धर्म का अर्थ बताइये और इसके प्रमुख तत्वों की विवेचना कीजिये।

धर्म का अर्थः-

धर्म का अर्थः- धर्म शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा के ‘पृ’ शब्द से हुई है जिसका अर्थ है- ‘ धारण करना’ अर्थात सभी जीवों के प्रति मन का दया का भाव धारण करना ही धर्म है। धर्म का अंग्रेजी पर्याय (Religion) है जिसका अर्थ है बन्धन अर्थात मनुष्य को ईश्वर के बन्धन में रहना। इस प्रकार मनुष्य द्वारा सात्विक गुणों को धारण करना ही धर्म हैं।

धर्म की परिभाषा:-

विद्वानों द्वारा दी गयी धर्म की प्रमुख परिभाषायें निम्न हैं

(1) सर जेम्स फ्रेजर के अनुसार ” धर्म से मनुष्य में श्रेष्ठ उन शक्तियों की संतुष्टि या आराष्जा ना समझता है जिनके सम्बन्ध में यह विश्वास किया जाता है कि वे प्रकृति और मानव जीवन को मार्ग दिखाती और नियंत्रित करती है। “

(2) मैलिनोवस्की के अनुसार “धर्म क्रिया की एक विधि है और साथ ही विश्वासों की एक व्यवस्था भी धर्म एक समाजशास्त्रीय घटना के साथ-साथ एक व्यक्तिगत अनुभव भी है।”

(3) पी. हॉनिगशीम के अनुसार-” प्रत्येक उस मनोवृत्ति को धर्म कहेंगे जो इस विश्वास पर आधारित है कि अलौकिक शक्तियों का अस्तित्व है तथा उनसे सम्बन्ध स्थापित करना न केवल महत्वपूर्ण है वरन् संभव भी है।”

(4) एडवर्ड टायलर ने धर्म के बारे में लिखा है-” धर्म आध्यात्मिक शक्ति में विश्वास है।” इस प्रकार धर्म किसी अतिमानवीय या अलौकिक शक्ति पर विश्वास है जिसका आधार श्रद्धा, भक्ति और भय है।

धर्म की विशेषताएं (लक्षण) :

धर्म की प्रमुख विशेषताएं अथवा लक्षण निम्नलिखित है

(1) आलौकिक शक्ति में विश्वास-

जॉनसन के अनुसार “एक अलौकिक शक्ति में विश्वास धर्म का सबसे प्रमुख तत्व है।” विश्वास के बिना किसी भी प्रकार धर्म का निर्माण और विकास नहीं हो सकता। धर्म के अन्तर्गत एक ऐसी शक्ति में विश्वास किया जाता है जो आलौकिक और दिव्य चरित्र की होती है। इसी विश्वास पर धर्म टिका हुआ है और जो लोग इस प्रकार का विश्वास नहीं करते, वे नास्तिक कहलाते हैं। यह आलौकिक शक्ति साकार भी हो सकती है और निराकार भी।

(2) पूजा पद्धति-

धर्म में विश्वास करने वाले लोग जिस शक्ति पर विश्वास करते हैं, उससे लाभ उठाने व उसके कोप से बचने हेतु प्रार्थना, पूजा तथा आराधना करते हैं। हर धर्म के देवालय व विधियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं।

(3) संवेगात्मक भावनाएँ-

धर्म में विश्वास करने वालों में आलौकिक शक्ति के प्रति संवेगात्मक भावनाएं होती हैं जिनकी अभिव्यक्ति उस शक्ति के प्रति श्रद्धा, भय, प्रेम, आदि के रूप में की जाती है।

(4) स्तरीकरण-

धर्म की व्यवस्था में संस्तरण पाया जाता है। जिन लोगों को धार्मिक क्रियाएँ अथवा कर्मकाण्ड कराने का समाज द्वारा विशेष अधिकार प्राप्त होता है, उन्हें अन्य लोगों की तुलना में संस्कारात्मक दृष्टि से उच्च एवं पवित्र समझा जाता है। ऐसे लोगों में पण्डे, पुजारी, महन्त मन्त, पादरी, मौलवी, ओझा आदि आते हैं। संस्तरण की प्रणाली में दूसरा स्थान उन लोगों को प्राप्त होता है जो धर्म के अंतर्गत बनाये गये मार्ग पर चलते हैं।

(5) पवित्रता की भावना

जिस धर्म को लोग मानते हैं, उनकी दृष्टि में उस धर्म से सम्बन्धित सब कुछ पवित्र होता है। दुखॉम ने धर्म में पवित्रता पर बल देते हुए लिखा है कि धर्म पवित्र वस्तुओं से सम्बन्धित विश्वासों और आचरणों की वह समग्र व्यवस्था है जो इस पर विश्वास करने वालों को एक नैतिक समुदाय में संयुक्त करती है।’

(6) धार्मिक प्रतीक

प्रत्येक धर्म में उसके प्रतीक अवश्य होते हैं जैसे हिन्दू धर्म में हवन, पूजा-आरती, केले, पीपल आदि की पूजा व गंगा जल और तोर्थ स्थानों का विशेष महत्व है तो ईसाई धर्म में बाइबिल, क्रॉस, मोमबत्ती आदि का इसी प्रकार अन्य प्रतीकों या कुछ भौतिक वस्तुओं का समावेश भी धर्म के अन्तर्गत होता है।

सन्दर्भ समूह का अर्थ तथा विशेषताये बताइये?

(7) निषेध व्यवस्था

प्रत्येक धर्म में लोगों के व्यवहारों के नकारात्मक पक्ष को प्रभावित करने की दृष्टि से कुछ निषेध पाये जाते हैं। निषेध का तात्पर्य यही है कि उन्हें कुछ कार्यों की मनाही की जाती है, उन्हें बताया जाता है कि क्या-क्या नहीं करना चाहिए, जैसे, झूठ नहीं बोलना चाहिए, दुराचार, व्यभिचार, बेईमानी आदि नहीं करनी चाहिए। कुछ निषेध सभी धर्मों में समान रूप से पाये जाते हैं। जबकि कुछ विशेष समाज से ही सम्बन्धित होते हैं। विवाह सम्बन्धी निषेध प्रत्येक समाज में अलग-अलग पाये जाते हैं।

इस प्रकार धर्म एक विश्वास और श्रद्धा है जिसकी अपनी विशेषतायें और नियम होते हैं जिनका पालन करना अति आवश्यक होता है।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top