भारतीय ज्ञान परम्परा भारतीय दर्शन में ही समाहित है। जब पाश्चात्य संस्कृति राजनीति, समाज, कला, इतिहास, भूगोल तथा विज्ञान आदि विषयों का प्रथम सोपान विकसित कर रही थी; उससे सदियों पूर्व ही भारतीय सभ्यता उपनिषदों के द्वारा ‘ब्रह्मविद्या (नित्य-विषयक)’ ज्ञान को अन्य सभी विषयों के आधारस्वरूप प्रस्तुत कर चुकी थी। इस सन्दर्भ में डॉ. राधाकृष्णन् ने उल्लेख किया है कि कौटिल्य का कथन है, “दर्शनशास्त्र (आन्विक्षिकी- दर्शन) अन्य सब विषयों के लिए प्रदीप का कार्य करता है। यह समस्त कार्यों का साधन और समस्त कर्तव्यकर्मों का मार्गदर्शक है।” इसको तीन प्रकार से समझना आवश्यक है-
- भारतीय ज्ञान परम्परा के आधारभूत तत्त्व,
- भारतीय ज्ञान-परम्परा की ज्ञान मीमांसा एवं नीतिमीमांसा तथा
- इसी आधार पर विश्व कल्याण हेतु नैतिक उन्नयन सम्बन्धी सार्वभौम नियम एवं उनकी वर्तमान प्रासंगिकता।
प्राचीन भारतीय ज्ञान-परम्परा के आधारभूत तत्त्व
भारतीय ज्ञान परम्परा यहाँ के दर्शन में समाहित है; इसलिए पहले दर्शन सम्बन्धी सामान्य तथ्यों को समझने का प्रयास करेंगे। ‘दृश्यते अनेन इति दर्शनम्’ अर्थात् वह प्रक्रिया जिसके अन्तर्गत देखा जाय अर्थात् विश्लेषण, चिंतन या मनन किया जाय दर्शन कहलाती है। चिंतन की एक संज्ञा ‘मीमांसा’ भी है। ‘मीमांसा’ के अर्थ हैं-गहन विचार, परीक्षण एवं अनुसंधान आदि । इस दृष्टि से ज्ञान-परम्परा या दार्शनिक चिंतन तीन अनुभागों में वर्गीकृत है-तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा एवं नीतिमीमांसा। इनके क्रमशः सत्, प्रकाश एवं अमरत्व ये तीन लक्ष्य के रूप में निरूपित किये गये हैं। सत् या तत्त्व सृष्टि का मूल कारण; ज्ञान या प्रकाश उस सत् को जानने की प्रक्रिया तथा अमरत्व या परमशुभ हेतु निर्धारित आचरण नियम या नीति, ये तीनों ही भारतीय ज्ञान-परम्परा का सार हैं। भारतीय वांग्मय में मानव जीवन के भी ये तीन लक्ष्य ही निरुपित हैं। भाव यह हैं कि ज्ञान एवं नीति के द्वारा व्यक्ति सत् की खोज करे; यही भारतीय ज्ञान परम्परा में निर्देशित है। प्राचीन भारतीय वांड्मय चित् या चेतना की उच्चतम अवस्था तक उन्नति के पथ का समर्थक रहा है। कहा भी गया है ‘सा विद्या या विमुक्तये’ अर्थात् जो मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करे वही विद्या का ज्ञान है। ज्ञान मात्र भौतिक जीवन को सुखी बनाने हेतु नहीं हैं, अपितु वह है, जो शरीर में निबद्ध चेतना को ब्रह्माण्डीय चेतना के स्तर पर प्रतिष्ठापित करे भारतीय ज्ञान परम्परा के सार माने जाने वाले उपनिषदों में से एक मुण्डक उपनिषद् में ज्ञान का स्पष्ट एवं उत्कृष्ट वर्गीकरण किया गया है। यह वर्गीकरण इतना उच्चस्तरीय है कि संसार की किसी भी सभ्यता में ऐसा विवेचन प्राप्त नहीं। इस उपनिषद् में मनुष्य जीवन के समस्त ज्ञान को विद्या कहा गया है।
इसे दो भागों में विभाजित किया गया है-अपराविद्या एवं पराविद्या। मुण्डक उपनिषद् में एक प्रसंग है कि शौनक ऋषि के पूछने पर महर्षि अंगिरा बोले कि मनुष्य के लिए जानने योग्य दो विद्याएं हैं-अपरा विद्या एवं परा विद्या। जिसके द्वारा लोक तथा परलोक सम्बन्धी भोगों की स्थिति, रचना तथा नानाविधि द्वारा उनकी प्राप्ति हेतु साधनों का ज्ञान प्राप्त किया जाय वह सभी प्रकार का ज्ञान अपरा विद्या में आता है। पराविद्या (ब्रह्माविद्या या अध्यात्मविद्या) वह है जिसमें उपर्युक्त सभी लौकिक ज्ञान के स्थान पर ब्रह्म अर्थात् जगत् के मूल कारण का ज्ञान हो। वस्तुतः पराविद्या एवं. अपरा विद्या का वर्गीकरण अध्यात्मिक ज्ञान एवं व्यवहारिक ज्ञान के रूप में किया गया है। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि गणित एवं तकनीकी के ज्ञान द्वारा व्यक्ति भौतिक सुख सुविधाओं के साधनों का आविष्कार तो कर सकता है किन्तु भौतिक सुख-सुविधाओं द्वारा आत्मिक शांति प्राप्त नहीं होती। आत्मिक शांति की प्राप्ति हेतु आवश्यक है-व्यावहारिक जीवन को सुव्यवस्थित करते हुए आत्मज्ञान हेतु निरंतर प्रयास करना। इस आवश्यकता का प्रतिपादन उपनिषद् साहित्य में भी एक प्रार्थना के माध्यम से किया गया है जिसमें कहा गया है कि है परमात्मा! हमें असत् से सत् की ओर ले चलो, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो एवं मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो।
ज्ञान परम्परा जिसमें से सत् तत्त्वमीमांसीय प्रत्यय है, तत्त्वमीमांसा भारतीय ज्ञान परम्परा या दर्शन की वह शाखा है, जिसमें सृष्टि के मूल कारण पर विचार किया जाय। इसका ‘मूल्य कारण ‘तत्त्व’ है जो दो पदों में निष्पन्न हैं-तत् एवं त्व अर्थात् तुम वही हो। वही का तात्पर्य जिससे समस्त सृष्टि का निर्माण हुआ है। ज्ञान एवं आचारगत उन्नयन ही व्यक्ति की उच्चतम चेतना को ब्रह्माण्डीय चेतना में समाहित करके मूलतत्व का बोध करवाने के साधन हैं। तत्व सम्बन्धी अनेक प्रकार के मत हैं। एक, दो, तीन तथा अनेक तत्त्वों को सृष्टि का मूल कारण मानने वाले दर्शन क्रमशः एकतत्त्ववादी, द्वैतवादी, त्रैतवादी एवं बहुतत्वादी कहलाते हैं। इस प्रकार कुछ दर्शन मात्र चेतन को, कुछ मात्र जड़ को एवं कुछ दोनों को तथा कुछ इनके अतिरिक्त अन्यों को भी मूल तत्त्व मानते हैं। भारतीय परम्परा में माना गया है कि तत्त्व ही सत् है। इस सत् को खोजना ही जीवन का उद्देश्य है। इस सत् की खोज ज्ञान के द्वारा ही सम्भव है तथा इसके फलस्वरूप ही आनंद की प्राप्ति होती है। इस सत् को खोजने की ज्ञान प्रक्रिया एवं उसका सुन्दर विवेचन ही भारतीय वांग्मय की सुन्दरता है।
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