाल प्रथम ही था। इतिहासकारों का ऐसा अनुमान है कि इन्द्र तृतीय की मृत्यु (927 ई.) के पश्चात् अमोघवर्ष द्वितीय राजा हुआ परन्तु गोविन्द चतुर्थ अपने भाई की हत्या कर स्वयं राष्ट्रकूट शासक बना। परन्तु 936 ई. में उसका चाचा अमोघवर्ष तृतीय गोविन्द चतुर्थ को हटाकर शासक बना। इस प्रकार राष्ट्रकूट के आन्तरिक संघर्ष का लाभ महीपाल ने अवश्य लिया। जिस प्रकार राष्ट्रकूट शासक इन्द्र तृतीय ने प्रतिहार वंश के आन्तरिक संघर्ष (भोज द्वितीय एवं महीपाल के मध्य युद्ध का लाभ उठाया) उसी प्रकार प्रतिहार नरेश महीपाल प्रथम ने भी राष्ट्रकूट वंश के आन्तरिक संघर्ष (अमोघवर्ष द्वितीय, गोविन्द चतुर्थ एवं अमोघवर्ष तृतीय के मध्य युद्ध) का लाभ उठाया। राजशेखर का भी कथन है कि महीपाल प्रथम ने न केवल उत्तरी भारत में ही प्रत्युत सुदूर दक्षिण में केरल तक अपनी विजय पताका फहरायी गयी थी ।
अमोघवर्ष तृतीय (933-940 ई.) के शासनकाल में प्रतिहार एवं राष्ट्रकूट संघर्ष पुनः होता है। देहली अभिलेख में विदित होता है कि महीपाल प्रथम के शासन के अन्तिम समय में राष्ट्रकूट राज्य का युवराज कृष्ण ने उत्तरी भारत पर आक्रमण किया तथा अपनी कोप दृष्टि से अनेक दुर्गों पर अधिकार कर लिया तो गुर्जर राजा (महीपाल प्रथम) को कालिंजर एवं चित्रकूट पर अपने अधिकार की आशा छोड़ देनी । पड़ी।
इससे स्पष्ट होता है कि गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य के कतिपय भाग राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय के अधीन हो गये। इस प्रकार गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य की राजशक्ति क्षीण होने लगी। पाल वंश से सम्बन्ध महीपाल प्रथम राष्ट्रकूट शासक इन्द्र तृतीय से पराजित होने के पश्चात्
अपने वंश की प्रतिष्ठा व पुनरुद्धार के लिए इतना व्यस्त था कि उसने पाल वंश की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। इस समय पाल वंश की अवनति का काल था। उनके नरेशों में इतनी शक्ति न थी कि वह गुर्जर प्रतिहार वंश पर आक्रमण कर सकें।
पाल वंश के नरेश राजपाल (908-932 ई.) एवं उसका पुत्र गोपाल (932-949 ई.) महीपाल प्रथम के समकालीन थे। किसी भी अभिलेख से यह विदित नहीं होता है कि महीपाल प्रथम एवं पाल वंश के मध्य युद्ध हुआ हो। दूसरी ओर पाल अभिलेखों से इतना अवश्य विदित होता है कि इस अवनति काल में भी पाल नरेशों के अधीन मगध एवं बंगाल थे।
अन्य विजय- राजशेखर महीपाल प्रथम का भी गुरू एवं संरक्षक था। राजशेखर ने प्रतिहारों एवं चन्देलों की मित्रता की भी प्रशंसा की है क्योंकि चन्देल सामन्त हर्ष की सहायता से ही उसने भोज द्वितीयm को पदच्युत किया था। राजशेखर ने महीपाल की विजय का उल्लेख किया है जिससे विदित होता है कि महीपाल प्रथम ने मुरल, मेकल, कलिंग, केरल, कुतूत, कुतंल, एवं रमण पर अपना अधिकार स्थापित किया था। इन स्थानों के विषय पर विवेचन हम निम्न रूपों में कर सकते हैं।
- मुरल- मुरत दक्षिण का प्रदेश था। डॉ. अवस्थी का कथन है कि यह हैदराबाद प्रान्त का उत्तरी भाग था। डॉ. पाण्डेय का कथन है कि यह नर्मदा नदी की तटीय जाति के निवासी थे, जहाँ महीपाल प्रथम ने अपना अधिकार स्थापित किया था।
- मेकल- मेकल मध्य भारत का पर्वतीय प्रदेश था। राजशेखर के वर्णन से विदित होता है कि मेकल चेदि राज्य था जहाँ कलचुरि शासक राज्य करते थे।
- कलि कलि उड़ीसा प्रदेश का भाग था।
- केरल- यह दक्षिण का भाग है जहाँ चेर जाति रहती थी।
- कुलूत- कुलूत (कुल्लू) उत्तरी पंजाब का भाग है।
- कुन्तल यह भी दक्षिण का प्रदेश है। राजशेखर ने कर्पूरमंजरी में विदर्भ नगर को कुन्तल ही स्थित माना है।
- रमठ रमठ की स्थिति कुलूत के समीपवर्ती क्षेत्र की थी। इसे भी हम पंजाब का ही एक प्रान्त मान सकते हैं।
यदि महीपाल के गुरु एवं संरक्षक राजशेखर की बात सत्य मान ली जाये तो इसमें सन्देह नहीं कि उसने न केवल उत्तरी भारत में ही, प्रत्युत् सुदृढ़ दक्षिण में भी अपने साम्राज्य का विस्तार किया। यहाँ यह स्मरणीय है कि उसको सुदूर दक्षिण में सफलता राष्ट्रकूट के आन्तरिक संघर्ष के समय ही प्राप्त हुई थी। डॉ. मजूमदार का कथन है- ‘यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि प्रतिहार साम्राज्य सुरक्षित रहा तथा सम्भवतः महीपाल के समय में उसकी सीमाओं का विस्तार हुआ।
अरब यात्री अल मसूदी 915 ई. में महीपाल प्रथम के पंजाब राज्य में आया था। उसने 943 ई. में ‘मुरूज-उल्-जहान’ नामक ग्रन्थ में उसने ‘बऊर’ एवं ‘बहर’ शब्द का प्रयोग किया है। ‘बउर’ से उसका तात्पर्य प्रतिहार राज्य एवं ‘बल्हर’ से उसका तात्पर्य राष्ट्रकूट राज्य से हैं। उसने अपने ग्रन्थ में लिखा है कि बऊर बल्हर से ईर्ष्या करता था। बऊर का साम्राज्य विस्तृत था। उसके साम्राज्य में सिन्धु भी था। उसके पास एक विशाल सेना थी। उसने चारों दिशाओं में अपनी सेना की एक-एक टुकड़ी नियुक्त कर दी थी। प्रत्येक टुकड़ी में सैनिकों की संख्या 7 एवं 9 लाख के मध्य थी।
पाल वंश के प्रारम्भिक इतिहस का वर्णन करते हुए धर्मपाल के शासन काल पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
महीपाल के सामन्त – चाप वंश, कलचुरि वंश एवं गुहिल वंश के राजा प्रतिहार नरेश महीपाल प्रथम के सामन्त थे
(अ) चाप वंश – काठियावाड़ के चाप वंश का महासामन्त धरणी वराह था। हड्डल अभिलेख से विदित होता है कि धरणी वराह महीपाल प्रथम का अत्यन्त राजनिष्ठ सामन्त था।
(ब) कलचुरि वंश – मिहिरभोज ने गोरखपुर के कलचुरि गुणाम्बोधिदेव द्वारा बंगाल युद्ध में सहायता देने के कारण प्रसन्न होकर कुछ भूमि दान के रूप में दी थी। वह मिहिरभोज का सामन्त था। कल्हण अभिलेख से विदित होता है कि गुणाम्बोधिदेव का पुत्र भामन देव भी महीपाल प्रथम का सामन्त था। उसने धारा के परमारों के विरुद्ध युद्ध किया था।
(स) गुहिल वंश- गुहिल वंश भी प्रतिहारों के अधीन था। जयपुर के दक्षिण से प्राप्त चाटसू अभिलेख से विदित होता है कि राजा हर्षराज मिहिरभोज का अनन्य भक्त था। राजा हर्षराज का पुत्र गुहिल था। गुहिल महीपाल प्रथम का सामन्त था ।
इन सामन्तों के अतिरिक्त शाकम्भरी चामान वंश के राजा एवं जेजकमुक्ति के चन्देल वंश के राजा भी महीपाल प्रथम के सामन्त थे। महीपाल की मृत्यु लगभग 942 ई. में हुई।
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