भोज परमार की राजनैतिक उपलब्धियों पर प्रकाश डालिए।

भोज परमार (100 ई-1055 ई.)- भोज, परमार वंश का सबसे प्रसिद्ध और शक्तिशाली शासक था। वह अपने पिता सिन्धुराज की मृत्यु के बाद लगभग 100 ई. में परमार वंश के सिंहासन पर बैठा। उसके शासनकाल का इतिहास जानने के अनेक महत्वपूर्ण श्रोत प्राप्त होते हैं। इनमें भोज चरित्र विक्रमांकदेव चरित्र, उदयपुर प्रशस्ति और कल्पन अभिलेख प्रमुख है। भोज परमार ने लगभग 55 वर्षों तक शासन किया। वह एक योग्य शासक और महानविजेता था। अपनी दिग्विजयों द्वारा उसने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया था। उसने केवल राजनैतिक उपलब्धियों ही हासिल नहीं की बल्कि सांस्कृतिक दृष्टि से उसका काल रापजूत काल का स्वर्णयुग कहा जा सकता है।

भोज की राजनैतिक उपलब्धियाँ

भोज एक महान शासक था। अभिलेखों ने पृथु के समान चक्रवर्ती सम्राट के रूप में उसकी प्रशंसा की है। वह अपने उत्तराधिकार से प्राप्त राज्य से सन्तुष्ट न था इसलिए उसने अपने साम्राज्य का विस्तार किया। उदयपुर प्रशस्ति से उसकी दिग्विजय पर प्रकाश पड़ता है कि उसने अपने छोटे से साम्राज्य को एक बहुत बड़े साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया भोज की उपलब्धियों (विजय) का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखत है

(1) कल्याणी के चालुक्यों से युद्ध – जिस समय भोज गद्दी पर बैठा, निश्चय ही उसके मन में गुंज के हत्यारे तैलप द्वितीय से बदला लेने की भावना जागृत हुई होगी। मेरुतुंग के वर्णन से विदित होता है कि भोज नरेश ने अपनी राजसभा में ‘तैलप द्वारा मुंज वध’ नाटक को देखा जिससे उसके मन में प्रतिशोध की भावना अत्यधिक तीव्र हो गयी। भोज ने अपनी विशाल सेना को लेकर तैलप द्वितीय के ऊपर आक्रमण कर दिया और तैलप द्वितीय को बन्दी बनाकर उसका वध कर दिया। इस प्रकार की कथा ‘भोज चरित्र’ में भी वर्णित है।

तैलप द्वितीय की मृत्यु 997 ई. में हो चुकी थी। भोज का जिससे युद्ध हुआ होगा वह तैलच द्वितीय नहीं था। डॉ. पण्डारकर का मत है कि भोज द्वारा पराजित तैलप द्वितीय का उत्तराधिकारी विक्रमादित्य पंचम था। परन्तु विद्वान ओझा का मत है कि इस समय भोज का समकालीन कल्याणी का शासक जयसिंह द्वितीय (1015-1042 ई.) या। कुलेनूर अभिलेख से विदित होता है कि भोज ने कल्याणी के चालुक्य को पाक्ति करने के लिए त्रिपुरी के कलचुरि नरेश गांवदेव विक्रमादित्य एवं चोलराव राजेन्द्र प्रथम से सहायता प्राप्त की थी।

परन्तु अन्त में बेलगाँव अभिलेख से ज्ञात होता है कि जयसिंह द्वितीय ने भोज एवं उनके मित्रों को पराजित कर दिया। परन्तु डॉ. रे का विचार है कि भोज के दान में कोकण विजय स्पष्ट है। अतः जयसिंह द्वारा भोज की पराजय की बात पर विश्वास नहीं किया जा सकता।

(2) लाट एवं कोंकण की विजय- उदयपुर प्रशस्ति से विदित होता है कि भोज ने लाट नरेश पर विजय प्राप्त की थी। भोज का समकालीन लाट नरेश कीर्तिराज था। कल्वन अभिलेख से भी भोज द्वारा लाट विजय की पुष्टि होती है। भोज ने लाट पर यशोवर्मा को प्रशासक नियुक्त किया था। लाट पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् भोज ने कोंकण पर भी विजय प्राप्त की। इस समय कोंकण का राजा शीलाहार वंश का केशिदेव था।

( 3 ) चेदीश्वर युद्ध- उदयपुर प्रशस्ति में चेदीश्वर (कलचुरि नरेश विजय का उल्लेख मिलता है। कर्णाट के आक्रमण के समय कलचुरि नरेश ने भोज की सहायता की थी परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ समय के पश्चात् किन्हीं कारणों से कलचुरि नरेश गांगेय एवं भोज परमान प्मे वैमनस्य हो गया भोज ने त्रिपुरी पर आक्रमण कर गांगेयदेव को पराजित किया। इस पराजय का उल्लेख कल्चन अभिलेख में भी है।

(4) इन्द्ररथ विजय- उदयपुर प्रशस्ति से विदित होता है कि भोज ने इन्द्ररथ को पराजित किया था इन्द्ररथ आदि नगर का नरेश था। डॉ. गांगुली का मत है कि आदि नगर उड़ीसा के गंजाम जिले का मुखलिंगम् नामक स्थान है।

( 5 ) तोग्गल एवं तुरुष्क विजय- उदयपुर प्रशस्ति में तोम्गल एवं तुरुष्क विजय का भी वर्णन मिलता है। प्रतिपाल भाटिया का कथन है कि तोग्गल महमूद गजनवी का कोई सिपहसालार था। डॉ. रे का कथन है कि सन् 1022 ई. के अन्त में महमूद गजनवी ग्वालियर की ओर आक्रमण करने के लिए बढ़ा था, उसी समय भोज से उसका संघर्ष हुआ होगा। 1044 ई. में दिल्ली के राजा ने गजनवी सूबेदार से हाँसी, वानेश्वर एवं काँगड़ा को छीन लिया और इन स्थानों पर पुनः हिन्दू देवी-देवताओं को प्रतिष्ठित किया गया। सम्भव है दिल्ली के राजा की भोज ने सहायता की हो।

(6) चन्देलों से युद्ध – मालवा के पूर्व में चन्देलों का राज्य था। इस समय चन्देल वंश का नरेश विद्याधर था, जो अत्यधिक प्रतापी शासक था। एक चन्देल अभिलेख से विदित होता है कि कलचुरिचन्द्र (गांगेयदेव) एवं भोज विद्याधर की आराधना करते थे। इससे विदित होता है कि भोज चन्देल नरेश विद्याधर द्वारा पराजित हुआ था परमार अभिलेखों में इस युद्ध का कोई उल्लेख नहीं है।

(7) कच्छपघाट वंश से युद्ध- कच्छपघात वंश का राजा कर्तिराज था, जो चन्देलों के अधीन थे। ग्वालियर के सास-बहू अभिलेख के अनुसार भोज ने जब ग्वालियर पर आक्रमण किया, तब कीर्तिराज ने भोज को बुरी तरह पराजित किया। सम्भव है कि चन्देल नरेश विद्याधर ने अपने अधीनस्य राज्य कच्छपघात के राजा कीर्तिराज की मदद की हो। परन्तु विद्याधर की मृत्यु के पश्चात् कच्छिपघात वंश ने पतनोन्मुख चन्देल वंश की अधीनता को त्याग कर भोज की अधीनता स्वीकर कर ली।

(8) गुजरात के चालुक्यों से युद्ध – गुजरात के चालुक्यों एवं भोज के मध्य सम्बन्ध पहले से ही खराब थे। भोज का समकालीन गुजरात का चालुक्य नरेश चामुण्डराज था। अपने शासन के अन्तिम समय में चामुण्डराज सिंहासन का बोझ अपने पुत्र को देकर तीर्थयात्रा के लिए काशी को चल पड़ा। रास्ते में मालवा पड़ा। मालवा नरेश भोज ने चामुण्डराज को अपमानित करने के लिए उसका वस्त्र उतरवा लिया और उसको संन्यासी देश में तीर्थयात्रा करने के लिए विवश किया। मुण्डराज जब अपने राज्य पहुँचा तो उसका पुत्र बल्लभराज अत्यधिक क्रुद्ध हुआ और भोज के ऊपर आक्रमण करने के लिए अपनी

सेना के साथ चल पड़ा, परन्तु रास्ते में ही बल्लभराज की मृत्यु हो गयी। कुछ समय के पश्चात् गुजरात का शासक भी पराजित हुआ। उदयपुर प्रशस्ति से विदित होता है। कि भोज ने गुजरात नरेश भीम प्रथम को पराजित किया था। मेरुतुंगकृत प्रबन्धाधिनतामणि से भी इसकी पुष्टि होती है।

(9) भोज के अन्तिम समय में युद्ध- जब भोज वृद्ध हो गया, उसके शत्रुओं ने चारों ओर से उसके ऊपर आक्रमण करने की योजना बनायी। दक्षिण-पूर्व में कलचुरि नरेश लक्ष्मीकर्ण अपने पिता गांगेयदेव की पराजय का बदला भोज से लेने को तैयार था। पश्चिम में गुजरात का भीम प्रथम अपनी पराजय का प्रतिशोध लेने को तैयार था तथा दक्षिण में सोमेश्वर प्रथम अपने पिता जयसिंह की पराजय का बदला लेना चाहता था।

कल्याणी के चालुक्य नरेश जयसिंह द्वितीय के पुत्र सोमेश्वर प्रथम ने भोज की वृद्धावस्था में मालवा पर आक्रमण कर दिया। इस भीषण आक्रमण के कारण भोज को अपनी प्राण रक्षा के लिए राजधानी से भागना पड़ा। सोमेश्वर प्रथम ने भोज की राजधानी धारा में खूब लूट-पाट की। इसी समय कलचुरि नरेश लक्ष्मीकर्ण एवं गुजरात नरेश भीम प्रथम ने भी आक्रमण कर दिया। इन युद्धों के कारण 1055 ई. में अत्यधिक चिन्तित और रोगग्रस्त हो जाने के कारण भोज की मृत्यु हो गयी।

भोज का साम्राज्य विस्तार उदयपुर प्रशस्ति से भोज के साम्राज्य विस्तार पर प्रकाश पड़ता है। उसके अनुसार उसका साम्राज्य कैलाश पर्वत से मलयगिरि तक तथा उदयांचल से अस्वांचल तक था। भोज का साम्राज्य मेवाड़, मिलसा, खानदेश, कोंकण एवं गोदावरी घाटी के समस्त उत्तरी भाग तक विस्तृत था

भोज की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ एवम् मूल्यांकन

भोज प्राचीन भारत के महानतम शासकों में से एक था। वह एक विद्वान भी था। वह राजनीति, ज्योतिष, काव्य, वास्तुकला और चिकित्साशास्त्र का महान ज्ञाता था। उसकी सांस्कृतिक उपलब्धियाँ महान थी विभुवन नारायण महाराजाधिराज परमेश्वर, सार्वभौम एवं मालव चक्रवती जैसी अनेक उपाधियाँ धारण करने वाला भोज परमार अपनी राजनैतिक उपलब्धियों के कारण उतना प्रसिद्ध नहीं था जितना कि विद्यानुराग, प्रकाण्ड पाण्डित्य, विद्या और साहित्य के संवर्धन में योगदान के कारण प्रसिद्ध था। भोज ने अपनी राजधानी उज्जैन से हटाकर धारा नगरी बनायी जो शीघ्र ही विद्या और कला के केन्द्र के कारण भारत की बौद्धिक राजधानी के रूप में परिणित हो गयी। उदयपुर प्रशस्ति में भोज को कविराज की संज्ञा दी गयी। भोज स्वयं एक महान कवि, विद्वान लेखक था। उसने सभी शास्त्रों पर समान अधिकार प्राप्त किया तथा अनेक पुस्तकों का सृजन किया जिनमें आदित्य सिद्धान्त, ज्योतिष ग्रन्थ आयुर्वेद सर्वस्त, रामायण चाणक्य नीति, सिद्धान्त संग्रह, प्रश्न चिन्तामणी, भोजराज वातिक नाम मालिका, श्रृंगारमंजरी, शब्दानुशासन, सरस्वती, कष्ठाभरण प्रमुख है।

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वह विद्वानों का आश्रयदाता तथा कला का संरक्षक था, वह भारत के स्मरणीय व्यक्तियों में से एक है। उसके दरबार में धनपाल, उपर और दामोदर मित्र आदि विद्वान शोभायमान थे। धनपाल का भाई शोधन तथा कवियित्री सीता भी उसके दरबार में थी भोज की रानी अरुन्धती भी एक विदुषी महिला थी। भोज की आज्ञा से ही दामोदर मिश्र ने ‘हनुमानाहक’ की रचना की और भोज की कविताओं का शब्द प्रबोध नामक संग्रह तैयार किया। धनपाल ने तिलक मंजरी की रचना की थी। भोज की विद्वता, साहित्य प्रेम तथा विद्वानों को आश्रय देने की प्रवृत्ति की चर्चा करते हुए केदृएमदृ मुंशी ने भोज को मध्यकालीन भारत का महान व्यक्ति कहा है। ऐसी ही धारणा इतिहासकार की की भी है। भारत में उसे बौद्धिक सम्राट की संज्ञा प्राप्त है।

यो एक महान निर्माता भी था। उसने अपनी राजधानी धारा को सुन्दर मन्दिरों एवं भव्य भवन से सजाया हुआ था। धारा का सबसे प्रसिद्ध मन्दिर शारदा सदन या सरस्वती भवन था। भोजपुर नामक नगर की भी उसने स्थापना की थी। उसके समीप एक झील बनवायी जिसे भोजसर कहते हैं। अपने राज् में शिक्षा के प्रसार हेतु उसने अनेक विद्यालयों की स्थापना की थी। इस प्रकार भोज एक महान विजेता ही नहीं अपितु एक महान साहित्यकार, साहित्य प्रेमी और धार्मिक उदार शासक था। विल्हण के अनुसार भोज के समान कोई दूसरा शासक नहीं था। मोज की मृत्यु हो जाने पर कवि द्वारा कहे गये निम्न शब्द सत्य प्रतीत होते हैं

अद्यधारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती। पण्डितः खझिडत सर्वे भोजराजे दिवंगते।

अर्थात “आज भोज राज के दिवंगत हो जाने पर धारा (नगरी) निराधार हो गयी है। सरस्वती निरालम्ब हो गयी है और सभी पण्डित अपने आश्रम से लुट गये हैं। निःसन्देह भोज परमार वंश का सबसे प्रतापी एवं प्रसिद्ध शासक था और वह भारत के महानतम् शासकों में गणना किये जाने योग्य है ।

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