जेण्डर संवेदनशीलता से क्या आशय हैं?

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जेण्डर संवेदनशीलता

समाज के लिये स्त्री एवं पुरुष दो पहिये के समान हैं। एक के कमजोर होने पर वाहन रूपी समाज लड़खड़ाने लगता है। अतः जेण्डर या लिंग विभेद को इस रूप में समझा जा सकता है। कि प्रति एक हजार पुरुषों के अनुपात में स्त्रियों की संख्या कितनी है। इससे एक निश्चित समय पर समाज में स्त्री और पुरुषों के मध्य समानता और असमानता का ज्ञान होता है। किसी भी देश की संरचना में जेण्डर तथा लिंगानुपात का विशेष महत्व होता है। लिंगानुपात को देखकर ही किसी देश की सामाजिक सांस्कृतिक स्थिति का एक निश्चित सीमा तक अनुमान लगाया जाता है। स्त्री-पुरुष अनुपात की भिन्नता के कारण ही देश के विभिन्न भागों में भिन्न-भिन्न वैवाहिक एवं पारिवारिक प्रथाएँ देखने को मिलती हैं। देश की जनसंख्या जन्म दर, विवाह की आयु तथा लिंग संरचना पर लिंगानुपात के महत्व का प्रभाव पड़ता है। भारतीय समाज में शताब्दी के आरम्भ से ही स्त्रियों का अनुपात पुरुषों की तुलना में निरन्तर गिरता चला गया है। स्त्रियों का अनुपात पुरुषों तुलना । में कम होने के मुख्य कारण निम्नलिखित हो सकते हैं –

  1. समाज में जब बालक का जन्म होता है तो परिवार में खुशियाँ मनायी जाती हैं तथा उस बालक की सुरक्षा की अपनी-अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार पूर्ण व्यवस्था की जाती है। बालिकाओं की देखभाल प्रायः कम होती है। बालिकाओं का जन्म परिवार में आर्थिक दृष्टि से भार समझा जाता है जबकि बालक को आमदनी का साधन ।।
  2. बालकों को उचित पालन-पोषण एवं बालिकाओं के उचित पालन-पोषण के अभाव में बालिकाओं की बालकों की तुलना में अधिक मृत्यु हो जाती है।
  3. लड़कियों की देखभाल प्रायः कम होने से शारीरिक दृष्टि से वे निर्बल हो जाती हैं। जिसके कारण प्रसूति के समय ही उनकी मृत्यु हो जाती है या वे बीमारियों से घिरने के कारण मृत्यु को प्राप्त हो जाती है।
  4. भारत में पुरुषों की मृत्यु दर स्त्रियों की मृत्यु दर से कम है। यह एक चमत्कारी (विलक्षण) स्थिति है जबकि पाश्चात्य देशों में स्त्रियों की मृत्युदर कम तथा पुरुषों की मृत्युदर अधिक है। इसका मुख्य कारण यह हो सकता है कि वहाँ की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति हमारे यहाँ की तुलना में अधिक अच्छी है और पाश्चात्य देशों में छोटा परिवार रखने हेतु परिवार नियोजन का भी ध्यान रखा जाता है।
  5. भारत में बाल-विवाह प्रथा बहुत प्रचलित है। अतः छोटी आयु में मातृत्व का भार बालिकाएँ द्वारा सहन न करने के कारण भी उनकी प्रसूति के समय मृत्यु हो जाती है और वे काल का ग्रास बन जाती हैं।
  6. हमारे भारतीय समाज में दहेज की प्रथा इतनी अधिक व्यापक और प्रत्येक समाज में फैली हुई है कि विवाह के समय इतना दहेज दिया जाता है कि माता-पिता आर्थिक दृष्टि से इतने कमजोर हो जाते हैं कि बालिकाओं को वे परिवार में अभिशाप समझने लगते हैं और कन्या भ्रूण हत्या हेतु बाध्य हो जाते हैं।
  7. भारत के जनसंख्या के लिंगानुपात में असन्तुलन का महत्वपूर्ण कारण शिक्षा का अभाव भी है। जब हम उन क्षेत्रों में जाते हैं जहाँ शिक्षा का अभाव है वहाँ पर कन्या भ्रूण हत्या की संख्या अधिक हैं तथा स्त्रियों के साथ अन्याय भी उन्हीं क्षेत्रों में अधिक होते हैं जहाँ समाज के लोग अशिक्षित है।

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असन्तुलित लिंगानुपात को प्रभावित करने वाले कारण

आधुनिक परिवर्तनशील भारतीय समाज में अनेक कारण शिक्षा, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, विभिन्न महिला संगठनों में जागरूकता की कमी, विभिन्न प्रेरणात्मक योजनाओं के प्रति जागरूकता, लिंग के प्रति जागरूकता, नवीन युवा दम्पति को प्रभावित करते हैं लेकिन आज भी कुछ प्राचीन परम्परागत सामाजिक, सांस्कृतिक कारण हैं जो असन्तुलित लिंगानुपात को प्रभावित करते हैं। ये कारण हैं –

(1) संयुक्त परिवार प्रणाली – भारतीय समाज में प्राचीन परम्पराओं, मूल्यों तथा प्रतिमानों का विकास भी बुजुर्गों की मान्यता के आधार पर होता है। अतः परिवार में एक पुत्र के प्रथम सन्तान के रूप में जन्म लेने पर प्रसन्नता होती है परन्तु यदि पुत्री सन्तान होती है तो परिवार के बड़े बुजुर्ग इसका शोक अधिक मनाते हैं।

(2) दहेज प्रथा – दहेज प्रथा के कारण जिस क्षण कन्या धरती पर श्वांस लेती है उसके भावी जीवन का स्वरूप निश्चित होने लगता है। समय परिवर्तन के साथ-साथ दहेज के स्वरूप में भी परिवर्तन हुआ है। कभी माता-पिता द्वारा उपहार के रूप में दिया जाने वाला दहेज आज एक शर्त का रूप धारण कर चुका है। परिणामस्वरूप माता-पिता के लिये कन्या एक बोझ बन जाती है। दहेज निरोधक अधिनियम (1961) भारतीय समाज पर लागू होने के पश्चात् भी इसका प्रभाव बहुत कम देखा जाता है। लोग चोरी छिपे लेते एवं देते हैं। इसी के कारण पुत्र को परिवार में आमदनी का स्रोत एवं पुत्री को आर्थिक तंगी का कारण समझा जाता है। वर्तमान में देहज का सबसे अधिक प्रचलन राजपूत, ब्राह्मण, बनिया और यहाँ तक कि कुछ पिछड़ी जातियों में भी पाया जाता है। तमिलनाडु के एक इलाके में सन् 1993 में 196 लड़कियाँ संदिग्ध अवस्था में मृत पायी गयी थीं। किसी को जहरीला पाउडर दिया गया था किसी किसी को भूख से मरने के लिये छोड़ दिया गया था। किसी की श्वांस नली अवरुद्ध करने का प्रयास किया गया था। इसका मल कारण आर्थिक तंगी बताया गया। तमिलनाडु में लड़कियों को जन्म लेते ही मार डालना पालने से बेहतर समझा जाता है।

(3) लिंग के प्रति जागरूकता – वर्तमान में भारतीय समाज में लिंग के प्रति जागरूकता में वृद्धि हुई है। इस सम्बन्ध में आधुनिक चिकित्सा तकनीकी ने बल दिया है। अवैध रूप से एमनियो सिन्टसिस एवं सोनोग्राफी द्वारा जन्म से पूर्व ही स्त्रीलिंग की जानकारी प्राप्त कर गर्म में ही भ्रूण की हत्या कर दी जाती है। परिणामस्वरूप असन्तुलित लिंगानुपात की स्थिति उत्पन्न होती है।

(4) कन्यादान का आदर्श – भारतीय समाज में कन्यादान के आदर्श के फलस्वरूप समाज में कन्या वस्तु के रूप में देखी जाती है जिसके अन्तर्गत माता-पिता की यह मान्यता होती है कि दान की गयी वस्तु पर अपना कोई भी अधिकार नहीं है। परिणामस्वरूप एक बार कन्या को दान कर देने के पश्चात् एक पक्ष से उसके समस्त अधिकार समाप्त कर दिये जाते हैं जिससे स्त्री की स्थिति समाज में निम्न होती है।

असन्तुलित लिंगानुपात एवं लड़कियों की घटती संख्या वर्तमान भारतीय समाज की सबसे बड़ी चुनौती है। समय रहते यदि इसका समाधान नहीं किया गया तो भारतीय समाज को नकारात्मक प्रभाव का सामना करना पड़ेगा। वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि आने वाले 20 वर्षों में इसी गति से कन्या भ्रूण हत्याएँ होती रहीं तो सामाजिक संरचना की व्यावहारिक संस्था तथा परिवार पर इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा। देश में इस तरह के 16 जिले हैं जहाँ बड़ी संख्या में भ्रूण हत्याएँ की जा रही हैं। इनमें अकेले 10 जिले पंजाब के, 5 हरियाणा के और एक गुजरात का है। लड़कियों की घटती संख्या से पंजाब, हरियाणा एवं अन्य राज्यों में सामाजिक कुरीतियों ने जन्म ले लिया है। वहाँ लड़कियों की कमी के कारण उनका पुरुष की तुलना में अनुपात कम हो रहा है। पश्चिमी बंगाल, बिहार और झारखण्ड जैसे राज्यों से लड़कियाँ शादी के लिये खरीदकर लायी जा रही हैं। पीड़ादायक स्थिति यह है कि एक तो लड़की को सामाजिक, धार्मिक और भाषायी स्तर पर संघर्ष करना पड़ रहा है दूसरा बेटियों को निर्धनता के कारण नहीं अपितु पुत्र के मोह में मारा जा रहा है। इसके पीछे पढ़े-लिखे और सम्पन्न परिवार के लोगों की भी बड़ी संख्या है।

राजस्थान में लिंगानुपात प्रारम्भ से ही पुरुषों के पक्ष में रहा है अर्थात् प्रति एक हजार पुरुषों के पीछे स्त्रियों की संख्या सामान्यतया एक हजार से कम 922 रही है। पिछले दशक में महिलाओं की संख्या में वृद्धि दिखायी दी है। राज्य में 32 जिलों में से 24 जिलों में यह वृद्धि रही है। यह अनुपात भरतपुर तथा जैसलमेर जिलों में न्यूनतम रहा। डूंगरपुर जिले में लिंगानुपात स्त्रियों के पक्ष में रहा। लिंगानुपात बढ़ने से जनसंख्या में अधिक वृद्धि की सम्भावना रहती है।

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