पुस्तकीय दृष्टिकोण शास्त्रीय अथवा पुस्तकीय (पाठकीय) दृष्टिकोण द्वारा हम किसी समाज तथा उनकी संस्थाओं के विषय में लिखित सामग्रियों के आधार पर जानकारी प्राप्त करते हैं। इन लिखित सामग्रियों द्वारा ही हम तत्कालीन सामाजिक संरचना प्रकार्य एवं गतिशीलता को अच्छी तरह से समझ पाते हैं। ध्यातव्य है कि पाठीय दृष्टिकोण के अध्ययन द्वारा भारतीय समाज को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझना होगा। क्योंकि अतीत का ज्ञान हम लिखित सामग्री से ही प्राप्त कर सकते हैं। पाठ्कीय सामग्री के आधार पर भूतकाल के समाज का ज्ञान भली-भाँति प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है तथा इसमें वर्तमान भारतीय समाज को भी अच्छी तरह से समझा जा सकता है। ग्रंथ, उपनिषद, स्मृतियाँ, पुराण, रामायण, महाभारत और विदेशी यात्राओं के वृतांत आदि पाठ्कीय सामग्री के प्रमुख स्रोत हैं।
भारतीय समाज में शास्त्रीय दृष्टिकोण के आधार
हमारे मनीषियों ने प्राचीन काल से ही लोगों के सामने ऐसा जीवन आदर्श रखा गया जो उनके मध्य सामाजिक एकता बनाये रखे। अपने उद्देश्यों की पूर्ति हेतु भारतीय मनीषियों ने भारतीय समाज को दो प्रमुख आधारों पर संगठित किया, जो अग्रलिखित हैं-
1.दार्शनिक आधार- दार्शनिक आधार के अंतर्गत व्यक्ति के निजी जीवन से सम्बन्धित मूल तथ्यों धर्म, कर्म, पुनर्जन्म, पुरुषार्थ, ऋण, यज्ञ और संस्कार को रखा जाता है। इन आधारों के द्वारा ही व्यक्ति को परिष्कृत कर उसे उसके लक्ष्यों एवं कर्तव्यों से परिचित कराया जाता है। संक्षेप में इनका विवरण निम्नवत् है-
(अ) धर्म- भारत एक धर्म प्रधान देश है। इसीलिए धर्म के द्वारा मानव जीवन के समस्त व्यवहारों को नियंत्रित किया जाता है। धर्म के कारण ही मानव को भय अथवा उसके द्वारा किये गये कर्मों का फल या दण्ड का भय भी होता है, जिसके कारण व्यक्ति अथवा मानव सामाजिक संगठन को बनाये रखता है।
(ब) पुरुषार्थ- व्यक्ति के प्रमुख लक्ष्यों को पुरुषार्थ द्वारा स्पष्ट किया गया है। पुरुषार्थ में प्राय: चार लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष होते हैं। इन्हीं लक्ष्यों को व्यक्ति अपने जीवन में प्राप्त करता है। धर्म के द्वारा वह पुण्य, अर्थ द्वारा सम्पत्ति, काम द्वारा संतानोत्पत्ति कर वंशवृद्धि एवं मोक्ष द्वारा वह स्वर्ग की प्राप्ति करता है।
(स) कर्म एवं पुनर्जन्म भारतीय दर्शन में कर्मवाद का बड़ा महत्व है। गीता में श्रीकृष्ण भगवान ने स्पष्ट रूप से कर्म के सिद्धांत का वर्णन किया है। गीता में उन्होंने कहा है कि व्यक्ति को समाज में रहकर, फल की इच्छा किये बिना, निःस्वार्थ भाव से कर्म करना चाहिए। कर्म को ही भारतीय दर्शन में पुनर्जन्म से संबंधित कर दिया गया है और यह सिद्धांत प्रतिपादित किया गया कि व्यक्ति वर्तमान में जो कुछ भी है, वह अपने पूर्वजन्मों के कर्म के फल के अनुरूप है।
(द) ऋण तथा यज्ञ- हिन्दू जीवन-व्यवस्था में व्यक्ति पर पाँच प्रकार के ऋण माने गए हैं- देव ऋण, ऋषि ऋण, पितृ ऋण, अतिथि ऋण तथा भूत-ऋण प्रत्येक व्यक्ति को इन ऋणों के प्रति दायित्व का निर्वाह करना पड़ता है। इन ऋणों से छुटकारा पाने के लिए पंच महायज्ञोंकी व्यवस्था भी की गयी है।
(य) संस्कार– संस्कार से आशय शुद्धिकरण की प्रक्रिया सेलगाया जाता है। यह प्रक्रिया जीवन-प्रर्यन्त चलती रहती है। यद्यपि यहाँ संस्कारों की संख्या काफी बतायी गयी हैं, लेकिन प्रमुख 14 ही माने गए। इन संस्कारों का उद्देश्य एक विशेष स्थिति और आयु में व्यक्ति को उसके सामाजिक कर्तव्यों का ज्ञान कराना है।
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2.संगठनात्मक आधार– संगठनात्मक आधार के अंतर्गत व्यक्ति की सामाजिक योजनाओं को शामिल किया गया है, जो हैं-
(i) संयुक्त परिवार-यह समाज का सबसे महत्वपूर्ण संगठन है जिसमें उन व्यक्तियों का समूह शामिल होता है जो एक ही मकान में अपने माता-पिता, दादा-दादी एवं पत्नी व बच्चों के साथ रहते हैं। इन व्यक्तियों की सम्पत्ति का स्वामी परिवार का मुखिया होता है। ये एक रसोई में भोजन पकाते हैं, और सामान्य उपासना में भाग लेते हैं जो किसी न किसी प्रकार से एक-दूसरे के रक्त सम्बन्धी होते हैं।
(ii) जाति व्यवस्था- भारतीय समाज हजारों ऐसे जातीय और उप-जातीय समूह में बंटा है, जिनकी सदस्यता का आधार जन्म है न कि व्यक्ति के गुण एवं स्वभाव। कालान्तर में भारतीय समाज में स्तरीकरण के आधार के रूप में जन्म ने गुण तथा स्वभाव का स्थान ले लिया है। परिणामस्वरूप प्रत्येक वर्ण में जातियाँ बढ़ती गर्यो और जाति की सदस्यता पूर्णतः जन्म पर आधारित हो गयी। धीरे-धीरे एक ही वर्ण की विभिन्न जातियों तक में ऊँच-नीच की भावना पनपने लगी। जाति-व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक जाति ने अन्तर्विवाह की नीति को अपनाया। वर्तमान समय में जाति व्यवस्था के स्वरूप व कार्यों में अनेकों परिवर्तन आए।
(iii) वर्ण व्यवस्था – वर्ण-व्यवस्था को भारतीय सामाजिक संगठन की आधारशिला के रूप में जाना जाता है। यहाँ समाज को गुण के आधार पर चार वर्णों, (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र) में बांटा गया है। प्रत्येक वर्ण के दायित्व व अधिकारों में भिन्नता थी। इसके अन्तर्गत ब्राह्मण वर्ण की स्थिति सबसे उच्च थी। यह व्यवस्था प्रारम्भ में गुण तथा स्वभाव पर आधारित थी न कि जन्म पर। अत: व्यक्ति अपने व्यवहार से किसी उच्च या निम्न वर्ण का सदस्य हो सकता था।
(iv) आश्रम व्यवस्था- आश्रम व्यवस्था का उद्देश्य व्यक्ति के जीवन को सन्तुलित एवं संगठित बनाए रखना था। इस व्यवस्था के अन्तर्गत व्यक्ति की आयु 100 वर्ष मानकर 25-25 वर्ष के चार भागों में विभाजित किया गया, जिनमें से प्रत्येक को एक आश्रम कहा गया। ये निम्नलिखित हैं- (अ) ब्रह्मचर्य आश्रम, (ब) ग्रहस्थ आश्रम, (स) वानप्रस्थ आश्रम तथा (द) संन्यास आश्रम व्यक्ति अपने जीवन के प्रथम 25 वर्ष ब्रह्मचर्य आश्रम में द्वितीय 25 वर्ष ग्रहस्थ आश्रम में, तृतीय 25 वर्ष वानप्रस्थ आश्रम में तथा चतुर्थ व अन्तिम 25 वर्ष संन्यास आश्रम में व्यतीत करता था।
इस प्रकार उपरोक्त विवरण के आधार पर शास्त्रीय दृष्टिकोण के कुछ तथ्य निष्कर्ष स्वरूप प्राप्त होते हैं जिनका विवरण अग्रलिखित है-
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(1) भारत प्राचीन काल से ही एक परिपक्व समाज की जन्म स्थली रही है। यहाँ के मनीषियों, विचारकों एवं धर्म गुरुओं ने अपने विचारों के परिणाम स्वरूप समाज की प्रगति में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इन्होंने अनेकों ग्रंथों की रचना की जिनमें सामाजिक नियमों एवं संस्थाओं का विशद वर्णन किया गया है। इन ग्रंथों में रामायण, महाभारत, गीता, पुराण, एवं वेद प्रमुख हैं।
(2) भारतीय धर्मग्रंथों एवं स्मृतियों में वर्ण व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था, कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है जो आज तक भारतीय समाज को प्रभावित करते
(3) शास्त्रीय दृष्टिकोण में समाज में सभी प्रकार के कार्यों की समुचित व्यवस्था का पूर्ण ध्यान रखा गया। चारों वर्षों के कार्यों को विभाजित किया गया।
(4) शास्त्रीय दृष्टिकोण में व्यक्ति को भी महत्व दिया गया है क्योंकि व्यक्ति समाज का महत्वपूर्ण अंग है। व्यक्ति के बगैर समाज का निर्धारण नहीं किया जा सकता है।
(5) भारत विभिन्नताओं से भरा देश है। यहाँ अनेक धर्मों एवं भाषाओं का प्रयोग होता है परन्तु आपसी एकता के कारण एक सौहार्द पूर्ण माहौल स्थापित किया गया जिसके कारण भारतीय समाज का विकास हुआ।
(6) शास्त्रीय दृष्टिकोण की एक प्रमुख विशेषता यह रही है कि यहाँ भारतीय समाज से सम्ब) विभिन्न संस्थाओं में जहाँ एक ओर निरन्तरता के तत्व पाये जाते हैं, वहीं परिवर्तन के महत्व को भी स्वीकार किया गया है। उसमें समाज कोई जड़ वस्तु नहीं है। जहाँ विभिन्न कालों में उसमें निरन्तरता देखने को मिलती है, वहाँ परिवर्तन के महत्व को भी स्वीकार किया गया है, क्योंकि भारतीय चिन्तक इस बात से भली-भाँति परिचित थे कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है, जीवन प्रवाहमय है, उसमें गतिशीलता पायी जाती है और यही बात समाज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में देखने को मिलती है।
(7) शास्त्रीय दृष्टिकोण में धर्म को प्रमुखता दी गई है क्योंकि धर्म व्यक्ति एवं समाज के जीवन का मार्ग दिखाता है। धर्म ही व्यक्ति, समूह और समाज का समय-समय पर मार्ग दर्शन करता है। यह सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने की दृष्टि से सामाजिक नियन्त्रण का एक प्रमुख माध्यम भी है। धर्म व्यक्ति की आध्यात्मिक प्रगति में सहायक भी है।
धर्म का कोई न कोई रूप आदिम से वर्तमान समाजों तक में देखने को मिलता है। शास्त्रीय दृष्टिकोण में धर्म के अन्तर्गत कर्तव्य-बोध पर विशेष जोर दिया गया है। जीवन के प्रमुख कार्यों का प्रारम्भ धार्मिक पूजा-अर्चना से ही शुरू होता है। शास्त्रीय दृष्टिकोण के अन्तर्गत विभिन्न परिस्थितयों में व्यक्ति के अलग-अलग धर्मों का उल्लेख किया गया है, जैसे सामान्य धर्म, आपद धर्म, आदि। धर्म के अन्तर्गत किसी न किसी आध्यात्मिक शक्ति में विश्वास किया जाता है। यह आध्यात्मिक शक्ति साकार अथवा निराकार किसी भी रूप में हो सकती है। यहाँ प्रत्येक को अपने-अपने तरीके से पूजा-अर्चना करने की प्रारम्भ से ही स्वतन्त्रता रही है। यही कारण है कि यहाँ सैकड़ों प्रकार के मन्दिर मठ आदि बन गये। मन्दिरों में अलग-अलग प्रतिमाओं की पूजा अर्चना की जाती है। इस देश में प्रारम्भ से ही जनजातीय धर्मों के भी अपने-अपने विशिष्ट रूप रहे हैं।
(8) भारतीय मनीषियों ने कर्म के सिद्धांत का प्रतिपादन किया, जिसमें मनुष्य सतत् अपने कर्तव्य का पालन करने की प्रेरणा प्राप्त करता है।
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