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भारत में लिंगानुपात में गिरावट के प्रमुख कारणों का वर्णन कीजिये।

भारत में लिंगानुपात में गिरावट के प्रमुख कारणों

भारत में लिंगानुपात के गिरावट के जो कारण उत्तरदायी हैं उनमें से प्रमुख है बाल-विवाह, भ्रूण हत्या, लड़कियों की अपेक्षाकृत उपेक्षा, पौष्टिक भोजन एवं प्रसव पश्चात् स्त्रियों की देखभाल की सुविधा की कमी तथा स्त्रियों का घरेलू काम-काज से दबे रहना आदि।

वैयक्तिक और सामाजिक उद्देश्य एक दूसरे के पूरक है। इस कथन की व्याख्या कीजिए।

(1) संयुक्त परिवार की परम्परा – संयुक्त परिवार की दकियानूसी परम्परा स्त्रियों की निम्न दशा के लिए उत्तरदायी है। परम्परानुसार थियों को परिवार के सभी सदस्यों की सेवा करनी पड़ती थी। उन्हें घर से बाहर जाने की आज्ञा नहीं होती थी, इसलिए उन्हें शिक्षा के अवसरों से वंचित होना पड़ता था। संयुक्त परिवार में सियों का सम्पति पर कोई अधिकार नहीं होता। इस कारण भी स्त्रियों के व्यतित्व के विकास में कमी आयी है।

(2) वैवाहिक कुरीतियां – विवाह सम्बन्धी कुप्रथाओं ने भी सियों की दशा को हीन बनाने में सहयोग दिया है। ये प्रथाएँ बाल विवाह प्रथा कुलीन विवाह तथा दहेज प्रथा आदि हैं। कुलीन विवाह के कारण बेमेल विवाह भी होते हैं तथा बहुपत्नी विवाहों का भी प्रचलन हो गया है। इस प्रकार इन सभी प्रथाओं ने स्त्री की दशा को हीन बनाने में योगदान दिया है।

(3) भ्रूण हत्या – बेटियों के बारे में आज भी हमारी सोच पुराने ढर्रे पर चल रही है। भ्रूण हत्या के कारण बालिकाओं की संख्या में तेजी से गिरावट हुई जो कि जनसंख्या असन्तुलन को जन्म दे रही है। भ्रूण हत्या की समस्या आज इस कदर फैल चुकी है कि जब तक सही नीति अर्थात् भेदभाव रहित नीति तथा व्यापक दिशा निर्देशों को कठोरता से लागू नहीं किया जायेगा, ये इसी तरह फैलती रहेंगी और सबसे पहले हमें अपनी सोच को बदलना होगा। हमारी विचारधारा आज भी पुत्रियों के बारे में सही नहीं है।

(4) शिक्षा का अभाव – अनेक आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक कारणों से स्त्रियों को शिक्षित करना अनिवार्य नहीं समझा गया एवं यह मान्यता भी पनपने लगी कि स्त्रियों को कोई नौकरी या व्यवसाय नहीं करना है। अशिक्षित होने के कारण वे अपने अधिकारों को नहीं समझ सर्फी, इसीलिए उनके अधिकार एक-एक कर उनसे छिनते चले गये। शिक्षित न होने के कारण वे अन्धविश्वासों, कुसंस्कारों, दकियानूसी परम्पराओं में जकड़ती चली गयीं और उनमें चेतना नाम की कोई चीज बाकी नहीं रही। इसके कारण यह लिंग-विभेद पनपता चला गया।

(5) बाल-विवाह की परम्परा – स्मृतिकार बाल-विवाह के पक्ष में थे। उस युग में कम उम्र में ही कन्या का विवाह कर देना माता-पिता अपना दायित्व मानते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि विवाह-संस्कार का स्थान उपनयन संस्कार ने ले लिया और लड़कियों के लिए शिक्षा की कोई व्यवस्था ही न रही। ऐसी स्थिति में उन्हें अपने व्यक्तित्व के विकास के कोई अवसर नहीं मिले। घर की चारदीवारी में सन्तान का पालन-पोषण एवं परिवार के अन्य सदस्यों की सेवा करना ही उसकी नियति बन गया। वे पुरुष की दासी बनकर रह गई और उनका कोई भी स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रहा।

(6) कन्यादान की परम्परा – भारतीय समाज में शादी-विवाह की कन्यादान पद्धति ने भी स्त्रियों की दशा को निम्न स्तर तक पहुंचाने में काफी योगदान दिया है। पौराणिक काल में कन्यादान का महत्व योग्य वर को ढूंढने से सम्बन्धित था। स्मृतियुग के पश्चात् धीरे-धीरे कन्यादान की विचारधारा के अन्तर्गत कन्या को एक वस्तु के रूप में माना जाने लगा। तदनन्तर यह धारणा पनपने लगी कि जिस वस्तु को दान में दिया गया है, वह अब वापस तो आयेगी नहीं तो उसका पुनः दान भी नहीं किया जा सकता। कन्या को जिस व्यक्ति को दान में दे दिया गया है वह उसके साथ किसी भी प्रकार का व्यवहार करे। परिणाम यह हुआ कि उसकी स्थिति दासी जैसी हो गई एवं वह सभी अधिकारों से वंचित कर दी गई।

(7) पौष्टिक भोजन एवं प्रसव सम्बन्धी सुविधाओं का अभाव- गरीबी भी एक मुख्य समस्या है। कुल जनसंख्या का अधिकांश भाग गरीबी की मार झेल रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो यह समस्या और भी अधिक है। ग्रामीण गरीब स्त्रियों को पौष्टिक भोजन एवं प्रसय सम्बन्धी सुविधाएं नहीं मिल पाती है। इसका मुख्य कारण गरीबी, अज्ञानता और लियो की उपेक्षा है। इसी कारण प्रति एक लाख सियों में से 540 माताएं जन्म देते ही अपनी आंखे मूंद लेती हैं।

(8) स्त्रियों का घरेलू काम काज से दबे रहना- जन्म से ही लड़कियों को माता-पिता द्वारा यह शिक्षा दी जाती है कि लड़कियाँ पराया धन है उन्हें ज्यादा पढ़-लिख कर क्या करना है। पर में चूल्हा-चौका ही तो करना है, और लड़कियों के मन में यह बात बैठ जाती है कि उन्हें मर्दों के शासन में अधीन रहकर घर के काम काज सम्भालना है। बच्चे पैदा करके उन्हें पालने-पोषने की ‘जिम्मेदारी महिलाओं को निभानी है। अगर उन्हें पढ़ने-लिखने और नौकरी करने की इच्छा होती भी है तो वे उन्हें अपने भीतर ही दबानी पड़ती है। कभी-कभी अपनी इच्छा के कारण उन्हें आत्महत्या तक करनी पड़ती है। अगर अपनी इच्छा के लिए आवाज उठाती है तो पुरुष प्रधान समाज में प्रताड़ित किया जाता है।

(9) लड़कियों की अपेक्षाकृत उपेक्षा – लड़कियों को शुरू से ही उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है। एक माता-पिता की कोख से जन्मे बच्चे लड़का एवं लड़की में भारी भेद-भाव किया जाता है। लड़कियों की अपेक्षा लड़कों को हर सुख सुविधा ज्यादा दी जाती है। लड़कों को अच्छा एवं पौष्टिक भोजन दिया जाता है। वस्त्र आदि तमाम सुख सुविधा लड़कों को अधिक दिया जाता है। इसके विपरीत लड़कियों को हर तरफ से उपेक्षा मिलती है। पहले माँ बाप द्वारा उपेक्षित होती है, भाई द्वारा, बाद में पति द्वारा एवं अन्त में सड़के और पौत्र द्वारा भी उपेक्षा मिलती है। लड़का चाहे कितना ही नालायक और बेकार होता है उसे हर जगह प्यार मिलता है, और लड़की चाहे जितनी ही लायक, समझदार एवं कर्तव्यनिष्ठ होती है उसे हर जगह उपेक्षा मिलती है।

(10) प्रसव पूर्व व प्रसव उपरान्त स्त्रियों की देखभाल की सुविधा की कमी – गर्भावस्था के दौरान अधिकांश महिलाओं में खून की कमी की शिकायत पायी जाती है। इसके परिणामस्वरूप रक्तअल्पता की समस्या सामने आती है। अतः ऐसी स्थिति के होते ही गर्भवती महिला के रक्त की जांच करके यह पता लगाया जाना चाहिए कि ऐसा कहीं रक्तअल्पता के कारण तो नहीं हो रहा है। यदि खून की कमी होने की जानकारी जांच के बाद मिलती है तो तत्काल किसी स्त्री रोग विशेषज्ञ की सलाह लेकर चिकित्सा की व्यवस्था की जानी चाहिए। लेकिन आधे से अधिक महिलाओं में रक्तअल्पता की जानकारी न तो गर्भवती महिला को होती है और न ही परिवार वालों को होती है। कारण कि प्रसव के पूर्व एवं बाद में स्त्रियों की न तो उचित देखभाल होती है और न ही चिकित्सकीय सुविधा मिलती है। हजारों औरतें प्रसव के समय दम तोड़ देती हैं, क्योंकि उन्हें प्रसव के समय उचित चिकित्सा एवं सुविधा नहीं मिलती है।

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