पृथ्वीराज तृतीय की उपलब्धियों
पृथ्वीराज तृतीय ( 1177-1192 ई.) – पृथ्वीराज तृतीय ‘राय पिथौरा’ चामान (चौहान) सोमेश्वर और कर्पूरदेवी का पुत्र था। पृथ्वीराज तृतीय का जन्म सन् 1162 ई. को हुआ था। सन् 1177 ई. में अपने पिता सोमेश्वर की मृत्यु के पश्चात् वह 15 वर्ष की अल्प आयु में सिंहासन पर बैठा। पृथ्वीराज तृतीय ने 2 वर्षों तक अपनी माता के संरक्षण में शासन किया। पृथ्वीराज तृतीय बहुत ही वीर और साहसी शासक था। सन् 1179 ई. में वयस्क होने पर स्वतन्त्र रूप से शासन करने लगा। पृथ्वीराज तृतीय के शासनकाल की घटनाओं और उपलब्धियों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है
नागार्जुन का विद्रोह- पृथ्वीराज तृतीय के शासनकाल की सबसे पहली महत्वपूर्ण घटना थी नागार्जुन का विद्रोह । नागार्जुन पृथ्वीराज के चाचा विग्रहराज का पुत्र था। उसने पृथ्वीराज तृतीय को अल्पायु जानकर उसके विरुद्ध गुडपुर में विद्रोह कर दिया। पृथ्वीराज तृतीय ने विद्रोह को कुचलने का निश्चय किया। उसने एक विशाल सेना के साथ गुडपुर की घेराबन्दी कर दी। नागार्जुन किसी प्रकार जान बचाकर भाग निकला लेकिन उसके अनेक सम्बन्धियों को पकड़ लिया गया और उनका सिर काटकर अजमेर के फाटक पर टांग दिया गया। इस प्रकार पृथ्वीराज तृतीय विद्रोह का अन्त करने में सफल रहा।
‘चन्देलों पर आक्रमण- पृथ्वीराज रासो से विदित होता है कि पृथ्वीराज तृतीय ने जेजाकभुक्ति के चन्देल राजा परमर्दि पर विजय प्राप्त की थी। इस युद्ध में चन्देल नरेश परमर्दि के साथ आल्हा एवं ऊदल नामक दो सरदार तथा गहड़वाल नरेश जयचन्द की सेना की एक टुकड़ी भी थी। युद्ध भूमि में उदल मारा गया एवं पृथ्वीराज तृतीय ने महोबा एवं कालिंजर तक अपना अधिकार स्थापित कर लिया। सारंगधरपद्धति एवं प्रबन्ध चिन्तामणि से भी परमर्दि पर विजय की सूचना मिलती है। मदनपुर अभिलेख से भी विदित होता है कि महोबा पर पृथ्वीराज तृतीय ने विजय प्राप्त की थी।
भाडानक विजय – पृथ्वीराज तृतीय ने भाडानक देश पर विजय प्राप्त की थी। यह विजय विद् संदू 1129 (1172 ई.) में हुई थी। भाडानक आधुनिक हरियाणा के पास स्थित था। पराजित भाडानक का शासक साहणपाल था।
चालुक्य संघर्ष- चामान नरेश पृथ्वीराज एवं गुजरात के चालुक्य नरेश भीम द्वितीय में शत्रुता थी। पृथ्वीराजरासो में चाहमान एवं चालुक्य संघर्ष का विस्तृत विवरण मिलता है। जिनपाल कृत खरतरगच्छपट्टावली से भी इस शत्रुता पर प्रकाश पड़ता है। कुछ समय के पश्चात् दोनों वंशों के मध्य सन्धि हो गयी।
गहड़वाल शासक जयचन्द से सम्बन्ध- पृथ्वीराज तृतीय के समय गहड़वाल वंश का शासक जयचन्द था। चामान और गहड़वाल में जयचन्द के पिता विजयचन्द के समय से ही सम्बन्ध बिगड़ चुके थे। दोनों वंश एक दूसरे को नीचा दिखाना चाहते थे। पृथ्वीराज तृतीय के समय भी यह शत्रुता कायम यी पृथ्वीराज तृतीय और जयचन्द दोनों ही शक्तिशाली शासक थे। जयचन्द ने अपनी दिग्विजय के बाद अपनी पुत्री संयोगिता का स्वयंवर आयोजित किया। इस स्वयंवर में सभी प्रमुख शासकों को आमन्त्रित किया गया लेकिन पृथ्वीराज तृतीय को नहीं बुलाया गया। पृथ्वीराज रासो नामक ग्रन्थ के अनुसार पृथ्वीराज तृतीय ने स्वयं जाकर संयोगिता का अपहरण कर लिया और अपनी राजधानी लौट आया। इस घटना ने दोनों पक्षों की शत्रुता को और बढ़ा दिया।
पृथ्वीराज तृतीय का मूल्यांकन – पृथ्वीराज तृतीय एक वीर योद्धा था। तराइन युद्ध के पूर्व वह कभी पराजित नहीं हुआ। वह विद्वानों का आश्रयदाता था। उसके राज्य में विद्यापति, गौड़, चरण पृथ्वी, भट, वागीश्वर जनार्दन एवं विश्वरूप जैसे विद्वानों की जमघट रहती थी। जयानक भट्ट ने ‘पृथ्वीराज विजय की रचना 1192 ई. में की थी।
इसी काल में चन्दबरदाई ने ‘पृथ्वीराज रासो’ की रचना की थी। तक उसके राज्य में अनेक मन्त्री थे परन्तु मुख्यमन्त्री कदम्बवास व्यासं था। उसके दरबार में पद्यनाम नामक मन्त्री भी था। पृथ्वीराज तृतीय का चुम्बकीय व्यक्तित्व था। उसके चुम्बकीय व्यक्तित्व एवं अदम्य साहस के कारण ही, केवल सुनकर बिना देखे ही संयोगिता उससे प्यार करने लगी थी। डॉ. ईश्वरी प्रसाद का कथन है कि ‘मध्यकालीन योरोप के बहादुर सरदारों की भाँति पृथ्वीराज को युद्ध में भाग लेने और विजय प्राप्त करने में आनन्द आता था, जिसने उसकी ख्याति को देश के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक व्याप्त कर दिया था। यह राजपूत शौर्य का अन्तिम पुष्प था।
चाहमान वंश पृथ्वीराज तृतीय के काल में अपने चरमोत्कर्ष पर था परन्तु किसी विरले का ही ऐसे राज्य में उदाहरण मिलता है जो अपने सर्वोपरि चरमोत्कर्ष के दिनों में ही विदेशी आक्रमण से चकनाचूर हो गया हो। पृथ्वीराज के अधीन चाहमान राज्य उत्तर भारत की सर्वप्रथम और अविजित सत्ता के रूप में कवियों, लेखकों, चारणों और वीरों की जमघट का केन्द्र बन गया था। किन्तु अपने यौवन के बीच में ही वह शत्रु की तलवार का शिकार हो गया और उसके गिरते ही चाहमान सत्ता ढह गयी।
राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में आप क्या जानते हैं?
यह सत्य है कि पृथ्वीराज तृतीय एक वीर योद्धा था, परन्तु एक दूरदर्शी एवं कूटनीतिज्ञ शासक न था। तुर्क आक्रमण के समय में भी वह चन्देल एवं गहड़वाल वंश के साथ मिलकर एक संघ न बना सका तराइन के प्रथम युद्ध के पश्चात् पृथ्वीराज तृतीय अपनी राजधानी पहुँच गया जबकि उसको मुहम्मद गोरी का पीछा करके सम्पूर्ण पंजाब को अपने अधिकार में कर लेना चाहिए था इस दूरदर्शिता के अभाव में पृथ्वीराज तृतीय मुहम्मद गोरी की कपटपूर्ण वार्ता को भी न समझ सका और तराइन के द्वितीय युद्ध में पराजित हुआ।
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