ज्ञान के स्रोत और प्रकार की विवेचना
ज्ञान का स्वरूप ( Nature of Knowledge ) – ज्ञान के स्रोत किसी वस्तु के सम्बन्ध में जानकारी है। वह वस्तु कुछ भी हो सकती है मनुष्य, बैंक द्वारा दिया हुआ कर्ज या गणित की समस्या इत्यादि। ज्ञान का उद्देश्य किसी वस्तु के सम्बन्ध में जैसी वह है वैसी ही उसकी जानकारी होना है। हमारी इस बात की चिन्ता कि हम ठीक से जान जाये कि यह वस्तु यथार्थ में वैसी ही है जैसा उसका ज्ञान यह जाहिर कर देता है कि इस बात की सम्भावना है कि हम धोखा खा रहे हों और हमारे कुछ निर्णय उस वस्तु के सम्बन्ध में गलत भी हो सकते हैं। एक गलत निर्णय हमें इस बात से अवगत न कराकर कि वस्तु यथार्थ में कैसी है इस बात का ज्ञान हमें करायेगी कि वस्तु हमें ऐसी प्रतीत होती है। अतएव यदि हम उन दशाओं के सम्बन्ध में जानकारी रख सकते हैं जिनमें हमारे निर्णय सत्य हैं तब हम उसके साथ-साथ ऐसे स्तर निर्धारित कर सकते हैं जिनके द्वारा हम कृत्रिम का यथार्थता से विभेद कर सकते हैं।
किसी वस्तु के सम्बन्ध में जब हम यह कहते हैं कि हमें उसकी जानकारी है तो हम यह मान कर चलते हैं कि यह जानकारी सत्य है। अतएव ज्ञान की धारणा में पहली बात तो यह निहित है कि ज्ञान को अवश्य सत्य होना चाहिए।
जैसे जब हम कहते हैं कि राहुल को हम जानते हैं तो राहुल से हमारा परिचय सत्य होना चाहिए। दूसरी बात यह कि ज्ञाता को उस बात की सत्यता में विश्वास होना चाहिए। हमें विश्वास होना चाहिए कि हम राहुल को जानते हैं तथा तीसरी बात यह कि ज्ञाता के पास इस बात के पर्याप्त प्रमाण होने चाहिए कि यह बात सत्य है। हमारे पास इस बात के प्रमाण होने चाहिए कि हम राहुल को जानते हैं जैसे हम राहुल से कई बार मिल चुके हैं। या हम और राहुल साथ-साथ पढ़े हैं इत्यादि। इस प्रकार ज्ञान के अर्थ में तीन बातें आती हैं सत्यत् सत्यता विश्वास तथा सत्यता के लिए पर्याप्त प्रमाण।
ज्ञान के स्रोत –
- (i) इन्द्रिय अनुभव (Sensory experience)
- (ii) साक्ष्य (Testimony)
- (iii) तर्क बुद्धि (Reason )
- (iv) अन्तः प्रज्ञा (Intuition)
(i) इन्द्रिय अनुभव (Sense Experience)- मनुष्य ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ही संसार की वस्तुओं सम्पर्क में आता है। जब कोई वस्तु हमारे सम्पर्क में आती है तो वह एक संवेदना उत्पन्न करती यह संवेदना ज्ञानेन्द्रियों को उत्तेजना मिलने के ही कारण होती है। यह संवेदना वस्तु का इ प्रदान करती है। इन संवेदनाओं का अर्थ प्रदान हो जाता है और अब हमें वस्तु का प्रत्यक्षीकरण जाता है। यह प्रत्यक्षीकरण हमें उस वस्तु की जानकारी देते हैं।
प्रत्यक्षीकरण चेतन मन में अवधारणायें (Concepts) उत्पन्न करते हैं। हमारा ज्ञान अवधारणाओं पर ही निर्भर होता है। इन्द्रिय अनुभव द्वारा ज्ञान प्राप्त करने को अनुभवव (Empiricists), ताकिक प्रत्यक्षवादी (Logical Positivists), यथार्थवादी (Realists) तथा विज्ञानव (Scientists) मुख्य स्रोत मानते हैं।
(ii) साक्ष्य ( Testimony)- जब हम दूसरों के अनुभव तथा निरीक्षण पर आधारित ज्ञान को मान्यता देते हैं तो इसे साक्ष्य कहा जाता है। साक्ष्य में व्यक्ति स्वयं निरीक्षण नहीं करता। वह दूसरों के निरीक्षण पर ही तथ्य का ज्ञान प्राप्त करता है। इस प्रकार साक्ष्य दूसरे के अनुभव पर आधारित ज्ञान है। हमारे जीवन में साक्ष्य का बहुत उपयोग किया जाता है। हमने स्वयं बहुत से स्थानों को नहीं देखा है किन्तु जब दूसरे उनका वर्णन करते हैं तो हम उन स्थानों के अस्तित्व में विश्वास करने लगते हैं।
(iii) तर्क बुद्धि तथा तर्क बुद्धिवाद (Reason and Rationalism )- तर्क एक मानसिक प्रश्न है। हमारा बहुत कुछ ज्ञान तर्क पर भी आधारित होता है। हमें अनुभव द्वारा जो संवेदनायें प्राप्त होती हैं उनको तर्क द्वारा संगठित करके ज्ञान निर्माण किया जाता है। तर्क अनुभव का कार्य करता है और उसे ज्ञान में परिवर्तित करता जाता है।
(iv) अन्तः प्रज्ञा तथा अन्तःप्रज्ञावाद ( Intuition and Intuitionism ) – यह भी ज्ञान का एक प्रधान स्रोत है। अन्तःप्रज्ञा से हमारा तात्पर्य है किसी तथ्य को अपने मन में पा जाना। इसके लिए किसी तर्क की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार के ज्ञान का एक मात्र प्रमाण यह है कि हमें इसकी निश्चितता तथा वैधता में सन्देह नहीं होता। हमारा उस ज्ञान में पूर्ण विश्वास हो जाता है।
ज्ञान के प्रकार (Kinds of Knowledge)- ज्ञान मुख्यता तीन प्रकार के होते हैं
- (1) आगमनात्मक ज्ञान (Aposteriori)
- (2)प्रयोगमूलक ज्ञान (Experimental Knowledge)
- (3) प्रागनुभव ज्ञान (Apriori)
(1) आगमनात्मक ज्ञान ( Posteriori Knowledge )- इस प्रकार का ज्ञान हमारे अनुभव तथा निरीक्षण पर आधारित है। जॉन लॉक (John Locke) इस प्रकार के ज्ञान के प्रवर्तक हैं। उनके अनुसार बालक का मन जन्म के समय कोरी पटिया के समान (Tabula rasa) होता है। जैसे-जैसे अनुभव मिलते जाते हैं इस पटिया पर लेखन होने लगता है इससे तात्पर्य है कि ज्ञान अनुभवों द्वारा वृद्धि करता रहता है। शिक्षा में इस प्रकार के ज्ञान के प्रवर्तक कहते हैं कि सीखने के लिए समग्र अनुभव प्रदान करने चाहिए। इस प्रकार के ज्ञान में अलौकिक का कोई स्थान नहीं है।
प्राचीन कालीन शिक्षक के महत्त्व की विवेचनात्मक वर्णन कीजिए।
( 2 ) प्रयोगमूलक ज्ञान ( Experimental Knowledge )-ज्ञान प्रयोग द्वारा प्राप्त होता है ऐसा प्रयोजनवादियों की धारणा है। यूवी (Dewey) का कहना है कि ज्ञान की प्रक्रिया “एक प्रयास एवं सहन’ (Trying and undergoing) की प्रक्रिया है-एक विचार का अभ्यास में प्रयास करना एवं ऐसे प्रयास के परिणाम से जो फल प्राप्त होते हैं उनसे सीखना। इस धारणा के अनुसार ज्ञान कोई भी ऐसी चीज नहीं है जिसे हम समझे कि वह अनुभव या निरीक्षण से अन्तिम रूप से समझी जा सकती है जबकि हम ऐसी विधियों का प्रयोग करते हैं जैसे आगमन | यह तो कुछ ऐसी वस्तु है जो अनु में सक्रिय होती है। एक कृत्य की गतिज अनुभाव को सतपूर्ण ढंग से आगे की ओर ले जाती है।
3 ) प्रागनुभव ज्ञान (Apriori Knowledge ) – ज्ञान स्वयं-प्रत्यक्ष की भांति समझ जाता है (Knowledge is self-evident) सिद्धान्त जब समझ लिए जाते हैं, सत्य पहचान लिए जाते हैं फिर उन्हें निरीक्षण, अनुमा या प्रयोग द्वारा प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं होती। इस विचारधारा के प्रवर्तक क (Kant) हैं जो कहते हैं कि सामान्य सत्य अनुभव से स्वतन्त्र होने चाहिए उन्हें स्वयं में स्पष्ट व् निश्चित होना चाहिए। गणित का ज्ञान प्रागनुभव ज्ञान समझा जाता है।
उपरोक्त वर्णन के अनुसार एक प्रकार का ज्ञान वह है जो अनुभव के पश्चात् प्राप्त होते है। दूसरे प्रकार का वह है जो प्रयोग, निरीक्षण तथा अनुभव पर केन्द्रित है तथा तीसरे प्रकार के ज्ञान अनुभव से परे है। इस प्रकार के ज्ञान के सम्बन्ध में धारणा होती है कि अनुभव केवल तथ ही देता है परन्तु तथ्य किसी बात को सिद्ध नहीं करते। उनसे सत्य का ज्ञान उस समय तक नहीं हो सकता जब तक कि उनको संगठित न किया जाए। तर्क द्वारा वह संगनित किये जाते हैं। इस प्रकार तर्क या बुद्धि अनुभव को ज्ञान में परिवर्तित करता जाता है। किन्तु कुछ सत्य को अनुभ से प्राप्त तथ्यों की कोई आवश्यकता नहीं होती। यह स्वयं स्पष्ट तथा स्वयं सिद्ध है।
प्रागनुभवित ज्ञान ऐसा ज्ञान कहलाता है जिसे बुद्धि अनुभव की सहायता के बिना प्राप्त करती है। शिक्षण प्रदान करने में हमें इन तीनों प्रकार के ज्ञान को ध्यान में रखना चाहिए। विभिन विषयों का ज्ञान हमें अनुभव द्वारा प्राप्त होता है। गणित या तर्कशास्त्र का ज्ञान प्रागनुभविक प्रका का ज्ञान है। गणित के शिक्षण के समय हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए।
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