भारतीय ग्रामीण जीवन के आधारभूत लक्षण
भारतीय ग्रामीण जीवन के आधारभूत लक्षण -एक सामाजिक इकाई के रूप में डॉ. के. एल. शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘इण्डियन सोसाइटी’ में ग्रामीण सामाजिक इकाई की चर्चा की है। उन्होंने कहा है कि गाँवों में तात्पर्य केवल ‘खेतों’ से ही नहीं है बल्कि हमारी राष्ट्रीय धारा की आर्थिक, राजनैतिक व सामाजिक संरचना में गाँवों का महत्व रहा है। प्रसिद्ध फ्रांसीसी समाजशास्त्री लुई ड्यूमों ने गाँव शब्द की व्याख्या तीन अर्थों में की है
- गाँव एक राजनीतिक समाज के रूप में,
- 2. गाँव भूमि के स्वामियों के सन्दर्भ में,
- गाँव भारत की परम्परागत आर्थिक व राजनीति संरचना के रूप में ये वे संरचनाएँ हैंजो भारतीय राष्ट्र भक्ति की आधारशिला रही है।
इस दृष्टि से ग्रामीण समुदाय भारतीय राजनीति व आर्थिकी का आधार रहा है। इस अर्थ में गाँव केवल भवनों, खेतों व पगडंडियों का समूह नहीं बल्कि इनसे अधिक है। जो लोग यह मानते हैं कि
गाँवपूर्ण स्वतंत्र है ये भी गाँवों का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन प्रस्तुत करते हैं। कोई भी गाँव जाति, विवाह, नातेदारी के आधार पर अनेक गाँवों से जुड़ा होता है। जहाँ एक गाँव में दो परस्पर विरोधी दल होते हैं। वहाँ दो गाँव भी आपस में एक-दूसरे से विरोध रख सकते हैं और विरोध के माध्यम से जुड़े हो सकते हैं।
गाँवों में अनेक कारणों से संरचनात्मक व सांस्कृतिक परिवर्तन हुए है किन्तु फिर भी उनकी मूल संरचना में आमूल-चूल परिवर्तन नहीं आए हैं। भूमि सुधार कानूनों से ग्रामीणों में समृद्धि आई है। पंचायती राज की संस्था ने ग्रामीण राजनैतिक ढाँचे को नए प्रजातंत्रीय आयाम दिए हैं तथा उसका बाहरी व्यापक समाज से सम्बन्ध स्थापित किया है। इसी प्रकार संस्कृतिकरण की प्रक्रिया ने भी गाँवों में सांस्कृतिक परिवर्तन किए हैं। संस्कृतिकरण यह प्रक्रिया है जिसके द्वारा नीची जाति के लोग अपनी संस्कृति को त्याग कर उच्च जातियों की संस्कृति का अनुकरण कर अपनी प्रतिस्थिति में वृद्धि करने का प्रयास करते हैं। प्रो. श्रीनिवास ने बताया है कि दक्षिण भारत के कुर्ग लोग अपनी प्रस्थिति में सुधार लाने के लिए उच्च जातियों की संस्कृति का अनुकरण करने लगे हैं, ये यज्ञोपवीत (जनेऊ) पहनने लगे हैं। मांसाहार व शराब का परित्याग कर गीता, भागवत व वेदों का अध्ययन करने लगे हैं। श्री निवास ने इस प्रक्रिया को संस्कृतिकरण की संज्ञा दी है। किन्तु समाजशास्त्रियों का मानना है कि यह संस्कृति परिवर्तन का उदाहरण हैन कि संरचनात्मक परिवर्तन का यदि यह संरचनात्मक परिवर्तन होता तो इससे नीची जाति के लोगों को उच्च जातियों में प्रवेश मिल जाता, किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता।
इस दृष्टि से मैण्डलबाम का यह कंचन महत्त्वपूर्ण है जिसमें वे कहते हैं कि गाँव एक महत्वपूर्ण व स्पष्ट रूप से परिभाषित पूर्ण सामाजिक इकाई है जिसके लोग व्यापक समाज में भी सहयोगी होते हैं तथा सभ्यता के प्रतिमानों में भी सहभागिता रखते हैं। कुछ मामलों में किसी विशेष गाँव का अध्ययन करने की दृष्टि से हम व्यापक समाज से अलग कर सकते हैं, किन्तु किन्हीं मामलों में ऐसा करना मुश्किल है। उदाहरण के लिए जब गाँव को परम्पराओं और रीति रिवाजों का अध्ययन करते हैं तो हम किसी गाँव का अलग से अध्ययन कर सकते हैं, किन्तु कृषि, राजनीति या विवाह के अध्ययन के लिए हमें गाँव से बाहर जाकर गाँव का अध्ययन करना होगा।
ब्रिटिश सरकार ने जमींदारी व रैयतवाड़ी व्यवस्था कायम कर सामाजिक विभेद का नया प्रतिमान स्थापित किया था जमींदार सामान्यतः ऊंची जाति के लोग होते थे जो कि ब्रिटिश सरकार की ओर से किसानों से लगान वसूल करते थे जबकि रैयत ये होते थे जिन्हें भूमि पर स्वामित्व मिल जाता था, वे सरकार को इकट्ठा पैसा देकर स्वामित्व ले लेते थे तथा सरकार से सीधा सम्बन्ध रखते थे-न कि जमींदारों के माध्यम से। किन्तु 1950 के बाद ये व्यवस्थाएँ भी बदल गई और ग्रामीण लोग पटवारी, गिरदावर, तहसीलदार, एस.डी.ओ. आदि पर कार्यरत राजस्व कर्मचारियों के अधीन आ गए।
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संक्षेप में, गाँव एक सामाजिक इकाई के रूप में आज भी कार्य करता है किन्तु स्वायत्त इकाई के रूप में नहीं। जहाँ एक ओर ग्रामवासियों के सामाजिक सम्बन्धों का जाल दूर-दूर तक फैला है यहाँ प्रशासनिक रूप में, राजनीतिक संस्थाओं के रूप में व व्यापार वाणिज्य के क्षेत्र में गाँव वाले अन्य गाँवों, शहरों व कस्बों से जुड़े हैं।
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