निर्देशन एवं राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986)
हमारा देश आर्थिक और तकनीकी दृष्टि से उस स्तर पर पहुँच गया है जहाँ से हम अब तक के संचित साधनों को उपयोग करते हुए, समाज के प्रत्येक वर्ग को लाभ पहुँचाने का अथक प्रयास करें। शिक्षा उस लक्ष्य तक पहुँचने का मुख्य साधन है। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर भारत सरकार ने जनवरी (1985) में यह घोषणा की थी कि नई शिक्षा नीति निर्मित की जाएगी शिक्षा की वर्तमान परिस्थित का मूल्यांकन किया गय और एक देशव्यापी बहस इस विषय पर हुई कई स्रोतों के सुझाव व विचार प्राप्त हुए, जिन पर काफी मनन चिन्तन हुआ।
देश की वर्तमान शिक्षा की व्यवस्था और भावी शैक्षिक विकास की सम्भावनाओं को अध्ययन, मनन एवं चिन्तन करने के उपरान्त, राष्ट्रीय शिक्षा के सम्बन्ध में अनेक नीतियाँ का निर्धारण किया गया और उनके कार्यक्रमों को क्रियान्वित करने का निर्णय लिया गया। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के कार्यक्रम अथवा (Programme of Action) में शिक्षा से सम्बन्धित जिन स्रोतों में परिवर्तन करने पर बल दिया गया तथा शैक्षिक नीतियों को निर्धारण किया गया, उनके अन्तर्गत प्राथमिक शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा, उच्च शिक्षा तकनीकी एवं प्रबन्धन शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, विकलांग-शिक्षा, महिलाओं के लिए शिक्षा के समान अवसर, शिक्षकों की दशा में सुधार, बालकों की देखभाल एवं शिक्षा आदि क्षेत्र उल्लेखनीय है।
शिक्षा के व्यक्तिक्त विकास के कार्यों पर प्रकाश डालिए।
इन क्षेत्रों में भारतीय सरकार के द्वारा जिन नीतियों का निर्धारण किया है, जो कार्यक्रम बनाएँ हैं अथवा जिन कार्यक्रमों को क्रियान्वित किया है, उन समस्त के सन्दर्भ में देश के विभिन्न वर्गों के व्यक्तियों को अपेक्षित जानकारी प्रदान करने तथा उनकी समस्याओं के समाधान में सहायता प्रदान करने की दृष्टि से निर्देशन एवं परामर्श सेवाओं को अपनी विशिष्ट भूमिका का निर्वाह करना होगा। विभित्र प्रकार के पाठ्यक्रमों के चयन सम्बन्धित शिक्षण एवं प्रशिक्षण केन्द्रों की जानकारी, व्यावसायिक अवसरों की जानकारी प्रदत्त सुविधाओं आदि दृष्टियों से निर्देशन के महत्व की अनुभूति सहज ही की जा सकती है। शिक्षा के क्षेत्रों में सम्पन्न होने वाले इन नव परिवर्तनों के परिप्रेक्ष में निर्देशन की भूमिका का संक्षिप्त विवरण अग्रलिखित हैं
मानसिक एवं शारीरिक दृष्टि से विकलांग व्यक्तियों हेतु निर्देशन
समाज के अनेक व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनकी बुद्धि लब्धि औसत से कम होती है अथवा जो अपनी शारीरिक न्यूनताओं के कारण अपंगों की श्रेणी में गिने जाते हैं। मानवीय विकास से सम्बन्धित समस्त अवस्थाओं के निरन्तर इनकी स्थिति सामान्य व्यक्तियों से भिन्न होती है। आन्तरिक हीनताओं, कुंठाओं, निराशाओं तथा बाह्य समाज के प्रतिकूल प्रभावों के कारण इनकी प्रगति प्रायः अवरुद्ध हो जाती है। फलस्वरूप जहाँ एक ओर इस प्रकार के व्यक्ति दुर्भाग्यपूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिए विवश होते हैं, वहाँ दूसरी ओर सामाजिक वातावरण भी इसमें बोझिल एवं कष्टप्रद हो जाता हैं। विभिन्न प्रकार के अध्ययन एवं सामाजिक उदाहरण, इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि यदि इस प्रकार के व्यक्तियों का समुचित निर्देशन एवं प्रगति के समान अवसर उपलब्ध कराए जाएँ तो ये भी सामान्य व्यक्तियों के
समान ही प्रगति की दिशा में अग्रसरित हो जाते हैं। विकलांग की शिक्षा को शिक्षा की मुख्य धारा में सम्मलित किया है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) में समानता के उद्देश्य को साकार करने की दृष्टि से प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति की प्रगति को परम आवश्यक माना गया है। इस नीति में स्पष्ट रूप से यह घोषित किया गया है कि
भारतीय विचारधारा के अनुसार, मनुष्य एक बहूमूल्य सम्पदा है, अमूल्य संसाधन है। आवश्यकता इस बात की है कि उनका पालन पोषण गतिशील एवं संवेदनशील हो और सावधानी से हो। प्रत्येक व्यक्ति का अपना विशिष्ट व्यक्तित्व होता है, जन्म से मृत्युपर्यन्त जिन्दगी के हर अवस्था पर उसकी अपनी समस्याएँ और आवश्यकताएँ होती हैं। उनकी पूर्ति करने का प्रयास करता है।
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