भारत में शिक्षा में समानता का क्या अर्थ है ? शिक्षा में समानता की क्या अथवा आवश्यकता है ? शिक्षा में समानता लाने के कुछ उपाय बताइये।

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प्राचीन समय से ही या वैदिक काल से लेकर बौद्ध काल तक शिक्षा में समानता का पूर्ण प्रचलन था। गुरु-गृहों, आश्रमों, संघों, बिहारों तथा मठों से सभी वर्ण, वर्ग तथा जातियों के बालक अपनी व्यक्तिगत योग्यता के आधार पर समान रूप से एक गुरु से एक छत के नीचे बिना किसी भेदभाव के शिक्षा ग्रहण करते थे। राज परिवार कुलीन परिवार तथा जनसाधारण के बालको में आश्रम में कोई अन्तर नहीं किया जाता था शिक्षा के द्वार समान रूप से सबके लिए खुले थे। ..श्रीकृष्ण तथा सुदामा का उदाहरण आज भी हमारे सामने है। उपनिषद, वेदान्त, जैन तथा बौद्ध काल में भी समतावादी विचारधाराओं को समर्थन प्राप्त था। अरस्तू ने भी आनुपातिक समानता के सिद्धान्त के द्वारा यह सुझाव दिया कि व्यक्ति को उसकी स्वयं की योग्यता के आधार पर प्रतिष्ठित करना चाहिए। पश्चिमी दार्शनिकों में हाब्स तथा लॉक जैसे दार्शनिकों ने भी समानता की विचारधारा का खुलकर समर्थन किया।

ऐतिहासिक दृष्टि से अवलोकन करें तो पाते हैं कि बौद्ध काल के उपरान्त जब जाति प्रथा पूरी तरह प्रतिष्ठित हो गयी, भारत में मुगलों के आक्रमण प्रारम्भ हो गये, तभी से शिक्षा के क्षेत्र में समानता के सिद्धान्त को छोड़ दिया गया। अब शिक्षा केवल उच्च जाति के बालकों के लिए ही सीमित कर दी गयी। अछूत या शूद्र तथा महिलाओं के लिए सभी प्रकार की शिक्षा के द्वारा बन्द हो गये। अंग्रेजी शासन के आते ही यह स्थिति और भी खराब हो गयी। अंग्रेजी शासनकाल में शिक्षा केवल उच्च या धनी वर्ग के लिए थी। अब शिक्षा का अधिकार केवल सम्पन्न व्यक्तियों के बालकों तक ही सीमित रह गया। इस युग में निर्धन तथा निम्न वर्ग के बालक तथा महिलाएँ शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकती थीं। अब धर्म, जाति, वर्ग, लिंग तथा सम्प्रदाय शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार का निर्धारण करने लगे। इस प्रकार शिक्षा के क्षेत्र से समानता का प्रत्यय पूरी तरह समाप्त हो गया। स्वतंत्रता के उपरान्त भारत में प्रजातांत्रिक प्रणाली अपनायी गयी। संविधान में भी मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की गयीं। इससे पुन: शिक्षा के क्षेत्र में समानता का आधार प्रस्तुत हो गया है। सरकारी प्रयास भी शिक्षा के उन क्षेत्रों की ओर अधिक ध्यान दे रहे हैं जो अपेक्षाकृत पिछड़े हुए हैं।

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(क) समानता से आशय

शिक्षा के क्षेत्र में समानता शब्द का प्रयोग एक अर्थ विशेष में प्रयुक्त होता है। साधारण बोलचाल में समानता का अर्थ ‘बराबरी’ से लिया जाता है। यदि समानता को हम बराबरी के अर्थ में लें तो इसका आशय होगा कि सभी को बराबर की शिक्षा दी जाये। यह न केवल अव्यावहारिक ही होगा, वरन अमनोवैज्ञानिक भी होगा। इस अर्थ को यदि हम ले तो इससे हम व्यक्तिगत विभिन्नताओं के व्यावहारिक सिद्धान्त की पूर्ण अवहेलना करते हैं। इस अर्थ में शिक्षा सम्भव भी नहीं है क्योंकि सभी बालकों को समान स्वभाव तथा स्तर की शिक्षा नहीं दी जा सकती है। उदाहरणस्वरूप यदि हम सभी को विज्ञान की शिक्षा देना चाहें तो यह सम्भव नहीं है क्योंकि मानसिक रूप से सभी में विज्ञान की शिक्षा ग्रहण करने की योग्यता भी नहीं होती है। दूसरे कुछ बालकों में मानसिक रूप से प्राथमिक, कुछ में माध्यमिक तथा कुछ में उच्चस्तरीय शिक्षा प्राप्त करने की योग्यता होती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि शिक्षा में समानता का अर्थ सबको बराबर की शिक्षा देना नहीं हो सकता है।

शिक्षा में समानता के अर्थ से हमारा आशय है कि सभी को जाति, वर्ग, सम्प्रदाय, लिंग तथा क्षेत्र के दायरे से निकालकर उनकी योग्यताओं के अनुसार शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर दिये जायें अर्थात् शिक्षा ग्रहण करने के लिए किसी पर भी बन्दिश न हो। सभी स्त्री-पुरुषों को चाहे वे किसी जाति, धर्म, सम्प्रदाय या क्षेत्र के हों, शिक्षा प्राप्त करने की स्वतन्त्रता हो। शिक्षा के द्वार निर्वाध रूप से सभी के लिए खुले हो। शिक्षा के अवसर जुटाने में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करना चाहिए। यदि ऐसा किया जाता है तो यह असमानता या भेदभाव की सीमा में आता है। ‘यूनेस्को’ की एक पुस्तिका के अनुसार, “किसी भी प्रकार ऐसा स्पष्ट भेद, बहिष्कार या सीमांकन भेदभाव में आता है जो जाति, रंग, लिंग, भाषा, धर्म, राजनीति या अन्य विचार राष्ट्रीयता या सामाजिक उद्भव, आर्थिक दशा या जन्म के आधार पर किया जाये।” संक्षेप में, शिक्षा के क्षेत्र में समानता से हमारा आशय शिक्षा के क्षेत्र में अवसरों की समानता से है। और शिक्षा के समान अवसरों से हमारा तात्पर्य शिक्षा प्राप्त करने के लिए सभी को ऐसे समान अवसर देने से है जो जाति, सम्प्रदाय, वर्ण, वर्ग, भाषा, धर्म, राजनैतिक चिन्तन, सामाजिक व आर्थिक स्थिति, राष्ट्रीयता, प्रान्तीयता आदि पर आधारित न हों। इस प्रकार हम पाते हैं कि शिक्षा के क्षेत्र में समानता का अर्थ है शिक्षा प्राप्त करने के अवसरों में समानता का होना। यदि समाज में शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर न हो तो उसे शैक्षिक अवसरों की असमानता कहा जाता है।

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यूरेस्को ने नीचे लिखे तत्वों को शैक्षिक अवसरों की असमानता में सम्मिलित किया है-

  1. जब कोई शिक्षा का स्वरूप या सार, जिसके लिए बालक में आवश्यक योग्यताएँ हैं फिर भी किन्हीं कारणों से वह बालक की पहुँच से बाहर हो या उसके दरवाजे बालक के लिए बन्द हों।
  2. जब योग्यताओं के होते हुए भी किसी बालक को निम्न किस्म की शिक्षा तक ही सीमित रहने को बाध्य कर दिया जाये।
  3. जब बालक को शिक्षा प्राप्त करने के लिए ऐसी परिस्थितियों से गुजरना पड़े जो मानवीय सम्मान के अनुकूल न हों।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि शिक्षा में समानता का अर्थ समान शिक्षा नहीं है।

(ख) शैक्षिक अवसरों की समानता का महत्व-

शैक्षिक अवसरों की समानता के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कोठारी कमीशन ने लिखा है, “शिक्षा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है सबको समान अवसर प्रदान करना, जिससे पिछड़े हुए तथा सामाजिक सुविधाओं से वंचित वर्गों के बच्चे भी अपनी आर्थिक और सामाजिक दशा सुधारने के लिए शिक्षा को साधन के रूप में प्रयुक्त कर सकें। जिस समाज में सामाजिक न्याय को महत्व दिया जाता है और जो सामान्य व्यक्ति की दशा सुधारने का इच्छुक है और समस्त उपलब्ध संसाधनों तथा प्रतिज्ञाओं का उपयोग करना चाहता है, उसे देश के प्रत्येक वर्ग के लोगों को अवसर की समानता प्रदान करनी चाहिए।”

दूसरे जब हम कल्याणकारी राज्य की बात करते हैं तब भी हमें देखना है कि कल्याणकारी राज्य की बात तभी पूरी होती है जब जन-जन का कल्याण सभी क्षेत्रों में सन्तुलित ढंग से हो। इस प्रकार का कल्याण अवसरों की समानता के बिना अधूरा ही रहेगा।

  1. देश की उपलब्ध मानव-शक्ति का विकास करने हेतु सभी के लिए शैक्षिक अवसरों की समानता हो ।
  2. संविधान में वर्णित मूल अधिकारों ने यह आवश्यक कर दिया है कि सभी को शिक्षण प्राप्त करने के समान अधिकार दिये जायें।
  3. प्रजातन्त्र के दर्शन के अनुसार एक राष्ट्र व समाज में स्त्री को समानता का अधिकार है। अतः शिक्षा के अवसरों के क्षेत्र में भी सभी को समानता का अधिकार होना चाहिए।
  4. समाज की आर्थिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक उन्नति इस बात पर निर्भर करती है कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति उस उन्नति में अपना योगदान दे। यह योगदान तभी अधिक लाभकारी होगा, जब सभी को शिक्षा प्राप्त करने का समान अधिकार हो।
  5. शिक्षा के वैयक्तिक उद्देश्यों के समर्थक यह कहते हैं कि सभी व्यक्तियों के व्यक्तिव का सर्वांगीण विकास होना चाहिए। यह तभी सम्भव है जब सभी को अपने व्यक्तित्व का विकास करने के समान अवसर हों।
  6. शिक्षा के सामाजिक उद्देश्यों के समर्थक भी यह तर्क देते हैं कि सामाजिक उन्नति के लिए समाज के प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा के समान अवसर प्राप्त होने चाहिए जिससे यह अपनी सम्पूर्ण प्रतिभाओं का विकास करके सामाजिक उन्नति में अपना श्रेष्ठकर योगदान दे सके।
  7. शिक्षा के समान अवसर गरीब-अमीर, नगरीय ग्रामीण, उच्च-निम्न जैसी संकीर्ण भावनाओं का विकास करते हैं।
  8. यदि किसी उचित व्यक्ति को उसके लिए उपयुक्त सुविधाओं तथा अवसरों से वंचित कर दिया जाये तो इससे मानसिक कुण्ठाएँ जन्म लेती हैं। समाज तथा व्यक्तियों के मानसिक स्वास्थ्य की रक्षार्थ भी शिक्षा के समान अवसरों की व्यवस्था आवश्यक है।

(ग) असमानता का क्षेत्र (Areas of Inequality)-

शिक्षा की दृष्टि से देखें तो पाते हैं कि भारत में निम्नांकित चार वर्गों को शिक्षा के समान अवसर प्राप्त नहीं हैं-

  1. स्त्री शिक्षा- लम्बे समय से प्रमुख रूप से भारत में मुगल शासन से भारतीय समाज नाना कारणों से स्त्री-शिक्षा के प्रति उदासीनता का व्यवहार कर रहा है। स्त्रियों को हमारे समाज में आज भी शिक्षा में पुरुषों के समतुल्य अवसर प्राप्त नहीं हैं।
  2. निम्न वर्ग- उच्च वर्ग की अपेक्षा भारत में निम्न वर्गों को शिक्षा के समान अवसर प्राप्त नहीं हैं। यहाँ हम आर्थिक रूप से दुर्बल वर्ग को भी निम्न वर्ग में सम्मिलित कर रहे हैं।”
  3. पिछड़ी जातियाँ- भारत में अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़ी तथा खानाबदोश जातियों को शिक्षा के समान अवसर प्राप्त नहीं थे, परिणामस्वरूप वे आज भी उतनी उन्नति नहीं कर पायी हैं जितनी कि उन्हें करनी चाहिए।
  4. संस्थाओं में सुविधाओं की असमानता- शिक्षण संस्थाओं में भी शैक्षिक तथा भौतिक सुविधाओं के सम्बन्ध में असमानता पायी जाती है।

(घ) असमानता के कारण (Causes of Inequality)-

शिक्षा के क्षेत्र में अवसरों की समानता न पाये जाने के अनेक कारण हैं, जिन्हें हम अग्रांकित बिन्दुओं में उल्लिखित कर सकते हैं

  1. शिक्षा सुविधाओं का अभाव- शिक्षा सुविधाओं के अभाव के कारण शिक्षा के अवसरों की असमानता पायी जाती है। भारत में शिक्षा सुविधाओं का समान वितरण नहीं है। इस कारण किन्हीं क्षेत्रों में शिक्षा सुविधाएँ अधिक हैं तो किन्हीं में कम जहाँ कम हैं वहाँ के बालक शिक्षा प्राप्त करने के अवसरों से वंचित रह जाते हैं। रेगिस्तान, पहाड़ी क्षेत्र, दुर्गम क्षेत्र, ग्रामीण क्षेत्र में अपेक्षाकृत शिक्षा सुविधाएँ कम पायी जाती हैं। परिणामस्वरूप वहाँ के बालक शिक्षा के अवसरों से वंचित रहा जाते हैं। इसी प्रकार ग्रामीण क्षेत्रों में बालिकाओं को शिक्षा हेतु समान अवसर प्राप्त नहीं हो पाते हैं।
  2. निर्धनता- भारत एक निर्धन देश है। इसके निवासी भी अधिकांशतः निर्धन हैं। परिणामस्वरूप शिक्षा सुविधाओं का विकास पर्याप्त नहीं हो पाया है। साथ ही साथ महँगी होने के तथा अपनी निर्धनता के कारण गरीब व्यक्तियों के बालक शिक्षा के अवसरों से वंचित रह जाते हैं।
  3. सामाजिक वर्ग भिन्नताएँ- भारतीय समाज में अनेक प्रयासों के बावजूद छुआछूत, ऊँच-नीच जैसी भावनाएँ जनमानस के मस्तिष्क में घर किये हुए हैं। परिणामस्वरूप कुछ जाति या वर्ग-विशेष के बालक अभी भी शिक्षा के अवसरों से चंचित हैं या उन्हें पर्याप्त व उचित अवसर प्राप्त नहीं है।
  4. विद्यालयों के स्तर में अन्तर- विद्यालयों के स्तर में भी पर्याप्त अंन्तर दिखाई देता है जिसके कारण कुछ सम्पन्न विद्यालय तो शिक्षा के अच्छे अवसर व सुविधाएँ जुटा पाते हैं जबकि शेष विद्यालय उतने अच्छे व पर्याप्त सुविधाएँ नहीं जुटा पाते। उदाहरण के लिए आर्थिक रूप से सम्पत्र विद्यालयों में अच्छी सुविधाएं होती हैं किन्तु इनमें शिक्षा प्राप्त करना निर्धन बालकों के लिए सम्भव नहीं हो पाता। निर्धन व्यक्ति अपने बालकों को राजकीय विद्यालयों में प्रवेश दिलाकर ही सन्तुष्ट हो जाते हैं जहाँ कि आवश्यक सुविधाओं का भी अभाव रहता है।
  5. सामाजिक दृष्टिकोण में अन्तर- आज भी भारतीय समाज का दृष्टिकोण पर्याप्त उदार नहीं हो पाया है। परिणामस्वरूप माता-पिता अभी भी बालक-बालिकाओं में अन्तर करते हैं। वे बालिका शिक्षा के प्रति अधिक उत्साही नहीं होते हैं, फलत: उन्हें शिक्षा के समान अवसरों से वंचित कर दिया जाता है क्योंकि उनकी शिक्षा अधिक आवश्यक नहीं समझी जाती है। इसी प्रकार मानसिक या शारीरिक रूप से विकलांग बालकों के लिए आज भी शिक्षा के समान अवसर प्राप्त नहीं हैं।
  6. पारिवारिक परिस्थितियों में अन्तर- परिवार की घरेलू परिस्थितियों में असमानता पायी जाती है। कुछ परिवारों का घरेलू वातावरण बच्चों को शिक्षा के अच्छे अवसर प्रदान करता है जबकि कुछ परिवारों के बालकों को शिक्षा के उतने अच्छे अवसर प्राप्त नहीं होते हैं।
  7. क्षेत्रीय विभिन्नताएँ- भारतीय संविधान के अनुसार शिक्षा राज्य सूची का विषय है। परिणामतः पृथक-पृथक राज्यों में शिक्षा सम्बन्धी पृथक-पृथक नीतियाँ तथा सुविधाएँ उपलब्ध होती हैं। उदाहरणार्थ, राजस्थान में सरकारी स्कूलों की भरमार है तो उत्तर प्रदेश में निजी स्कूलों की। किसी राज्य में बहुत अधिक स्कूल हैं तो किसी में बहुत कम किसी राज्य में साक्षरता प्रतिशत बहुत अधिक है तो किसी में बहुत कम। इन समस्त विषमताओं के कारण अलग-अलग राज्यों में शिक्षा सम्बन्धी अवसरों में व्यापक असमानता दिखाई देती है।

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(ङ) असमानता निवारण के उपाय (Measures to Eradicate Inequalities)-

शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त शैक्षिक अवसरों की असमानता को दूर करना देश, समाज व व्यक्ति के लिए अत्यन्त आवश्यक है। इस कार्य के लिए हम नीचे लिखे उपाय काम में ला सकते हैं।

(i) निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था- शिक्षा के समान अवसर प्रदान करने की दिशा से सबसे पहले निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी। भारत में निर्धन व्यक्तियों का प्रतिशत अभी भी इतना अधिक है कि वह शिक्षा-व्यय का भार कठिनाई से ही उठा पा रहा है। अतः शिक्षा को निःशुल्क कर देना चाहिए। शिक्षा को निःशुल्क करने की बात आज से कई वर्ष पूर्व कोठारी कमीशन कह चुका कि विभिन्न समयों में धीरे-धीरे शिक्षा को स्तरानुसार निःशुल्क कर देना चाहिए।

(ii) शिक्षा का सार्वभौमीकरण- शिक्षा को अनिवार्य तथा सार्वभौम करने की व्यवस्था हमारे संविधान में है किन्तु दुर्भाग्यवश संविधान की यह व्यवस्था आज तक पूरी नहीं हो पायी है। यदि एक निश्चित स्तर तक धीरे-धीरे शिक्षा अनिवार्य तथा सर्वांगीण बना दी जाये तो निश्चित ही शिक्षा के क्षेत्र में अवसरों की असमानताएँ कम होंगी।

(iii) छात्रवृत्तियाँ- कोठारी आयोग बड़े उदार शब्दों में प्रतिभाशाली बालकों को बिना किसी पक्षपात के समुचित मात्रा में छात्रवृत्तियाँ देने की बात करता है। छात्रवृत्तियाँ देने से निर्धन तथा निम्न वर्ग और ग्रामीण क्षेत्रों के प्रतिभाशाली बालकों को शिक्षा के अवसरों का पूरा-पूरा लाभ उठाने के अवसर मिलेंगे।

(iv) बालिका शिक्षा के प्रति उदारता का दृष्टिकोण- विभिन्न प्रचार माध्यमों से जनमानस को बालिका शिक्षा का महत्व व उपयोगिता बताकर बालिका शिक्षा के प्रति उनके उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण में परिवर्तन करना होगा, जिससे कि वे अपनी बालिकाओं को भी बालकों के समकक्ष शिक्षा के समान अवसर प्रदान कर सकें।

(v) नये विद्यालयों की स्थापना- सरकार उपयुक्त सर्वेक्षण तथा साधनों से यह पता लगाये कि किन क्षेत्रों में विद्यालयों का अभाव है। उन क्षेत्रों में नवीन विद्यालयों की स्थापना करके इस अभाव को दूर किया जाये। दुर्गम पहाड़ी, रेगिस्तानी, वन-प्रदेशों जैसे क्षेत्रों में नवीन विद्यालयों की स्थापना को प्राथमिकता दी जाये। ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी बालिका विद्यालयों का अभाव है। वहाँ बालिका विद्यालयों की स्थापना की जाये।

(vi) विद्यालय सुविधाओं में वृद्धि– सरकार राजकीय विद्यालयों तथा साधन-सुविधाओं से रहित विद्यालयों को साधन-सुवधाएँ जुटाने के लिए अतिरिक्त अनुदान प्रदान करे जिससे उन विद्यालयों के बच्चे भी साधनों के प्रयोग के लाभ उठा सकें।

(vii) प्रवेश नियमों में सुधार- विद्यालयों में प्रवेश छात्रों की योग्यताओं के आधार पर होना चाहिए। इस ओर सरकार कड़ा कदम उठाये। उन प्रवेशों पर पूरी तरह रोक लगा दी जाये तो जाति, धर्म, वर्ग, क्षेत्र या भाषा के आधार पर होते हैं अथवा कैपीटेशन जैसे अतिरिक्त शुल्क लेकर किये जाते हैं।

(viii) शिक्षण-सामग्री के बढ़ते मूल्यों पर रोक- वर्तमान काल में पुस्तकें, अभ्यास • पुस्तिकाएँ तथा दूसरी अन्य शिक्षण सामग्री दिन-प्रतिदिन महँगी होती जा रही हैं। इनके बढ़ते मूल्यों का भार उठाना कठिन होता जा रहा है। सरकार को चाहिए कि इनके बढ़ते मूल्यों को कम करे। शिक्षा सस्ती तथा आकर्षक हो।

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