अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा
अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का विचार वस्तुतः आधुनिक प्रजातान्त्रिक शासन व्यवस्था की देन है। प्रजातन्त्र को सफलतापूर्वक व प्रभावशाली ढंग से चलाने के लिए यह आवश्यक है कि सभी नागरिक कुछ-न-कुछ स्तर तक शिक्षा अवश्य प्राप्त करें जिससे ये महत्वपूर्ण राजनैतिक प्रश्नों के सम्बन्ध में प्रबुद्ध नागरिकों के रूप में अपने विचार सही ढंग से अभिव्यक्त कर सकें। अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का नारा सबसे पहले 19वीं शताब्दी के मध्य में पश्चिमी देशों में दिया गया था। स्वीडन ने सबसे पहले सन् 1842 में अपने यहाँ अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य बनाने की व्यवस्था की। इसके उपरान्त 1852 में अमेरिका, सन् 1860 में नायें, सन् 1870 में इंग्लैण्ड तथा सन् 1905 में हंगरी, पुर्तगाल, स्विटजरलैंड आदि ने प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य कर दिया। जहाँ तक भारत का प्रश्न है, विदेशी शासन के कारण यह कार्य भारत में काफी समय तक नहीं हो पाया। यद्यपि कुछ भारतीय व विदेशी शिक्षाविदों ने इस दिशा में प्रयास किये परन्तु उन्हें पर्याप्त सफलता नहीं मिल सकी। सन् 1882 में दादाभाई नौरोजी ने भारतीय शिक्षा आयोग (हंटर आयोग) के सामने प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य व निःशुल्क बनाने की मांग रखी थी। यद्यपि उनकी इस मांग की स्वीकार नहीं किया गया परन्तु इस माँग ने भारतीयों के लिए अनिवार्य व निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा की आवश्यकता की तरफ सभी का ध्यान आकर्षित किया है।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि बड़ौदा के महाराज सियाजीराव गायकवाड़ ने सन् 1893 में प्रयोगात्मक रूप में अमरेली तालुके में तथा बाद में सन् 1906 में अपनी सम्पूर्ण रियासत में अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था करने का आदेश दिया था। प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य बनाने की दिशा में प्रथम आंशिक रूप से सफल कदम श्री इब्राहिम रहीमतुल्ला व सर चिमन लाल सीतलवाड़ का रहा। इन दोनों के प्रयासों के फलस्वरूप बम्बई सरकार ने सन् 1906 में बम्बई में प्राथमिक शिक्षा की अनिवार्यता की सम्भावना पर विचार करने के लिए एक समिति का गठन किया। परन्तु दुर्भाग्यवश इस समिति का निर्णय प्राथमिक शिक्षा की अनिवार्यता के पक्ष में नहीं था।
यद्यपि गोपालकृष्ण गोखले के द्वारा सन् 1910 में इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कॉसिल में प्रस्तुत अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी प्रस्ताव पारित नहीं हो सका था परन्तु इस प्रस्ताव ने जनता का ध्यान अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की ओर आकर्षित अवश्य किया। इस श्रृंखला में प्रथम सफल प्रयास श्री विट्ठल भाई पटेल का रहा। उनके प्रयासों से सन् 1918 में पटेल कानून के नाम से प्रसिद्ध प्रस्ताव पास हुआ जिसमें बम्बई म्युनिसिपल क्षेत्र में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य कर दिया गया था। कुछ समय बाद इस व्यवस्था का अनुसरण अन्य कुछ राज्यों ने भी किया। सन् 1919 में बिहार, बंगाल, उत्तरप्रदेश व उड़ीसा में सन् 1920 में मध्य प्रदेश व मद्रास में, सन् 1926 में असम में, सन् 1930 में बंगाल में, कश्मीर में, तथा सन् 1931 में मैसूर में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य बनाने के अधिनियम बनाये गये परन्तु अधिनियम बनने के बावजूद इस दिशा में कोई भी विशेष व्यावहारिक कार्य ठोस ढंग से नहीं किया गया। सन् 1937 में जब प्रान्तीय स्वायत्त शासन की स्थापना हुई तब देश में लोकप्रिय मन्त्रिमण्डलों ने प्राथमिक शिक्षा की अनिवार्यता के लिए विशेष प्रयास किये। परन्तु प्रान्तीय स्वायत्तता की स्थिति मुश्किल से दो वर्ष भी नहीं रह पाई थी कि द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया तथा विकास की सभी योजनायें स्थगित हो गई। इसके कुछ समय बाद ही इन सरकारों ने त्यागपत्र दे दिये। परिणामतः स्वतन्त्रता- पूर्व तक प्राथमिक शिक्षा की अनिवार्यता की दिशा में कोई विशेष सार्थक प्रगति सम्भव न हो सकी।
सन् 1947 में भारत को स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। तब सन् 1950 में लागू स्वतन्त्र भारत के संविधान की धारा 45 में प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य व निःशुल्क बनाने का संकल्प किया। इसमें कहा गया था कि “संविधान लागू होने के 10 वर्ष के अन्दर राज्य अपने क्षेत्र के सभी बालकों को 14 वर्ष की आयु होने तक निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने का प्रयास करेगा।” इस संवैधानिक उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिए अनेक राज्यों में प्राथमिक शिक्षा अधिनियम बनाये गये जिनमें प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य व निःशुल्क बनाने के कार्यक्रमों को क्रियान्वित करने की नीति निर्धारित की गई है। परन्तु इस संवैधानिक निर्देश तथा राज्यों द्वारा पारित अधिनियमों के बावजूद भी प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य व निःशुल्क बनाने के प्रयास पाँच दशक की दीर्घावधि में पूरा नहीं हो सका था। सम्भवतः इस विषम स्थिति को देखकर सन् 2002 में 86वें संविधान संशोधन के द्वारा अनुच्छेद 45 को शैशवपूर्व देखभाल एवं शिक्षा तक सीमित कर दिया गया एवं अनुच्छेद 21 क को जोड़कर प्राथमिक शिक्षा को नागरिकों का एक मूल अधिकार बना दिया गया है। अनुच्छेद 21क के अनुसार राज्य अपने द्वारा अवधारित रीति के अनुसार छह से चौदह वर्ष की आयु के सभी बालकों को निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था करेगा।
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परन्तु इस सब प्रयासों के बावजूद भी एक मोटे अनुमान के अनुसार वर्तमान में से 11 वर्ष 6 आयु वर्ग में लगभग 85% बालक (लड़कों में 96% व लड़कियों में 70% ) तथा 11 से 14 वर्ष आयु वर्ग में लगभग 65% बालक (लड़कों में 76% व लड़कियों में 55%) ही शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। इन प्रदत्तों से स्पष्ट है कि 14 वर्ष तक के बालकों को अनिवार्य व निःशुल्क शिक्षा प्रदान करने का संवैधानिक संकल्प वास्तविकता से अभी काफी दूर है। कोटारी आयोग ने इस कार्य के पूरा हो पाने के लिए आवश्यक साधनों की अनुपलब्धता, अभिभावकों की निरक्षर व शिक्षा के प्रति उदासीन दृष्टिकोण का होना, सड़कियों की शिक्षा का विरोध, निर्धनता तथा जनसंख्या में विशाल वृद्धि जैसे कारकों को जिम्मेद ठहराया था।
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