तराइन के युद्धों का विवरण देते हुए पृथ्वीराज चौहान की पराजय के कारणों का उल्लेख कीजिए।

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तराइन के युद्धों का विवरण

तराइन के युद्धों महमूद गजनवी के पश्चात् भारत पर एक दूसरे महत्वपूर्ण तुर्क विजेता का आक्रमण हुआ जो इतिहास में मुहम्मद गोरी के नाम से प्रसिद्ध है। मुहम्मद गोरी 1173 ई. में गोर वंश का सुल्तान बना। 1175 से 1205 ई. के मध्य गोरी ने भारत पर कई आक्रमण किये। 1186 ई. तक मुहम्मद गोरी ने भारत पर मुल्तान, कवर, पेशावर, लाहौर तथा स्यालकोट पर अधिकार कर लिया। अब उसका सामना दिल्ली तया अजमेर के चौहान शासक पृथ्वीराज तृतीय उर्फ रामपिथौरा से होना या जो तत्कालीन समय में उत्तर भारत का सबसे शक्तिशाली सम्राट था। दोनों की सेनाओं का मुकाबला तराइन के मैदान में हुआ।

तराइन का प्रथम युद्ध (1191 ई.)- तराइन का प्रथम युद्ध भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। मुहम्मद गोरी का भारत के आन्तरिक प्रदेश में पहला संघर्ष दिल्ली और अजमेर के चौहान शासक पृथ्वीराज चौहान से हुआ। 1191 ई. में मुहम्मद गोरी ने भटिन्डा पर आक्रमण किया और उसे जीत लिया। जब पृथ्वीराज को इसका पता चला तो वह एक सेना लेकर चल पड़ा। दोनों सेनाओं का संघर्ष तराइन के मैदान में हुआ। इस संघर्ष में केवल कन्नौज के राजा ने भाग नहीं लिया, क्योंकि दोनों की शत्रुता थी। इस युद्ध में वीर राजपूतों का आमने-सामने से मुस्लिम सेनाओं से युद्ध हुआ। इस युद्ध में सुल्तान स्वयं बुरी तरह घायल हो गया। वह मूर्च्छित होकर गिरने ही वाला था कि एक खिलजी सैनिक से उसे पकड़ लिया। सुल्तान की सेना भागने लगी। चालीस मील तक राजपूतों ने भागती सेना का पीछा किया। इस युद्ध में गोरी की पूर्ण पराजय हुई। मुहम्मद गोरी को इससे इतना सदमा पहुँचा कि न तो कभी आराम से सो सका न चिन्ता मुक्त होकर जाग सका

तराइन के प्रथम युद्ध के बाद पृथ्वीराज चौहान ने राजपूतों को संगठित करने का कोई प्रयास नहीं किया इसके विपरीत उसने गहड़वाल नरेश जयचन्द की पुत्री संयोगिता का अपहरण करके पहले से चली आ रही शत्रुता को और बढ़ा दिया। इस घटना के बाद जयचन्द पृथ्वीराज का पोर शत्रु बन गया।

तराइन का दूसरा युद्ध (1192 ई.)- तराइन का दूसरा युद्ध एक ‘युग परिवर्तनकारी’ घटना कही जाती है। मुहम्मद गोरी अपनी पहली पराजय को भूला न था। अगले ही वर्ष उसने एक विशाल सेना लेकर पुनः भारत पर आक्रमण किया। कुछ विद्वानों के अनुसार कन्नौज के राजा जयचन्द ने अपने शत्रु पृथ्वीराज को हराने के लिए गोरी को बुलाया। मेजर रैवटी, टॉड महोदय एवं चन्दबरदाई के यही मत है।

तराइन के मैदान में दोनों पक्षों के मध्य भयंकर संघर्ष हुआ। सूर्यास्त के समय तक युद्ध चलता रहा। जब राजपूत सेना थककर चूर हो गयी तो गोरी ने अपनी एक 12,000 की सुरक्षित सेना को आक्रमण करने को कहा, इससे राजपूतों के पांव उखड़ गये। मिनहाज उस सिराज के अनुसार पृथ्वीराज सरसुती नामक स्थान पर पकड़ा गया और दोजख को भेज दिया गया। चन्दबरदाई ने इस घटन को पृथ्वीराज रासो में बिल्कुल भिन्न प्रकार से दिया है उसके अनुसार पृथ्वीराज को बन्दी बनाकर गवरी ले जाया गया और वहां अन्धा किया गया। टाड ने केवल यह लिखा है कि पृथ्वीराज बन्दी बनाया गया और तब मौत के घाट उतार दिया गया। अजमेर, शिवालिक की पहाड़ियां, हांसी और अन्य जिलों पर सुल्तान का अधिकार हो गया। अजमेर को उसने खूब लूटा और मन्दिर गिराये तथा एक मस्जिद बनवायी। यह युद्ध एक निर्णायक युद्ध था। वस्तुतः यह हार पृथ्वीराज की हार न थी, बल्कि समस्त भारत की हार थी

डॉ. स्मिथ के शब्दों में, “सन् 1192 ई. तराइन का द्वितीय युद्ध एक निर्णायक युद्ध था जिसने हिन्दुस्तान में मुहम्मद गोरी की सफलता निश्चित कर दी।

डॉ. आशिर्वादी लाल के अनुसार, “तराइन का दूसरा युद्ध इतिहास का एक युग परिवर्तनकारी घटना है। यह युद्ध निर्णायक सिद्ध हुआ और इसने मुहम्मद गोरी की भारत विजय निश्चित कर दी।”

डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने भी लिखा है कि, “इस पराजय के फलस्वरूप भारतीय समाज के प्रत्येक वर्ग में ऐसी निराशा छा गयी कि अब मुसलमानों के आक्रमण का प्रतिरोध करने के लिए राजपूत नरेशों को एक ध्वज के नीचे एकत्र करने का दुर्दमनीय उत्साह रखने वाला कोई भी राजपूत योद्धा न रह गया।अतः मुसलमानों का कार्य बहुत सरल हो गया।

शिक्षा निर्देशन का उद्देश्य बताते हुए उसके सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।

पृथ्वीराज चौहान की पराजय के कारण- तराइन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज तृतीय की पराजय के साथ ही भारत पर मुसलमानों की गुलामी की इबारत लिख उठी। तराइन युद्ध में पृथ्वीराज और राजपूतों की पराजय के अनेक कारण थे, जिसे निम्नतः स्पष्ट किया जा सकता है-

  1. तराइन के प्रथम युद्ध (1191 ई.) में पृथ्वीराज ने गोरी की सेनाओं को परास्त किया और वह भाग खड़ा हुआ। किन्तु पृथ्वीराज ने घोर अदूरदर्शिता का परिचय दिया तया भागती हुई मुसलमानी सेना और गौरी का पीछा नहीं किया। जबकि उसे भागती मुसलमानी सेना का पीछाकर नष्ट कर देना चाहिए था।
  2. वाइन के प्रथम युद्ध के पश्चात् पृथ्वीराज गोरी की ओर से निश्चिन्त होकर रंगरलियाँ मनाने लगा, जबकि गोरी ने इस समय का उपयोग शक्ति जुटाने में किया। अतः पृथ्वीराज की इस उदासीनता का परिणाम घातक निकला।
  3. पृथ्वीराज ने अपने समय के भारतीय राजाओं को एकजुट करने की रणनीति नहीं अपनाथी फलतः वह गोरी के विरुद्ध अकेला पड़ गया।
  4. पृथ्वीराज और गोरी के सैनिक संगठन में बड़ा अन्तर था। साथ ही उनकी घुड़सवार सेना में भी अन्तर था जो पृथ्वीराज की हार का मुख्य कारण था।
  5. राजपूतों की हाथी सेना भी प्रायः पराजय का कारण बनी थी। राजपूत लोग हाथी सेना का उद्देश्य शत्रु को कुचलने में करते थे, जबकि तुर्क उनका प्रयोग किले के दरवाजे तोड़ने या घमासान युद्ध के समय शत्रुओं को रदिनें में करते थे।
  6. राजपूत सेना में स्थायी सुसंगठित सेना का अभाव था। अधिकतर युद्ध सामन्तों की सेना के आधार पर लड़ा जाता था। सामन्तों में राज्यहित की भावना नहीं होती थी।
  7. राजपूत सिर्फ धर्मयुद्ध द्वारा ही विजय प्राप्त करना चाहते थे जबकि तुर्क केवल विजय पशप्ति का ध्यान रखते थे।
  8. हिन्दू समाज भाग्यवाद पर विश्वास करता था। ज्योतिषियों एवं तान्त्रिकों पर ज्यादा विश्वास था , जबकि मुसलमान लोग जेहाद की भावना से लड़ते थे। उनके सामने गाजी की उपाधि या अपार धन की पशप्ति का मुख्य विकल्प था। अतः यह भी उनकी विजय का एक कारण बना। उपर्युक्त के अतिरिक्त अनेक युद्धों में भाग्य ने भी मुसलमानों का साथ दिया जिसके कारण वे विजयी हुई। इस प्रकार पृथ्वीराज तृतीय की पराजय से भारत में एक नये इतिहास की शुरुआत हुई और अगले लगभग 750 वर्षों तक भारत पर मुस्लिम शासन रहा।

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