त्रिकोणात्मक संघर्ष का इतिहास – 8वीं शताब्दी से लेकर 10वीं शताब्दी तक उत्तरी भारत में सत्ता की स्थापना को लेकर पाल, प्रतिहार और राष्ट्रकूट वंशों के मध्य लड़े गये युद्धों को त्रिकोणात्मक संघर्ष के नाम से जाना जाता है। इस संघर्ष का मुख्य केन्द्र कन्नौज था। कन्नौज पर अधिकार को लेकर ही इन राजवंशों ने एक दूसरे पर आक्रमण किये।
त्रिकोणात्मक अथवा त्रिदलीय संघर्ष के कारण इस संघर्ष का कारण था कन्नौज पर अधिकार। के कन्नौज पर सन् 770 ई. में आयुधवंश की सत्ता स्थापित हुई। इस वंश का दूसरा शासक इन्द्रायुध एक निर्बल शासक था। अतः कन्नौज पर अन्य राज्य अधिकार करने को प्रयत्नशील हो गये। कन्नौज पर अधिकार प्राप्त करने और सार्वभौम शक्ति प्राप्त करने की आकांक्षा सबसे अधिक गुर्जर प्रतिहारों में थी। राष्ट्रकूट भी उत्तर भारत में अपना प्रभाव फैलाना चाहते थे। यही स्थिति बंगाल के पालों के साथ भी थी गंगा और यमुना के मध्य अवस्थित कन्नौज का आर्थिक महत्व भी बहुत अधिक था। कन्नौज का प्रदेश अत्यधिक उपजाऊ था। यह नदी मार्ग द्वारा होने वाले व्यापार की दृष्टि से उत्तरी एवं पूर्वी भारत के बीच महत्वपूर्ण व्यापारिक कड़ी थी। अतः कन्नौज पर अधिकार कर तीनों शक्तियाँ अपनी राजनैतिक एक आर्थिक स्थिति में वृद्धि करना चाहती थी।
त्रिदलीय संघर्ष का प्रारम्भ
वत्सराज – धर्मपाल युद्ध गुर्जर-प्रतिहार नरेश वत्सराज एवं पाल नरेश धर्मपाल दोनों ही कन्नौज पर अधिकार जमाना चाहते थे। दोआब के मध्य में होने के कारण इस प्रदेश का बड़ा महत्व था। पाल शासक धर्मपाल ने अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए कन्नौज पर आक्रमण कर वहाँ के शासक इन्द्रायुध को हटाकर चक्रायुध को अपने अधीनस्थ शासक घोषित किया। यह स्थिति प्रतिहार शासक वत्सराज को सहन नहीं हुई। अतः दोनों शक्तिशाली वंशों के नरेशों के मध्य में संघर्ष होना अनिवार्य हो गया था। राष्ट्रकूट के वणि डिण्डोरी अभिलेख से ज्ञात होता है कि प्रतिहार नरेश वत्सराज ने गौड़ शासक धर्मपाल को सरलतापूर्वक पराजित कर उसके धवल राजछत्र को छीनकर यश को प्राप्त किया।
ध्रुव वत्सराज – पराजित धर्मपाल ने राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव से सहायता माँगी। धर्मपाल की रानी रण्णादेवी राष्ट्रकूट वंश की कुमारी थी। राष्ट्रवंश का शासक ध्रुव भी उत्तर भारत की ओर विजय प्राप्त करना चाहता था। अमोघवर्ष प्रथम के संजन ताम्रपत्र लेख से विदित होता है कि राष्ट्रकूट शासक ध्रुव ने वत्सराज को पराजित कर धवल राजछत्र को छीन लिया। प्रतिहार राजा वत्सराज को पराजित होकर कन्नौज छोड़कर अपने राज्य वापस लौटने के लिए विवश होना पड़ा। ध्रुव-धर्मपाल राष्ट्रकूट शासक ध्रुव ने प्रतिहार नरेश वत्सराज को पराजित करने के पश्चात् पूर्व की ओर प्रस्थान किया। पूर्व में पालनरेश धर्मपाल पराजित हुआ। यह युद्ध गंगा एवं यमुना के दोआब में हुआ था। सूरत अभिलेख से भी विदित होता है कि ध्रुव की सेना ने गंगा नदी के प्रवाह को भी अवरुद्ध कर दिया या बड़ौदा अभिलेख से भी शत होता है कि गंगा यमुना के दोआब पर राष्ट्रकूटों का अधिकार हो गया था।
राष्ट्रकूट शासक ध्रुव ने प्रतिहार एवं पाल नरेशों को पराजित कर उनके प्रदेशों को अपने साम्राज्य में नहीं मिलाया प्रत्युत अपनी राजधानी को वापस लौट गया। राष्ट्रकूट शासक पाल नरेश को पराभ कर जैसे ही दक्षिण की ओर मुडा पाल नरेश धर्मपाल ने पुनः कन्नौज पर अधिकार कर लिया। राजा इन्द्रायुध को हटाकर चक्रायुध को राजा बनाया। उसके राज्याभिषेक के समय अनेक प्रदेशों के सम्मिलित थे, परन्तु चक्रायुध पात नरेश धर्मपाल के हाथों की कठपुतली था। कन्नौज का मुख्या धर्मपात ही था।
नागभट्ट द्वितीय धर्मपाल- प्रतिहार नरेश वत्सराज की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र नागभटर द्वितीय उत्तराधिकारी बना नागभट्ट द्वितीय एक दूरदर्शी एवं कूटनीतिज्ञ सम्राट था। उसने पाल एवं राष्ट्रकूट वंश के विरुद्ध आन्ध्र, सिन्धु, विदर्भ एवं कलि सम्राटों के साथ एक संघ बनाया। इसके पश्चा कन्नौज के शासक चक्रायुध को पराजित किया। पाल नरेश धर्मपाल इसे सहन न कर सका। अतः दोन वंश के मध्य पुनः युद्ध हुआ जिसमें नागभट्ट द्वितीय विजयी हुआ। उसने आधुनिक बिहार के मुंगेर के भी अपने साम्राज्य में मिलाकर कन्नौज को ही अपनी राजधानी बनाया।
गोविन्द तृतीय- नागभट्ट द्वितीय राष्ट्रकूट शासक ध्रुव की मृत्यु के पश्चात् पुत्र गोविन्द तृतीय उत्तराधिकारी बना यह भी उत्तरी भारत पर आक्रमण करना चाहता था। उत्तरी भारत पर आक्रमण करने के उसके तीन उद्देश्य थे
- अपने क्षत्रियोचित शौर्य का प्रदर्शन करना,
- अपने पिता ध्रुव द्वा ध्वस्त प्रतिहार वंश के उत्कर्ष को समाप्त करना,
- प्रतिहार नरेश नागभट्ट द्वारा आन्ध्र, सिन्धु, विद एवं कति सम्राटों के साथ बनाये हुए संघ को नष्ट करना, क्योंकि इन राज्यों के राष्ट्रकूट की उत्तरी सीम पर स्थित होने के कारण उसे सदैव भय था कि किसी समय हमारे राज्य पर आक्रमण न हो जाये।
राष्ट्रकूट शासक गोविन्द तृतीय ने इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बड़ी समझदारी से कार्य किया। उसने अपने भाई इन्द्र को प्रतिहारों के मूल प्रदेश पर आक्रमण करने के लिए भेजा और स्वयं नागभट्ट द्वितीय की राजधानी कन्नौज पर आक्रमण कर दिया, फलतः नागभट्ट द्वितीय को इस युद्ध में पराजय का मुँह देखना पड़ा। यह युद्ध लगभग 810 ई. में हुआ था।
राष्ट्रकूट शासक गोविन्द तृतीय ने उन राज्यों को अपने साम्राज्य में नहीं मिलाया जो उसने उत्तर भारत में जीते थे बल्कि वापस लौट गया। उसके वापस लौटने के पश्चात् नागभट्ट द्वितीय ने पुन कन्नौज पर अपना अधिकार पा लिया।
देवपाल, विग्रहपाल एवं नारायण पाल- रामभद्र एवं मिहिरभोज –
सन् 810 ई. में पा नरेश धर्मपाल की मृत्यु की पश्चात् उसका पुत्र देवपाल उत्तराधिकारी बना प्रतिहार नरेश नागपाल द्वितीय के जीवित रहने तक पाल नरेश देवपाल कोई आक्रमण नहीं कर सका। सन् 833 ई. में नागभट्ट की मृत् के पश्चात् उसका पुत्र रामभद्र उत्तराधिकारी हुआ जो अपने पूर्वजों की प्रतिष्ठा बचाने में असमर्थ रहा।
गुर्जर प्रतिहार नरेश रामभद्र के पश्चात् मिहिरभोज उत्तराधिकारी हुआ जो एक कुशल एवं योग शासक था लेकिन वह भी देवपाल की शक्ति के सामने झुकने को विवश हो गया अर्थात डॉ. त्रिपाठी अनुसार प्रतिहार नरेश मिहिर पल नरेश देवपाल से पति हो गया।
डॉ. रमेश चन्द्र मजूमदार के मतानुसार, पाल नरेश देवपाल ने उत्तरी भारत में पाल वंश की महत को तीन पीढ़ियों तक प्रतिहार शासकों से युद्ध करके बरकरार रखा।
विग्रह पाल जो कि देवपाल के पश्चात् पालवंश का उत्तराधिकारी हुआ का शासन काल केवल चार वर्ष (850-854 ई.) तक ही रहा। तत्पश्चात् उसका पुत्र नारायणपाल सिंहासन पर बैठा जो पात वंश का दुर्बल नरेश साबित हुआ, फलतः पाल वंश के इन दोनों नरेशों को पराजित करके मिहिरभोज अपना अधिकार जमा लिया।
मिहिर भोज अमोघवर्ष एवं कृष्ण द्वितीय – राष्ट्रकूट वंश के शासक अमोघवर्ष की दृष्टि उत्तर भारत पर नहीं गयी क्योंकि वह आन्तरिक विद्रोहों में फँसा हुआ था जिसका प्रतिहार नरेश मिहिरभोज लाभ उठाकर विन्ध्यपर्वत को पारकर लिया और वहाँ के दक्षिण राजाओं को कर देने के लिए विवश किया परन्तु कुछ ही समय पश्चात् गुजरात के सामन्त ध्रुव द्वितीय के द्वारा प्रतिहार नरेश मिर पराजित हो गया।
महेन्द्रपाल प्रथम नारायण पाल – सन् 885 में मिहिरभोज की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम उत्तराधिकारी नियुक्त हुआ जिसने उत्तरी बंगाल एवं पाल वंश के नारायणपाल से मगध छीनकर अपने अधिकार में मिला लिया था। डॉ. रमेश चन्द्र मजूमदार के कथनानुसार प्रतिहार नरेश महेन्द्रपाल ने साम्राज्य को उग्रता से नष्ट कर दिया। परन्तु उदयपुर लेख के अनुसार, नारायण पाल ने मगध राज्य पर पुनः आधिपत्य जमा लिया था। नारायण पाल के पश्चात् ही इस वंश का अन्त हो गया, फिर किसी भी अभिलेख में पाल एवं प्रतिहार के संघर्ष का उल्लेख नहीं किया गया है।
महिपाल प्रथम- इन्द्र तृतीय एवं इसके उत्तराधिकारी – महेन्द्र पाल के उपरान्त भोज द्वितीय एवं महिपाल प्रथम क्रमशः राजा नियुक्त हुए। महिपाल प्रथम ने 912 ई. से 942 ई. तक शासन किया। इसके समकालीन राष्ट्रकूट शासक इन्द्र तृतीय (914-922 ई.) अमोघवर्ष द्वितीय (922-923) ई.) गोविन्द चतुर्थ (923-936 ई.) अमोघवर्ष तृतीय (936-968 ई.) एवं कृष्ण तृतीय थे, जिनका शासन काल (939-968 ई.) तक था।
खम्मात अभिलेख से विदित होता है कि महिपाल प्रथम को उस समय अपनी जान बचाकर भागना पड़ा जब राष्ट्रकूट शासक इन्द्र तृतीय ने कन्नौज पर हमला कर जीत हासिल की। परन्तु प्रतिहार नरेश महिपाल ने पुनः कन्नौज पर कब्जा कर लिया क्योंकि इन्द्र तृतीय वापस लौट गया था। इस प्रकार प्रतिहारवंश ही अन्ततः विजयी रहा।
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त्रिकोणात्मक संघर्ष का अन्त- इस प्रकार लगभग एक सौ पचहत्तर वर्षों तक पाल, प्रतिहार और राष्ट्रकूटों में संघर्ष होता रहा। गुर्जर प्रतिहार शासक महिपाल प्रथम ( 912-942 ई.) की मृत्यु के बाद इस वंश का पतन प्रारम्भ हो गया। इस प्रकर पाल वंश में भी विग्रहपाल द्वितीय के पश्चात् इस वंश का भी पतन प्रारम्भ हो गया। इस वंश का अन्तिम शासक मदन पाल (1106-1125) था जो बहुत ही निर्बल था। राष्ट्रकूट वंश में भी कृष्ण तृतीय के पश्चात् कोई शक्तिशाली शासक न रहा। अतः चालुक्यों ने राष्ट्रकूट से सत्ता हथिया ली। इस प्रकार इन तीनों राजवंशों के निर्बल होने के साथ ही त्रिकोणात्मक संघर्ष का भी अन्त हो गया।
त्रिकोणात्क संघर्ष का परिणाम
त्रिकोणात्मक संघर्ष ने तीनों ही राजवंशों को निर्बल बना दिया। साथ ही साथ देश भी जर्जर होता चला गया। बड़े राजवंशों का धीरे-धीरे पतन होने लगा और छोट-छोटे राजवंशों का उदय होने लगा। इसका लाभ विदेशी तुर्क जाति ने उठाया। तुर्कों ने इन राजवंशों को पराजित किया। इन राजवंशों ने आपसी शत्रुता के कारण संगठित होकर तुर्कों का सामना नहीं किया। अतः शीघ्र ही सम्पूर्ण देश पर तुर्कों की सत्ता स्थापित हो गयी।
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