नगर किसे कहते हैं? भारत में नगरों के उद्विकास के कारकों की विवेचना कीजिए

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नगर का अर्थ नगर एक ऐसा स्थान है जहाँ मानव एक विकसित जीवन व्यतीत करता है। नगर शब्द अंग्रेजी भाषा के City शब्द का हिन्दी रूपान्तरण है। अंग्रेजी भाषा का City शब्द लैटिन भाषा के सिविटाज शब्द से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ नागरिकता है। नगर शब्द के लिए लैटिन भाषा में कभी-कभी Urbs शब्द का भी प्रयोग किया जाता है जिसका शाब्दिक अर्थ शहर है। यहाँ व्यक्ति कृषि के अतिरिक्त अनेकों अन्य व्यवसाय भी करता है।

इस प्रकार नगर वह सम्पूर्ण समाज है जहाँ जनसंख्या बहुत अधिक होती है। वहाँ सामान्यतः सामुदायिक भावना की कमी होती है। अनेक समाजशात्रियों की मान्यता है कि व्यवसाय, पर्यावरण, जनसंख्या गतिशीलता, अन्तःक्रिया, विभेदीकरण तथा विजातीयता या विषमता नगरीय जीवन की विशेषताएँ है। अतः नगर एक ऐसा समुदाय है जहाँ आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विषमता, जनसंख्या का अधिक घनत्व, नियन्त्रण के औपचारिक साधन, कृत्रिमता, व्यक्तिवाद की प्रधानता प्रतिस्पर्धा, संघर्ष एवं विभेदीकरण प्रमुख रूप से पाए जाते हैं।

कस्बा एवं नगर

सभ्यता के उद्गम की भाँति नगर की उत्पत्ति भी भूत के अन्धकार में खोई हुयी है। प्रत्येक महान् सभ्यता में लोगों ने देहातों से नगरों में प्रवास किया है। मैसोपोटामिया, मिस्र, यूनान, रोम तथा सैन्धव सभ्यता का उत्थान-पतन उनके नगरों के विकास और हास के साथ हुआ। सर्वप्रथम नगर 6000-5000 ईसापूर्व के मध्य प्रकट हुए, जो आकार में छोटे थे और उन्हें कस्बे से भिन्न करना सम्भव नहीं था। ईसा पूर्व 3000 तक नगरों की अवस्थिति सही अर्थों में हुई। कृषि के आविष्कार ने मानव जीवन को स्थिरता दी, जिससे उसकी अर्थव्यवस्था भी स्थायी होती गई। कालान्तर में कृषि एक व्यवसाय बनकर उभरा, अतः कृषि में नए-नए यंत्रों/प्रविधियों का प्रयोग शुरू हुआ। जो उद्योग कृषि पर आधारित थे, उनका विकास हुआ। 18वीं शताब्दी की औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप उद्योगों में कई विधियों का आविष्कार हुआ। इनका बड़े पैमाने पर प्रयोग किया गया। इसमें काम करने के लिए अधिक व्यक्तियाँ की आवश्यकता हुई। लोग गाँवों को छोड़कर नगरों की ओर आए, जिससे नगरीकरण होता गया। राजनीतिक व धार्मिक कारण भी इसमें सहयोगी रहे। भारत में नगर प्राचीन काल से रहे हैं। प्राचीन भारतीय इतिहास में अयोध्या, मथुरा, पाटलिपुत्र, काशी, मगध, तक्षशिला, उज्जयिनी, कोशल, आदि नगरों का उल्लेख मिलता है। शब्द ‘ पुर’ जिसका मूल अर्थ ‘किलेबन्द स्थान’ या बाद में ‘नगर’ के लिए प्रयुक्त होने लगा। आजकल भी अनेक नगरों के नाम में’ पुर’ शब्द प्रत्यय के रूप में लगा हुआ है, यथा- कानपुर, नागपुर, मणिपुर, मुजफ्फरपुर, सीतापुर आदि प्राचीन काल में नगरों की संख्या अधिक नहीं थी। नगरों का प्रशासन राजकीय अधिकारी (नागरक) द्वारा होता था। स्थानीय स्वशासन का अभाव था।

भारत में नगरों के उद्विकास के कारक-

औद्योगिकरण के साथ स्वाभाविक रूप में नगरों की संख्या बढ़ने लगी। प्रत्येक सभ्यता के इतिहास में ग्राम से नगर की ओर प्रवास और नगरों का विकास देखा जाता है। भारत में भी संसार के अन्य भागों की भाँति कस्बों और नगरों का विकास देहातों से लोगों के प्रयास द्वारा ही हुआ है। मैकाइवर एवं पेज ने नगरों के विकास के लिए तीन कारकों को मुख्यतः उत्तरदायी बताया है-

1. भौतिक कारक के रूप में अतिरिक्त साधनों की उपलब्धता कृषि क्षेत्र में हुयी क्रान्ति के कारण अनेक लोग बेकार हो गए, अतः वे अन्य उद्योगों से जुड़ गए। खनिज पदार्थों और अन्य शक्तियों के ज्ञान का परिणाम नगरों के विकास से स्पष्ट हुआ

2. औद्योगिकरण एवं व्यवसायीकरण ने भी कस्बो/नगरों के विकास में सहयोग दिया। भारत में टाटानगर, मोदीनगर व जमशेदपुर का विकास औद्योगिकरण की ही देन है। औद्योगिकरण के कारण बड़ी मात्रा में उत्पादन होने लगा, अतः उसके वितरण के लिए व्यापार वाणिज्य संस्थाएँ पनपीं। आधुनिक भारत में कानपुर और अहमदाबाद का विकास व्यापार और व्यवसाय के कारण ही हुआ।

3. नगरों का आर्थिक आकर्षण भी नगरों के विकास का प्रमुख कारण है। मांग एवं पूर्ति के कारण नगरों में आसानी से जीविकोपार्जन होता है। यातायात तथा संचार साधनों, चिकित्सा, शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा आदि के कारण भी लोग नगरों में रहना पसन्द करते है ।

नगरों के विकास के लिए सामान्य कारक हैं-

  1. ग्रामीण कारक,
  2. नगरीय कारक,
  3. आर्थिक कारक,
  4. सामाजिक कारक,
  5. सैनिक कारक।

भारतीय समाज की संरचना और संयोजन में गांवों की भांति नगरों और कस्बों की भी भूमिका महत्वपूर्ण रही है और आज भी है। नगरों के वातावरण में अनेक ऐसी सुविधाएँ हैं, जिनसे व्यक्ति को अपना जीवन अधिक सुखी और व्यवस्थित प्रतीत होता है। नगरीय जीवन में पारिवारिक जीवन के बन्धन नहीं होते। नगर का अनामिक स्वरूप नगरवासी को निकटस्थ सामाजिक नियंत्रण से मुक्त रखता है। सामाजिक नियंत्रण विशिष्ट अभिकरणों का कार्य बन जाता है। व्यक्ति यदि विवाह सम्बन्धी प्रथाओं का उल्लंघन करता है, तब भी उसका बहिष्कार नहीं किया जाता है। नगर के प्राथमिक सम्बन्धों के स्थान पर द्वितीयक सम्बन्धों की ही प्रधानता होती है। नगर जटिलता और विषमता का प्रतीक है। नगरों में गतिशीलता और विशिष्टोकरण पर बल दिया जाता है। नगर में स्त्रियों की प्रस्थिति ऊँची होती है। नगर सम्पत्ति का घर है, अतः लोगों का उसके प्रति आकर्षित होना स्वाभाविक है। नगर नए विचारों और आविष्कारों को जन्म देता है। नगरों में वैयक्तिक उन्नति के अवसर अधिक सुलभ होते हैं। यह सांस्कृतिक बहुलता प्रदान करता है। महत्वाकांक्षी लोगों को अपनी योग्यताओं का प्रदर्शन करने हेतु पर्याप्त अवसर देता है। जीवन को सुखमय और आनन्दपूर्ण बनाने के साधन उपलब्ध कराता है। नगर के सामाजिक प्रभाव स्वयं नगर से विशालतम होते हैं।

औद्योगिक क्रांति से पहले तक शहरी जीवन को ‘विशेषाधिकार के रूप में समझा जाता था, किन्तु उसके बाद नगरों को निराशा और घृणास्पद दृष्टि से देखा जाने लगा है। आज बड़ा शहर एक प्रवंचना है, यह व्यक्तियों को अपने सांस्कृतिक और नेतृत्व के गुणों का झूठा विश्वास दिलाता है। यह

मुम्बई या दिल्ली को साहस का क्षेत्र, देवी का बच्चा, राष्ट्र की माता- झूठा, अत्याचारी, रंगीला, अकिंचन तथा प्रादेशिक भावनाओं से परिपूर्ण पाखण्डी कहता है। शहर भारत की सर्वोत्तम जनसंख्या को अपनी और खींचता है और बाद में उनके पारिवारिक जीवन को नष्ट कर देता है। बड़े-बड़े महानगरों में प्रलय जैसी सम्भावनाएँ होती हैं। यह परिवार, नातेदारी, रक्त और राष्ट्र के बन्धन को नष्ट कर देता है। यहु प्रतियोगिता-तत्व पर अधिक बल देकर विघटनकारी मनोवृत्तियों का पोषण करता है। प्राथमिक सम्बन्धों का अभाव, व्यक्तिवाद की प्रबलता, सामुदायिक भावना का अभाव, पारिवारिक जीवन की अनुपस्थिति, निम्न स्तरीय नैतिकता, यांत्रिक जीवन, सामाजिक विघटन एवं व्यक्तित्व के एकांगी पक्ष का विकास आदि शहरी जीवन के मुख्य दोष माने जाते हैं।

गाँव तथा कस्बा में क्या अन्तर है?

भारतीय समाज में नगरीकरण की प्रवृत्ति धीमी, किन्तु निरन्तर है। सन् 1921 में नगरीय जनसंख्या का प्रतिशत 11.2 था, जो सन् 1981 में 23.73 प्रतिशत और 1991 में बढ़कर 25.2 प्रतिशत हो गया। 1951 में नगरीय जनसंख्या 6 करोड़ 22 लाख थी, जो 199 में बढ़कर 20 करोड़ से भी अधिक हो गयी। नगरों में जनसंख्या की निरन्तर वृद्धि होने से नगरीय क्षेत्रों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। 1971 में देश में 1981 नगर थे, किन्तु 1991 में बढ़कर 330 हो गए। 2001 की जनगणना में नगरीय जनसंख्या में 27.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जिससे नगरीय क्षेत्रों की संख्या भी बढ़ गयी है। वर्तमान भारत में कोलकाता, मुम्बई, चेन्नई, दिल्ली, अहमदाबाद, कानपुर सर्वाधिक सघन नगर है। स्पष्ट है कि वर्तमान भारतीय समाज प्रादेशिक और सामाजिक दृष्टि से अधिकाधिक नगरीकृत बनता जा रहा है। नित्य अधिक से अधिक लोग नगरों में बसते जा रहे हैं तथा नगरीय जीवन ग्रामवासियों को जीवन-पद्धति को भी प्रभावित कर रहा है। स्पट है कि यदि वर्तमान नगरों का विकास शीघ्र ही बन्द नहीं होता, तो भारत के देहात खाली हो जाएँगे और हम एक ऐसे बिन्दु पर पहुँच जाएँगे, जहाँ हम सभी एक ही विशाल नगर में रह रहे होंगे।

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