प्राणायाम
जीवन जीने के लिए प्राणायाम के विषय में कहा गया है कि जिस प्रकार अत्यन्त वेग से वमन होकर अन्न-जल बाहर आता है उसी प्रकार श्वास को बल से बाहर फेंककर बाहर ही यथाशक्ति बाहर रोक देने और उसे बाहर निकालना चाहें तो मूल इन्द्रिय को उस समय तक बाहर खीचें रखें जिसमें से श्वास बाहर निकलता है। इस प्रकार प्राणे अधिक समय बाहर ठहर सकता है। जब घबराहट हो तो धीरे-धीरे वायु को लेकर फिर से वैसा करता चला जाए। सामर्थ्य के अनुसार इच्छानुसार इस क्रिया को लम्बा करना चाहिए।
स्थूल शब्दों में श्वास-प्रश्वास की अत्यन्त स्वाभाविक गति से नियंत्रण को प्राणायाम कहते हैं। शास्त्रीय शब्दों में श्वास-प्रश्वास का गति विच्छेद ‘प्राणायाम’ कहलाता है। महर्षि पतंजलि ने प्राणायाम के चार भेद किए हैं
- बाहय वृत्ति रेचक
- आभ्यंतर वृत्ति पूरक
- स्तम्भ वृत्ति कुम्भक
- बाह्याभ्यन्तर विषयापेक्षी कुम्भक
- श्वास को बाहर ही बाहर रोकना। रेचक प्राणायाम में नासिका पुटों के द्वारा हृदय में भरी प्राणवायु को अत्यन्त मन्द गति से बाहर निकाल कर श्वास-प्रश्वास की क्रिया को अवरुद्ध किया जाता है।
- जितना प्राण भीतर रोका जा सकता है, रोका जाए। पूरक प्राणायाम में नासिका के छिद्रों से श्वास को भीतर की ओर खींचकर उसे नियंत्रण में रखा जाता है।
- स्तम्भ वृत्ति में एक ही बार प्राण को जहाँ का तहाँ रोक देना। कुम्भक प्राणायाम में प्राणवायु को जहाँ जैसे हो वहाँ वैसे ही रोक देना होता है।
- बाह्याभ्यन्तर विषयापेक्षी में जब प्राण भीतर से बाहर निकलने लगे तथा तथा उसके विरुद्ध न निकलने देने के लिए बाहर से भीतर उभरे, जब बाहर से भीतर आने लगे तब भीतर से बाहर प्राण को धक्का देकर रोका जाये। ऐसा एक दूसरे के विरुद्ध किया जाए। तीसरा तथा चौथा भेद कुम्भक प्राणायाम का है।
प्राणायाम के प्रकार
प्राणायाम के दस प्रकार बताये गये हैं-
- पूरक कुम्भक रेचक,
- शीतली,
- सीत्कारी,
- . भ्रामरी,
- ग्रसिका
- उज्जायी,
- मूर्च्छा,
- सूर्यभेदी,
- चन्द्रभेदी,
- प्लावनी।
प्राणायाम के महत्व
- शरीर के वृद्धि
- प्राणों का संयम
- मन की एकाग्रता
- चित्तवृत्तियों का निरोध
- आत्मा पर पड़े आवरण का नष्ट होना । इन्द्रियों के दोष विकार समाप्त होना।
- विकास के बाद यशीकरण शक्ति, दृढ़ इच्छा शक्ति का होना भी जरूरी है।
- यात, वित्त, कफ को नष्ट करना।
- तेज वर्द्धक
- देह को क्रियाशील बनाने में सक्षम
- रक्त डिटेक्टर
- गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल वर्धक
- इसके अतिरिक्त स्फूर्ति, लोच, कोमलता और कान्ति का दाता है प्राणायाम
यौन शिक्षा से आप क्या समझते हैं? इसका स्वरूप कैसा होना चाहिए?
प्राणायाम में ‘सुषुम्ना’, ‘ईड़ा, और विंगला का बहुत महत्व है। जिसका अनुभव योगियों को ही होता है। इन नाड़ियों के द्वारा ही कुण्डलिनी शक्ति का जागरण होता है, जिससे पूर्ण समाधि लगाने में सहयोग मिलता है। सुषुम्ना यह नाड़ी है जिसमें जीवात्मा को परमात्मा के दर्शन होते हैं। यौगिक प्राणायाम से ही कुण्डलिनी को जगाया जाता है
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