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भारतीय विद्या उपागम से आप क्या समझते है तथा भारतीय विद्या अधिगम की सीमायें क्या हैं?

भारतीय विद्या उपागम

  1. भारतीय विद्या उपागम भारतीय विद्या अधिगम के अन्तर्गत भारतीय शिलालेखों ऐतिहासिक अभिलेख के तथ्यों पारम्परिक और प्राचीन ग्रंथों के विश्लेषण के आधार पर भारतीय समाज की व्याख्या की जाती है। इम्तियाज अहमद ने 1966 में भारतीय समाजशास्त्र से सम्बन्धित चार प्रवृत्तियों का विश्लेषण किया है यथा-
  2. दर्शनशास्त्रीय,
  3. भारतीय विद्याशास्त्रीय
  4. सामाजिक मानवशास्त्रीय,
  5. पाश्चात्य आनुभाविक सामान्यतः ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय विद्याशास्त्रीय प्रवृत्ति या भारतीय विद्या अधिगम की विशेषता प्राचीन भारतीय ग्रंथों का अध्ययन है। इसके अन्तर्गत प्राचीन भारतीय इतिहास, साहित्य, संस्कृति, सभ्यता, धर्म एवं दर्शन आदि का बोध होता है। शास्त्रों के अध्ययन हेतु अति सन्निकट जाने के लिए अध्ययन अधिगम शब्द को भारतीय विद्याओं को प्राप्त करने हेतु भारतीय विद्या अभिगम शब्द को प्रयुक्त किया गया है।

समाज का शिक्षा पर क्या प्रभाव है ? व्याख्या कीजिए।

भारतीय विद्या अधिगम की प्रमुख सीमायें निम्नलिखित है

  1. भारतीय ग्रंथों के अध्ययन का आधार कल्पना एवं धर्म है, इसलिये वैज्ञानिक तथ्यों का इनमें पूर्ण अभाव है।
  2. वैदिक काल से लेकर स्मृति काल तक के समस्त ग्रंथों का आधार धार्मिक है। अतः सामाजिक आधार के अभाव में इन ग्रंथों को समाजशास्त्रीय अध्ययनों के आधार के रूप में नहीं लिया जा सकता।
  3. प्राचीन भारत में उपलब्ध समस्त सामाजिक व्यवस्थाओं में किसी न किसी वर्ग विशेष का प्रभुत्व रहा है, जैसे- वर्ण-व्यवस्था में ब्राह्मणों का प्रभुत्व अतः इन ग्रंथों में प्रभुत्व वर्ग के प्रति झुकाव का पाया जाना स्वाभाविक है। इस तरह के पक्षपाती ग्रंथों के आधार पर शुद्ध समाजशास्त्रीय निष्कर्ष नहीं प्राप्त किये जा सकते।
  4. भारतीय ग्रंथों में परस्पर एकरूपता का अभाव है। जैसे- जाति की उत्पत्ति को लेकर विभिन्न धर्म ग्रंथों में उपलब्ध साहित्यिक विवेचन अलग-अलग है। अतः ऐसे अध्ययन को समाजशास्त्रीय आधार के रूप में नहीं लिया जा सकता है, इत्यादि

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