मनोवैज्ञानिक दृष्टि से निर्देशन की आवश्यकताएं क्या है ?

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से निर्देशन

प्रत्येक मानव का व्यवहार मूल प्रवृत्ति एवं मनोभावों द्वारा प्रभावित है। उसकी मनोशारीरिक आवश्यकताएँ होती है। इन आवश्यकताओं की सन्तुष्टि एवं मनोभाव व्यक्ति के व्यक्तित्व को निश्चित करते हैं। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से यह स्पष्ट हो गया है कि व्यक्तित्व पर आनुवंशिक के साथ-साथ परिवेश का भी प्रभाव पड़ता है। निर्देशन सहायता द्वारा यह निश्चित होता है कि किसी बालक के व्यक्तित्व के विकास के लिए कैसा परिवेश चाहिए।

(1) वैयक्तिक भिन्नताओं का महत्व (The Importance of individual Differences)-

यह तथ्य सत्य है व्यक्ति एक-दूसरे से मानसिकता संवेगात्मक तथा गतिशील आदि दशाओं में भिन्न होते है। इसी कारण व्यक्तियों के विकास तथा सीखने की भी मित्रता होती है। प्रत्येक व्यक्ति के विकास का क्रम विभिन्न होता है तथा उनके सीखने की योग्यता तथा अवसर विभिन्न होते है। यह वैयक्तिक विभिन्नता वंशानुक्रम तथा वातावरण के प्रभाव से पनपती है। एक बालक कुछ लक्षणों को लेकर उत्पन्न होता है तो उसकी व्यक्तिगत योग्यता को निर्धारित करते हैं। यह गुण वंशानुक्रम से प्राप्त होते है इसीलिए बालकों में भिन्नता होती है। इसी प्रकार प्रत्येक बालक के पालन पोषण में सम्बन्धित वातावरण दूसरों से भिन्न होता है। अतएव जो गुण यह अर्जित करता है यह भी दूसरों से भित्र होते हैं। यह वैयक्तिक भेद बुद्धि, शारीरिक विकास, ज्ञानोपार्जन, व्यक्तित्व, सुझाव, संवेगात्मक, गतिवाही योग्यता आदि सभी आधारों पर विद्यमान रहते है।

( 2 ) सन्तोषप्रद समायोजन (Statisfactory

सन्तोषप्रद समायोजन व्यक्ति की कार्य कुशलता, मानसिक, दशा एवं सामाजिक प्रवीणता को प्रभावित करने वाला एक प्रमुख कारक है। सामाजिक, शैक्षिक व्यायोजन राष्ट्र के लिए घातक होता है। व्यक्ति संतोषजनक समायोजन उसी दशा में प्राप्त कर पाता है जबकि उसको अपनी रूचि एवं योग्यता के अनुरूप व्यवसाय विद्यालय या सामाजिक समूह प्राप्त हो। निर्देशन सेवा इस कार्य में छात्रों की विभिन्न विशेषताओं का मूल्यांकन करके उनके अनुरूप ही नियोजन दिलवाने में अधिक सहायक हो सकती है।

(3 ) भावात्मक समस्याएँ (Emotional Problems)-

भावात्मक समस्याएँ व्यक्ति के जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों के कारण जन्म लेती है ये भावात्मक समस्याएँ व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करके उसकी मानसिक शान्ति में विघ्न पैदा करती है। निर्देशन सहायता द्वारा भावात्मक नियन्त्रण में सहायता मिलती है इसके साथ ही निर्देशक टन कठिनाइयों का पता लगा सकता है जो भावात्मक अस्थिरता को जन्म देती है।

( 4 ) अवकाश-काल का सदुपयोग (Proper Use of Leisure Time) –

विभिन्न वैज्ञानिक यन्त्रों के फलस्वरूप मनुष्य के पास अवकाश का अधिक समय बचा रहता है। वह अपने कार्यों को यन्त्रों के माध्यम से सम्पन्न कर समय बचा लेता है। इस बचे हुए समय को किस प्रकार उपयोग में लाया जाय, यह समस्या आज भी हमारे सम्मुख खड़ी हुई है। समय बरबाद करना मनुष्य तथा समाज दोनों के अहित में है और समय का सदुपयोग करना समाज तथा व्यक्ति दोनों के लिए हितकर है। अवकाश के समय को विभिन्न उपयोगी कार्यों में व्यय किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, अवकाश के समय में समाज सेवा का कार्य, सुनागरिकता सम्बन्धी विभिन्न कार्य तथा अन्य उपयोगी क्रियाएं की जाती है। मनुष्य अवकाश काल में सिर्फ विश्राम करना जानता है, पर विश्राम के अतिरिक्त अन्य प्रकार के मनोरंजन का उसे ज्ञान नहीं है। यह ज्ञात कराना निर्देशन का काम है।

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( 5 ) व्यक्तित्व का विकास (Develoment of Personality)-

व्यक्तित्व शब्द की परिभाषा व्यापक हैं इसके अन्तर्गत मनोशारीरिक विशेषताएँ एवं अर्जित गुण आदि सभी सम्मिलित किये जाते हैं।

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