प्लेटो का आदर्श राज्य- प्लेटो प्रजातन्त्र राज्य के स्थान पर नये राज्य की स्थापना चाहता था। वह दार्शनिक और धार्मिक राजा को राज्य सौंपना चाहता था। योग्य राजा हो जिसके राज्य में सुख, शान्ति तथा कर्त्तव्यशीलता व्याप्त हो और आदर्श राज्य हो। प्लेटो एक ऐसे राज्य की कल्पना करता है जो सत् पर आधारित हो तथा मानव हित चाहता हो। वह राज्य क्या है इसका नहीं वरन् राज्य कैसा होना चाहिए इसका विवेचन करता है। राज्य की दो विशेषताएँ हैं प्रथम न्याय या श्रम विभाजन का सिद्धान्त, दूसरा उसका आधार है आर्थिक स्वप्न। रिपब्लिक में प्लेटो ने इसी आदर्श राज्य का वर्णन किया है।

प्लेटो के न्याय सम्बन्धी विचार व् प्लेटो के न्याय सिद्धान्त का वर्णन।
आदर्श राज्य में वर्ग विभाजन-
प्लेटो ने राज्य के तीन वर्गों का वर्णन किया है
1. राज्य का उत्पादक वर्ग-
प्लेटो वर्ग विभाजन का आधार आत्मा की प्रकृति को बताता है। उसका विचार यह था कि आत्मा की तीन प्रकृतियाँ होती हैं। इन तीनों में से सर्वप्रथम तथा तीव्र प्रकृति तृष्णा की होती है। इस प्रकृति के कारण ही मानव का मन भूख, प्यास, मोह, कामनाओं में रम जाता है। इस प्रकृति के कारण ही मानव में उत्पादन करने की भावना जागती है। जहाँ राज्य का प्रारम्भ या सरल रूप उत्पन्न होता है वहाँ यह आर्थिक संगठन होता है। अन्न उत्पन्न करने वाला कृषक, कपड़ा उत्पादन करने वाला जुलाहा तथा मकान बनाने वाले कारीगर इस प्रकार अस्तित्व में आते हैं। खेती, कपड़ा बुनने तथा मकान बनाने आदि के लिए अनेक यंत्रों की आवश्यकता पड़ती है। इन यंत्रों को बनाने तथा मरम्मत करने के लिए लुहार, बढ़ई तथा अन्य शिल्पकारों की आवश्यकता उत्पन्न होती है। यह आवश्यकता ही इस श्रमिक वर्ग को उत्पन्न करती है, चूँकि एक व्यक्ति सब आवश्यकताओं की वस्तुओं का उत्पादन नहीं कर सकता। अतः अपनी उत्पन्न की हुई अतिरिक्त सामग्री को बेचकर वह अपनी आवश्यकता की अन्य सामग्री दूसरे लोगों से खरीद लेता है। प्लेटो इस प्रकार प्रथम वर्ग ‘उत्पादन वर्ग’ को राज्य का एक आधार स्तम्भ बताता है।
2.सैनिक वर्ग-
प्लेटो आत्मा की दूसरी प्रकृति को शौर्य का नाम देता है। प्लेटो कहता है कि जिस राज्य में केवल आर्थिक वर्ग ही उत्पन्न हो पाता है वह राज्य अधूरा होता है। मानव बुद्धि केवल रोटी खाकरं, पानी पीकर, शरीर को वस्त्रों से ढंककर तथा रहने की व्यवस्था करके ही संतुष्ट नहीं होती है, वह ललित सुरम्य तथा विलासपूर्ण सामग्रियों की भी लालसा करता है। यह लालसा ही आवश्यकताओं को अधिक से अधिक जटिल कर देती है। जब इस प्रकार की परिस्थितियाँ समाज एवं राज्य में उत्पन्न हो जाती हैं तो राज्य आत्मनिर्भर नहीं रह पाता। वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पड़ोसी राज्यों के भू-भाग पर अधिकार करता है। इस क्रिया में युद्ध की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार युद्ध की जड़ में विलासिता का मूल स्रोत रहता है। युद्ध में कार्य प्रदर्शन करने वाला वर्ग ‘सैनिक वर्ग बन जाता है। आर्थिक आधार रखने वाला राज्य अब सैनिक राज्य में बदल जाता है।
3.शासक वर्ग-
प्लेटो आत्मा की तीसरी प्रकृति ज्ञान को बताता है। प्लेटो कहता है कि इन्द्रिय तृष्णा की पूर्ति करने वाला आर्थिक वर्ग, जब दूसरे राज्यों के भू-भाग पर अधिकार करना चाहता है तो उसमें शौर्य-प्रदर्शन की भावना जाग उठती है। इतना होने पर भी आर्थिक दशा सैनिक वर्गों की उत्पत्ति होने से राज्य का पूर्ण रूप निखर नहीं पाता है। वर्गों को एक सूत्र में बाँधने वाले वर्ग की आवश्यकता का अनुभव तक समाज को होने लगता है। अतः ‘शासक वर्ग का प्रादुर्भाव होता है।
आदर्श राज्य में शासन कार्य-
प्लेटो अपने आदर्श राज्य के शासन की बागडोर ज्ञान प्रधान लोगों को सौंपना उचित समझता है। प्लेटो ने कुशल शासकों के लिए शिक्षा पद्धति, की व्यवस्था पर जोर दिया है। इस शिक्षा के द्वारा शासकों में से राजनीतिक दोष निकालना प्लेटो का उद्देश्य था। वह लिखता है कि “जब तक कि दार्शनिक जो राजाओं के राजा हैं तथा राजकुमारों के राजकुमार हैं दर्शन की भावना से ओतप्रोत न होंगे, नगरों को उनके कुप्रभवों से मुक्ति न मिल सकेगी।”
प्लेटो ने आदर्श राज्य को तीन वर्गों में विभक्त किया है-
1.न्याय पर आधारित राज्य-
प्लेटो आदर्श राज्य के लिए न्याय को परम आवश्यक तत्त्व समझता है। उसके अनुसार- “न्याय मानवी सद्गुण का एक अंग है। न्याय का अर्थ है कि कर्त्तव्य का भाव या उचित कार्य करने की भावना।” वह कहता है कि हर व्यक्ति अपने-अपने कार्य में रत रहकर कुशलता प्राप्त करे। न्याय उसकी कुशलता प्राप्ति में आने वाली बाधाओं को करने का प्रयास करे। उसके मतानुसार न्याय पर आधारित राज्य में मानव समाज में सद्गुणों की उत्पत्ति हो सकती है। न्याय का कार्य प्लेटो के विचार में केवल दार्शनिक ही कर सकते हैं “जब तक राजनीतिक सत्ता एवं दर्शन परस्पर संयोजित नहीं कर दिए जा सकते तब तक राज्यों के लिए न तो बुराइयों की कमी होगी न ही मानव जाति जिसको हम सैद्धान्तिक रूप से इतना महत्त्वपूर्ण वर्ग मानते हैं, उन्नति के पथ पर अग्रसर हो सकेगी।”
2.विधि विहीन राज्य-
प्लेटो का आदर्श राज्य विधि विहीन राज्य था। इसका राजा दार्शनिक शासक होगा जो कानून से ऊपर था। उसका कहना था कि जब राज्य में न्याय का शासन होगा और प्रत्येक व्यक्ति ईमानदारी से अपना कार्य सम्पादित करेगा तो किसी व्यक्ति को दण्ड देने का प्रश्न ही नहीं उठेगा। कानून के द्वारा लोगों को दण्ड देने की वहीं आवश्यकता रहती है जहाँ व्यक्ति चरित्रहीन तथा भ्रष्ट होते हैं। सच्चरित्र एवं सद्गुणी व्यक्तियों के लिए कानून की आवश्यकता नहीं रहती।
3.साम्यवादी राज्य-
प्लेटो का राज्य साम्यवादी व्यवस्था पर आधारित था। आदर्श राज्य में प्लेटो ने तीन वर्गों को प्रधानता दी है। इन तीनों में भी दो वर्ग शासन तथा शासक वर्ग प्रधान माने गये हैं। यह साम्यवादी व्यवस्था प्लेटो ने इन दोनों के लिए निर्धारित की थी। इस व्यवस्था के अनुसार इन दोनों भागों के लिए यह आवश्यक था कि दोनों वर्ग अपना-अपना काम बिना किसी स्वार्थ, ममता, मोह तथा पक्षपात के संपादित करें और दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप न करें। प्लेटो का विचार था कि ममता, मोह तथा स्वार्थ का जन्म सम्पत्ति तथा पारिवारिक जीवन से उत्पन्न होता है। ये दोनों वस्तुएँ ईमानदारी तथा पक्षपातरहित वृत्ति से काम करने से रोकती हैं। अतः सैनिक तथा शासक वर्ग के लिए प्लेटो ने सम्पत्ति तथा पत्नियों का साम्यवाद चलाया था। उक्त दोनों वर्ग राज्य की ओर से वस्त्र, भोजन तथा पत्नियाँ प्राप्त करते थे। इन चीजों के लिए उन्हें चिन्ता करने की आवश्यकता न थी। आदर्श में यह साम्यवादी व्यवस्था स्त्रियों को भी स्वतन्त्रता देती थी कि वह बन्धनमुक्त रहे और स्वयं संतान उत्पन्न करने में समर्थ हों।
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